आज से सालों पहले, भारतीय भौतिक वैज्ञानिक (फिज़िसिस्ट), डॉ. राजा रमन्ना को सद्दाम हुसैन ने खास मेहमान के तौर पर इराक आने के लिए आमंत्रित किया था। हर कोई अंदाज़ा लगा सकता है कि एक इराकी तानाशाह का भारत के परमाणु वैज्ञानिक को बुलाना किसी मैत्री की शुरुआत तो नहीं थी, बल्कि इसमें उसका कोई बहुत बड़ा उद्देश्य छिपा हुआ था।
सबसे हैरानी की बात यह थी कि डॉ. रमन्ना द्वारा पोखरण में भारत का पहला परमाणु परीक्षण किए जाने के ठीक चार साल बाद, उन्हें यह निमंत्रण मिला था।
साल 1974 में हुए उस परमाणु परीक्षण ने पुरे विश्व को आश्चर्यचकित कर दिया। इस परीक्षण ने भारत को ‘थर्ड वर्ल्ड कंट्री’ की छवि से बाहर निकाल कर, एक ‘विकसित राष्ट्र’ के रुप में स्थापित कर दिया था। बाकी देशों की ही तरह, इराक के नेता, सद्दाम को भी इस घटना ने काफ़ी प्रभावित किया।
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भारत की इस तरक्की से मायूस और नाराज, सद्दाम चाहता था कि डॉ. रमन्ना ईराक में रहें और उनके देश के परमाणु कार्यक्रम का नेतृत्व कर, इराक के लिए परमाणु बम बनाएं। यहाँ तक कि डॉ. रमन्ना को बगदाद और इराक के मुख्य परमाणु सुविधा केंन्द्र, तुवैता के दौरे पर भी ले जाया गया, और फिर इस यात्रा के अंत में सद्दाम ने उन्हें एक प्रस्ताव दिया।
ब्रिटिश पत्रकार श्याम भाटिया और डैनियल मैकग्रोरी द्वारा लिखी गयी किताब, ‘सद्दाम्स बॉम’ (Saddam’s Bomb) के मुताबिक, सद्दाम ने उस समय डॉ. रमन्ना से कहा, “आपने अपने देश के लिए बहुत कर लिया। अब वापिस न जाएँ, बल्कि यहीं रहें और हमारे परमाणु कार्यक्रम को संभालें। जितना आप चाहें, मैं आपको उतना पैसा दूंगा।”
सद्दाम की इस बात ने उस वक़्त 53-वर्षीय रमन्ना को इतना परेशान कर दिया कि वे पूरी रात सो ना सके। उन्हें लगा कि वे फिर कभी भारत को नहीं देख पाएंगे और इसलिए, मौका मिलते ही उन्होंने फ्लाइट बुक की और वहाँ से आ गए।
आज जब भी परमाणु शक्ति के क्षेत्र में भारत की उन्नति और विकास की बात होती है, तो डॉ. रमन्ना के अभूतपूर्व योगदान के साथ-साथ इस संवेदनशील घटना का जिक्र भी होता है।
द बेटर इंडिया के साथ पढ़िए इस दूरदर्शी वैज्ञानिक की कहानी, जो परमाणु विज्ञान के क्षेत्र में भारत की आशाजनक प्रगति के प्रमुख कारण रहे हैं!
एक बहुमुखी प्रतिभा
28 जनवरी 1925 को कर्नाटक के तुमकुर में जन्में रमन्ना ने डॉ. होमी भाभा के संरक्षण में उनकी परंपरा और उनके काम को आगे बढ़ाया। डॉ. भाभा को ‘भारतीय परमाणु कार्यक्रम का संस्थापक’ कहा जाता है। डॉ. भाभा के साथ उनका पहला परिचय संगीत के माध्यम से हुआ था। साल 1944 में उनकी मुलाक़ात उन दोनों के एक कॉमन दोस्त ने करवाई, क्योंकि रमन्ना और भाभा, दोनों को ही संगीत, खास तौर पर ‘मोजार्ट’ में गहरी रूचि थी।
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इस मुलाक़ात के पांच साल बाद, डॉ. रमन्ना टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च (टीआईएफआर) से जुड़े, जो कि भारत के परमाणु ऊर्जा कार्यक्रम का केंद्र था। डॉ. भाभा के मार्गदर्शन के चलते ही उन्होंने 18 मई 1974 को राजस्थान के पोखरण में पहला भूमिगत परमाणु परीक्षण किया।
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रसिद्ध वैज्ञानिक होना ही उनकी पहचान नहीं था, बल्कि वे एक बेहतर प्रशासक और एक कुशल शिक्षक भी थे। विज्ञान, प्रौद्योगिकी और कला- इन तीनों के मेल को प्रतिबिंबित करने वाले एक आदर्श उदाहरण थे डॉ. रमन्ना। संस्कृत-साहित्य के प्रकांड विद्वान और एक कुशल पियानोवादक- जिन्होंने कई संगीत कार्यक्रम भी किए थे।
दिलचस्प बात यह है कि उन्होंने रॉयल स्कूल ऑफ म्युज़िक, लंदन से पियानोवादक का खिताब भी हासिल किया। कहते हैं कि दर्शनशास्त्र में उनकी गहरी रुचि ने ही उन्हें विज्ञान की गहराई को समझने में मदद की।
एक साक्षात्कार में, उन्होंने कथित तौर पर कहा, “यूनानीयों की परमाणु के प्रति समझ दार्शनिक दृष्टी से थी, पर वर्तमान में विशेशिका थियोरी में इस बात को साफ़ तौर पर समझाया गया है कि एक परमाणु को तब तक विभाजित किया जाना है जब तक कि यह अविभाज्य हो जाए। इस प्रकार, परमाणु का सिद्धांत बाकी जगहों से ज्यादा भारत के लोगों के दिमाग में बहुत गहराई से है।”
डॉ. रमन्ना परमाणु ऊर्जा आयोग (AEC) के सबसे पहले और एकमात्र ऐसे पूर्व चेयरमैन थे, जिन्होंने अपनी आत्मकथा को ‘ईयर्स ऑफ पिलग्रिमेज: एन ऑटोबायोग्राफी’ के नाम से लिखा है। साल 1993 में संगीत पर भी उन्होंने एक किताब लिखी, जो ‘द स्ट्रक्चर ऑफ़ म्यूज़िक इन रागा एंड वेस्टर्न सिस्टम्स’ नाम से प्रकाशित हुई।
‘मुस्कुराते हुए बुद्ध’ के पीछे की कहानी
18 मई 1974 को, डॉ. रमन्ना ने भारत के पहले भूमिगत परमाणु बम विस्फोट को अंजाम देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। इस कार्यक्रम की पहले बहुत आलोचना हुई, लेकिन इस परमाणु परीक्षण से किसी को कोई नुकसान नहीं हुआ और न ही इसका ऐसा कोई इरादा था। इस परीक्षण का एकमात्र उद्देश्य दुनिया को एक मजबूत संदेश भेजना था।
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इसलिए, इसे एक “शांतिपूर्ण परमाणु विस्फोट” कहा गया, और इसे एक दिलचस्प कोड नाम दिया गया- ‘स्माइलिंग बुद्धा’ यानी कि ‘मुस्कुराता हुआ बुद्ध,’ क्योंकि यह परीक्षण महात्मा बुद्ध की जयंती के दिन ही हुआ था!
एईसी के पूर्व अध्यक्ष डॉ. आर. चिदंबरम का कहना था कि इसके शुरुआती चरणों में यह एक बहुत ही गुप्त प्रोजेक्ट था। साल 1998 में परमाणु ऊर्जा विभाग द्वारा प्रकाशित एक साक्षात्कार में, श्री चिदंबरम ने बताया कि इसकी गोपनीयता बनाए रखने के लिए इस परियोजना के शुरूआती चरणों के बारे में कुछ भी लिखित रुप में नहीं था। दूसरा, इस पर अंशकालिक (पार्ट-टाइम) रूप से कार्य करना था।
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उनके अनुसार, डॉ. रमन्ना ने 1966 में डॉ. होमी भाभा की मृत्यु से पहले ही इस प्रोजेक्ट के बारे में सोचना शुरू कर दिया था। श्री चिदंबरम याद करते हुए कहते हैं,
“डॉ. रमन्ना ने इस परीक्षण को करने के लिए सभी मंजूरी ले ली थीं, लेकिन सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण था प्लूटोनियम को शिफ्ट करना। जिसे एक बक्से में भारतीय सेना की मदद से ले जाया गया। सेना की उस टुकड़ी के लोग सोच रहे थे कि रॉय और मैं हमेशा इस बक्से के आस-पास ही क्यों खड़े दिखते हैं। वो क्षण मुझे आज भी याद है, जब हम सुरक्षित रूप से पूरी तैयारी के साथ पोखरण पहुँचे थे। संयोग से, जब हम वहाँ पहुँचे, तो आँधी आ गई, जिसके चलते हम काफ़ी परेशान हुए। लेकिन उस घटना ने एक तरह से हमारी मदद ही की, क्योंकि इस आँधी के कारण कोई जासूसी सैटेलाइट हमें देख नहीं पाया।”
इस परीक्षण लिए डॉ. रमन्ना ने कई पुरस्कार जीते, जिनमें तीन सबसे प्रतिष्ठित भारतीय नागरिक पुरस्कार- पद्म भूषण, पद्म श्री और पद्म विभूषण शामिल थे।
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24 सितंबर, 2004 को उनका निधन हुआ। लेकिन उनके जाने के बाद भी, उनके योगदान की बदौलत, भारत विज्ञान, प्रौद्योगिकी और रक्षा के क्षेत्र में लगातार आगे बढ़ रहा है!
मूल लेख: अनन्या बरुआ
संपादन: निशा डागर