बंगलुरु के रहने वाले सिद्धार्थ संतोष, निखिल दीपक, वरुण दुरै, सौरव संजीव और कुशाग्र सेठी, द अमात्रा एकेडमी में 12वीं कक्षा के छात्र हैं। वैसे तो साल का यह वह वक़्त है जब बच्चे बाकी सब बातों से ध्यान हटाकर अपने टेस्ट, इंटरनल और आगामी परीक्षाओं की तैयारी में लग जाते हैं।
पर इन पांच दोस्तों के लिए पढ़ाई के साथ-साथ कुछ और भी ज़रूरी है। ये छात्र अपनी पढ़ाई के साथ 800 किलोग्राम खाने की बर्बादी भी रोक रहे हैं। द बेटर इंडिया से बात करते हुए, सिद्धार्थ ने इस बारे में विस्तार से बताया,
“हमारे स्कूल में हर दिन ताजा खाना बनता है और बहुत बार, काफ़ी मात्रा में खाना वेस्ट जाता है क्योंकि पूरा इस्तेमाल नहीं होता है। हम पांचों हर दिन इतना खाना बेकार होते हुए देखते थे।”
उन्होंने इस बारे में कुछ करने की ठानी।
रिसर्च करने पर उन्हें कुछ चौंका देने वाले फैक्ट्स पता चले, जैसे कि भारत में हर दिन बहुत से लोग सिर्फ़ भूख के कारण मर जाते हैं। सिद्धार्थ ने कहा,
“हम चाहते थे कि यह खाना उनके पास पहुंचे, जिन्हें इसकी सबसे ज़्यादा ज़रुरत है और इस तरह से ‘वेस्ट नॉट (Waste Nought)’ की शुरुआत हुई।”
उन्होंने सबसे पहले अपने मेस के इंचार्ज से बात ही और वे तुरंत मान गए।
लेकिन खाना बनने के बाद उसे ट्रांसपोर्ट करना आसान नहीं था, इसलिए उन्होंने तय किया कि उन्हें यह काम स्कूल के आस-पास ही करना होगा। इसके बाद उन्होंने ऐसी जगहों की तलाश की जहाँ वे इस खाने को दे सकते थे।
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कई सारे एनजीओ और अनाथालयों से बात करने के बाद, उन्हें बंगलुरु के बत्तराहल्ली में श्री कृष्णाश्रय एजुकेशनल ट्रस्ट के बारे में पता चला। इस अनाथ आश्रम में 30 बच्चे, 27 लड़के और 3 लड़कियाँ रहते हैं। इन सबकी उम्र 5 से 18 साल के बीच है। उन्हें समझ में आ गया कि इस आश्रम के बच्चों के लिए खाना भेजना बिल्कुल सही रहेगा और साथ ही, स्कूल से आश्रम की दूरी भी बहुत ज़्यादा नहीं है।
इसलिए, अब हर रविवार, Waste Nought टीम स्कूल की कैंटीन से बचे हुए खाने को पैक करती है और इस आश्रम में बच्चों के लिए पहुँचाती है।
इस अनाथ आश्रम के मैनेजिंग ट्रस्टी, पुष्पराज कहते हैं,
“ये लड़के एक साल से भी ज़्यादा समय से यहाँ आ रहे हैं और ये हमारे बच्चों के लिए बहुत-सी खुशियाँ लाते हैं। यहाँ तक कि अब आश्रम के बच्चे बासमती चावल की बिरयानी और कभी-कभी आने वाली मिठाई का बेसब्री से इंतज़ार करते हैं।”
पर स्कूल से एक घंटे की दूरी पर स्थित इस आश्रम तक पहुँचते-पहुँचते क्या खाना खराब नहीं होता?
इस पर पुष्पराज कहते हैं,
“बच्चों को जो भी दिया जाता है वह सबसे पहले हम चेक करते हैं। जब भी बहुत ज़्यादा गर्मी होती है तो हम उनको किसी भी तरह की करी/सब्जी लाने से मना करते हैं क्योंकि यह गर्मी से खराब हो सकती है।”
सिद्धार्थ और उनके दोस्तों की यह पहल सिर्फ़ अपने स्कूल और इस एक अनाथालय तक ही सीमित नहीं है, बल्कि वे और भी लोगों से बात कर रहे हैं जो बचा हुआ खाना अलग-अलग कैंटीन से ले जाकर ज़रूरतमंदों में बाँट सकते हैं। इससे पूरे शहर में लोगों की मदद होगी।
सिद्धार्थ कहते हैं कि उन्हें अच्छा लगता है जब बच्चे उन्हें देखने के लिए और खाने के लिए उत्साहित होते हैं। इन बच्चों की ख़ुशी से हर हफ्ते उन्हें जो सुकून मिलता है उसका कोई मुकाबला नहीं। बेशक, Waste Nought की यह पहल काबिल-ए-तारीफ़ है।
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यह कहानी उदाहरण है कि दूसरों की मदद करने की कोई उम्र नहीं होती है। यह भले ही हमारे लिए सिर्फ़ एक वक़्त का खाना हो, पर जिनके पास इतना भी नहीं है उनके लिए यह बेशकीमती है।
संपादन: भगवती लाल तेली
मूल लेख: विद्या राजा