साल 2016 की सुबह डॉ राघवेंद्र आर., रोजाना की तरह सुबह की सैर पर निकले थे। चलते-चलते वह अपने शहर श्रीरंगपटना (कर्नाटक) की एक ऐसी जगह पर पहुंच गए, जहां उन्हें झाड़ियों के बीच एक प्राचीन मंदिर नज़र आया। उनके कदम वहीं रुक गए। यह मंदिर काफी जीर्ण-शीर्ण अवस्था में था, जिसे जंगली घासों ने अपने आगोश में छिपा कर रखा था।
मांड्या जिले में स्थित यह छोटा सा शहर सदियों पुरानी विरासत-इमारतों, तालाबों, झीलों और मंदिरों के लिए जाना जाता है। ये सभी टीपू सुल्तान और ब्रिटिश राज के शासनकाल के समय के हैं।
हालांकि जब राघवेंद्र ने इस मंदिर को देखा था, तब उन्हें इसके इतिहास की जानकारी नहीं थी। उन्हें लगा कि यह कोई पुराना मंदिर है, जो घास-फूस और जंगली पौधों के बीच कहीं छिप गया था।
सुबह की सैर से हुई शुरूआत
राघवेंद्र ने द बेटर इंडिया को बताया, “यह शहर अपनी अद्वितीय और बेशकीमती वास्तुकला के लिए जाना जाता था। आज इसकी प्राचीन इमारतें काफी जर्जर हालत में हैं। इसलिए मैंने अपनी सुबह की सैर में इन्हें खोजना शुरू कर दिया। अब तक जितने भी प्राचीन मंदिरों, झीलों और तालाबों को खोजा है, वे सब एक ही स्थिति में मिले थे।”
राघवेंद्र ने बताया, “ये तालाब, झीलें और जल निकाय कचरे और मलबे के ढेर में कहीं नीचे छिपे पड़े थे। सालों की लापरवाही ने, उन्हें इस अवस्था में ला खड़ा किया था। मैंने उन्हें फिर से पुनर्जीवित करने का फैसला कर लिया।”
आज इनकी इस छोटी सी पहल से लगभग 300 स्वयंसेवक जुड़ गए हैं। ये सभी लोग मिलकर लंबे समय से भूली और उपेक्षित पड़ी झीलों, तालाबों और इमारतों को नया जीवन देने के काम में लगे हैं।
इन विरासतों को खोना बड़ा नुकसान
इतना बड़ा काम करने का फैसला क्यों किया, वह भी अकेले? इस सवाल के जवाब में डॉक्टर राघवेंद्र कहते हैं, “ये ऐसी संपत्तियां हैं, जिन्हें हम अगली पीढ़ी को देंगे। यदि हम इस समृद्ध विरासत को बनाए रखने में असमर्थ रहे, तो यह एक बड़ा नुकसान होगा।”
39 साल के राघवेन्द्र मैसूर के शेषाद्रिपुरम डिग्री कॉलेज में नेशनल सर्विस स्कीम (NSS) के लिए एक प्रोग्राम कोऑर्डिनेटर के रूप में काम करते हैं। उन्होंने अपने इस मिशन में सहयोग के लिए अपने छात्रों से अपील की।
वह बताते हैं, “NSS से जुड़े छात्रों को सामुदायिक सेवा करनी होती है। मुझे लगा कि वे इन सदियों पुरानी संरचनाओं को बहाल करने में मेरी मदद कर सकते हैं।”
अधिकारियों ने भी दिया साथ
छात्रों को अपने साथ जोड़ने के बाद राघवेंद्र ने संबंधित अधिकारियों, मसलन नगर निगम और पुरातत्व विभाग के साथ संपर्क करना शुरू किया। वह कहते हैं, “उन्होंने जरूरी अनुमोदन या अनुमति लेने और उस ढांचे के संदर्भ में जुड़ी जानकारी देने में हमारी काफी मदद की। छात्रों को साफ-सफाई के लिए सेफ्टी गियर और खुदाई का सामान भी मुहैया कराया।”
उसके बाद से उनकी टीम कीड़ों, मकोड़ों, सांप, कचरे आदि के खतरे से निपटते हुए अपने काम को आगे बढ़ाने में जुट गई। जरुरत पड़ने पर ये स्वंयसेवक तालाबों में पानी भरने का भी काम कर रहे थे।
साल 2017 से, राघवेंद्र और उनकी टीम अब तक शहर की चार झीलों, दस तालाबों और आठ मंदिरों को पुनर्जीवित कर चुके हैं। राघवेंद्र के अनुसार, उनके इस प्रयास से 1500 लोगों को इन पुनर्जीवित तालाबों और झीलों से स्वच्छ पानी मिल पा रहा है। इसके अलावा, इन छात्रों ने शहर के दो पार्कों की सफाई कर, वहां पेड़-पौधे लगाकर उसे फिर से हरा-भरा कर दिया है।
एक अंतहीन मिशन
एक इन्वेस्टमेंट बैंकर और पहल से जुड़े स्वयंसेवक श्रीधर एस. के. कहते हैं, “मैं पिछले चार सालों से प्राचीन इमारतों को खोजने और उनके पुनरुद्धार के काम से जुड़ा हुआ हूं। पहले मैं फिटनेस के मकसद से इस अभियान में शामिल हुआ था। लेकिन इससे जुड़ने के बाद मैंने इसके सामाजिक और सांस्कृतिक महत्व को महसूस किया। हमारा शहर अपने ऐतिहासिक महत्व के लिए जाना जाता है और मैं परंपरा को जीवित रखने में भागीदार बनना चाहता हूं।”
श्रीधर ने आगे कहा, “डॉक्टर राघवेंद्र अपने सभी स्वयं सेवकों को फ्री में नाश्ता और जूस या ड्रिंक देते हैं। कोविड के समय लॉकडाउन में उनकी तनख्वाह में 30 प्रतिशत की कटौती हुई थी। लेकिन फिर भी वह रुके नहीं, अपने काम में जुटे रहे। उपकरणों से साफ-सफाई की लागत कई बार 20,000 से भी ऊपर पहुंच जाती है।”
नहीं मिलती कोई बाहरी मदद
डॉ राघवेंद्र भी इस बात को मानते हैं कि पैसों की कमी एक बड़ी समस्या है। वह कहते हैं, “काम करने के लिए मुझे पहले से योजना बनानी होती है और फंड तैयार करना होता है। कुछ जगहों पर स्थानीय लोग छात्रों के काम से खुश होकर उन्हें स्नेक्स वगैरह दे देते हैं। इसके अलावा, मुझे और कोई बाहरी मदद नहीं मिलती।”
उन्होंने आगे कहा, “अक्सर अधिकारियों से अनुमति मिलने में काफी देर हो जाती है। यह भी अपने आप में एक चुनौती है। कई बार तो अनुमति मिलने और काम शुरू करने में महीनों लग जाते हैं।” राघवेंद्र का कहना है कि चाहे कितनी भी चुनौतियां क्यों न आएं, वह प्राचीन संरचनाओं को पुनर्जीवित करना जारी रखेंगे।
वह कहते हैं, “मेरा उद्देश्य खबरों में आना, प्रचार करना या आर्थिक सहायता लेना नहीं है। समाज के प्रति कृतज्ञता दिखाने का यह मेरा अपना तरीका है।”
मूल लेखः हिमांशु नित्नावरे
संपादनः अर्चना दुबे
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