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बाएं -फैसल कुरैशी के दादा हज़रत बशीर अहमद क़ुरैशी दायें - फैसल कुरैशी
किसी भी देश की पहचान उस देश के लोगों, वहां के खानपान और पहनावे से होती है। हमारे देश के हर प्रान्त के पास कुछ ऐसा नायाब तोहफा मौजूद है जिसे सदियों से पीढ़ी दर पीढ़ी न सिर्फ संजो कर रखा गया है बल्कि हर पीढ़ी ने उस रिवायत की खिदमत भी की है। सोचिये, अगर अपनी धरोहर को सहेजने वाले यह पैरोकार न हो तो हमारी पहचान धीरे-धीरे कहीं पीछे ही छूट जाएगी।
अगर कश्मीर की पहचान पश्मीना है, तो उत्तर प्रदेश की बनारसी साड़ी, दक्षिण में कांजीवरम का जलवा है, तो गुजरात की पटोला की अपनी धमक है, वहीं महाराष्ट्र की शादी पैठनी साड़ी के बिना अधूरी मानी जाती है।
आज भले ही फैशन के इस दौर में सब कुछ सिमट कर शॉपिंग मॉल की जगमगाती ब्रांडेड शॉप्स में कैद हो गया हो। लेकिन आज भी कुछ लोग परंपरागत पहनावे के कद्रदान हैं और इन हेरिटेज फैब्रिक को अपनी वार्डरोब का हिस्सा बनाना अपनी शान समझते हैं।
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अपनी यात्राओं के दौरान मैंने देश के हर हिस्से में जाकर वहां के परंपरागत बुनकरों के साथ वक़्त गुज़ारा है। धागों की इस सजीली दुनिया में विचरण करते हुए किसी धागे के सिरे को थाम उस कला के इतिहास में झाँकने की कोशिश की है। जहाँ धागों से जादू बुनने वाले इन बुनकरों ने मुझे अपनी कला से हमेशा विस्मित किया है, वहीं इनकी दयनीय स्थिति ने मुझे अन्दर तक विचलित भी किया है।
अपनी कला के लुप्त होने का दुःख मैंने लगभग सभी बुनकरों में एक समान देखा है। एक ऐसी पीड़ा जिसका कोई माक़ूल इलाज नहीं। ऐसे में अगर कोई नौजवान ऐसा नज़र आए जो इस कला को न सिर्फ संरक्षित करने का काम करे, बल्कि इसे विदेशों तक ले जाए तो फिर कहने ही क्या हैं?
मेरी औरंगाबाद, महाराष्ट्र की यात्रा में मुझे ऐसे ही ज़िम्मेदार नौजवान फैसल क़ुरैशी से मिलने का मौक़ा मिला। फैसल ने अपने दादा की विरासत को आगे बढ़ाया है।
फैसल हिमरू और मशरु फेब्रिक को रिवाईव कर उसे नई पहचान दिलवाने की कोशिश में लगे हुए हैं।
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फैसल के खानदान में हिमरू और मशरु बनाने की कला 6 पीढ़ियों से चली आ रही है। कहते हैं, यह बुनकर मुहम्मद तुगलक के समय में पर्शिया से भारत आए थे और जब मुहम्मद तुगलक ने दिल्ली से अपनी राजधानी दौलताबाद शिफ्ट की तो बुनकरों का पूरा टोला यहाँ महाराष्ट्र में आ कर बस गया। बस तभी से यह कला यहाँ की होकर रह गई। बाद में मुगलों के समय में यह कला बहुत फली-फूली।
फैसल कुरैशी के दादा हज़रत बशीर अहमद क़ुरैशी ने 1891 में औरंगाबाद के एक पुराने इलाके ज़फर गेट पर बशीर सिल्क फैक्ट्री की शुरुआत की। इसी फैक्ट्री से हिमरू की बुनकारी की शुरुआत हुई थी।
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इस फैब्रिक के कद्रदान तो हैदराबाद के निज़ाम भी हुआ करते थे। वह अपने लिए ख़ास तौर पर फैब्रिक बनवाने यहाँ आते थे। महाराष्ट्र की पहचान मानी जाने वाली बुनकारी की कला हिमरू और मशरु खानदानी लोगों में बहुत पसंद की जाती थी। लेकिन धीरे-धीरे बदलते समय के साथ लोगों में पारंपरिक पहनावे को लेकर उदासीनता आने लगी।
कहते हैं एक गलत फैसला पता नहीं कितनों की ज़िन्दगी पर असर डालता है इसका सबसे बड़ा उदाहरण यहाँ औरंगाबाद में देखने को मिलता है। औरंगाबाद में आने वाले विदेशी टूरिस्ट पैठनी, हिमरू और मशरु बहुत पसंद करते थे। जिससे यहाँ के बुनकरों की रोज़ी-रोटी अच्छी तरह चलती थी लेकिन औरंगाबाद तक जाने वाली कुछ फ्लाइट्स के बंद होने से यहाँ पर टूरिस्ट का आना भी कम हो गया, जिसका सीधा असर यहाँ के बुनकरों पर पड़ा।
बुनकर युसूफ खान जो कि 3 दशक से इस कला के साथ जुड़े हैं, उस गुज़रे वक़्त के वापस आने के इंतज़ार में बैठे हैं जब विदेशी सैलानी औरंगाबाद फिर से आएंगे और उनके बनाए फैब्रिक को खरीदेंगे।
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पहले जहाँ पैठनी, हिमरू और मशरु के अच्छे दाम मिल जाया करते थे वहीं अब बुनकरों को अपना उत्पाद बेचने के लिए कोई ग्राहक उपलब्ध न था। ऐसे में इस कला का पिछड़ना तो लाज़मी था। लोग धीरे-धीरे किसी अन्य काम की तरफ मुड़ने लगे।
ऐसे में इंजीनियरिंग की डिग्री लेकर आए एक युवा नौजवान फैसल क़ुरैशी ने बीड़ा उठाया कि इस पारंपरिक बुनकारी की कला को मरने नहीं देना है और उन्होंने अपने खानदान की रिवायत को आगे बढ़ाने का फैसला किया।
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फैसल बताते हैं, ''मेरे लिए यह काम आसान नहीं था। जो लोग रोज़ी-रोटी की तलाश में किसी और काम को करने लगे थे उन्हें वापस लूम शुरू करवाने में बहुत मशक्क़त करनी पड़ी। उसके बाद इस कला को कंटेम्पररी बनाना भी एक चुनौती थी। बदलते वक़्त के साथ बदलना ज़रूरी है लेकिन ट्रेडिशन को बचाते हुए ऐसा करना बहुत मुश्किल। मैंने इन वीवर्स के साथ मिलकर डिज़ाइन को आधुनिक रंगों के साथ एक नया कलेवर देने की कोशिश की जिसे बहुत पसंद किया गया। हमारी मेहनत सफल हुई।''
फैसल के लिए अब अगली मुश्किल इसे बेचने की थी। पैठनी, हिमरू और मशरु कभी भी आम लोगों के लिए बनने वाला फैब्रिक नहीं रहा, इसे हमेशा ख़ास लोगों ने पहना है। ऐसे में उन ख़ास लोगों तक इस फैब्रिक को पहुँचाना एक बड़ा काम था। इसके लिए उन्होंने देश-विदेश में एग्जिबिशन लगाई। जिसका बहुत अच्छा रेस्पोंस मिला।
आज उनके फैब्रिक आप अमेरिका के कैलिफोर्निया, डैलस, सैन फ्रांसिस्को, लॉस एंजेलिस, टेक्सस और ऑस्टिन से भी ख़रीद सकते हैं।
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पहले बुनकरों को अपना माल बिचौलियों को बेचना पड़ता था जिससे उनकी मेहनत का सही फल उन्हें नहीं मिलता था। फैसल और टीम ने बीच से बिचौलियों को हटा दिया। आज वे बुनकरों को डिजाइनिंग से लेकर अच्छी क्वालिटी के रॉ मटेरियल और सेल में भी हर संभव मदद करते हैं। पहले उनके पास सिर्फ 4 सीटर लूम थे, जो आज बढ़कर 20 हो गए हैं।
फैसल ने अपनी पहचान खो चुके बुनकरों और उनके लूम्स को जगाने का काम किया है। आज लगभग 150 बुनकर परिवार इस लुप्त होती कला को फिर से जिंदा करने में न सिर्फ़ योगदान दे रहे हैं बल्कि अपना जीवन यापन भी अच्छी तरह से कर रहे हैं।
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यहाँ पर काम करने वाले बुनकर विजय शंकर राव खोड़े बताते हैं, ''1500 से 2500 धागों के काउंट्स में डिजाईन बनाना महीन काम है। पैठनी के डिजाईन ग्राफ़ पर बनाए जाते हैं। हम फैसल के नेतृत्व में इस कला को नित नए आयाम देने की कोशिश कर रहे हैं, ताकि ज्यादा से ज्यादा लोग इसे पसंद करें।''
फैसल लम्बे समय से इस कला को अपने स्तर पर बचाने की पुरजोर कोशिश कर रहे हैं लेकिन सरकार की ओर से सहयोग नहीं मिलता। वह चाहते हैं कि सरकार इस धरोहर के संरक्षण के लिए इन बुनकरों की मदद करे ताकि इस कला को लुप्त होने से बचाया जा सके। फैसल और उनके साथ जुड़े सभी बुनकर चाहते हैं कि महाराष्ट्र की पहचान माने जाने वाले पारंपरिक हेंडलूम पैठनी, हिमरू और मशरु को पर्यटन से जोड़ा जाए, जिससे महाराष्ट्र में पर्यटन के साथ-साथ उनका भी विकास हो।
फैसल ने औरंगाबाद में हेरिटेज स्टोर की भी शुरुआत की है, जहाँ से पारंपरिक फेब्रिक ख़रीदे जा सकते हैं। यहाँ साड़ी, दुपट्टे, स्टॉल, शॉल, कुशन आदि का बड़ा कलेक्शन मौजूद है।
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इस कला की जड़ें भले ही पर्शिया से जुड़ी हो लेकिन आज यह कला पूरी तरह से भारतीय रंगों में रंग चुकी है, इसकी गवाही देते हैं इसके डिज़ाइन, जिनमें भारतीय फूल, पक्षी यहाँ तक के पशुओं की आकृतियों ने अपनी जगह बना ली है।
हिमरू शब्द फारसी के दो शब्दों से मिलकर बना है। हम + रूह = यानी दोनों ओर से समान दिखने वाला। हिमरू सोने-चांदी से बनने वाले आला क़िस्म के फैब्रिक कमख़्वाब की नक़ल माना जाता है। कमख़्वाब कपड़ा राजा-महाराजा पहना करते थे।
अगर आप फैसल से संपर्क करना चाहते हैं तो हिमरू फैब्रिक्स स्टोर को [email protected] पर ईमेल कर सकते हैं। आप उनसे 9923365025 पर बात भी कर सकते हैं।
संपादन - भगवती लाल तेली