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आमतौर पर घरों में एल्युमीनियम या स्टील के बर्तनों का ही इस्तेमाल होता है लेकिन एक समय था जब इन बर्तनों के बजाय घर में मिट्टी के बर्तनों का इस्तेमाल होता था। पुराने समय में घरों में लोग भोजन पकाने और उसे परोसने के लिए मिट्टी के बर्तन का इस्तेमाल करते थे लेकिन समय के साथ यह परंपरा कहीं खो गई।
मिट्टी के बर्तनों का उपयोग पर्यावरण और स्वास्थ्य दोनों के लिए फायदेमंद हैं। यदि हम इन बर्तनों का इस्तेमाल करते हैं तो उन कारीगरों को भी फायदा पहुंचता है जो इन्हें बनाते हैं। मिट्टी के बर्तनों को बनाने वाले कारीगरों को कुम्हार कहा जाता है, पहले हर गाँव में कुम्हार परिवार होते थे।
वही चंद परिवार पूरे गाँव के लिए बर्तन बनाते थे और बाहर शहर भी भिजवाते थे। लेकिन जैसे-जैसे स्टील, एल्युमीनियम, नॉन-स्टिक बर्तनों का चलन बढ़ा, इन कुम्हार परिवारों को भी अपना पैतृक काम छोड़कर दूसरे कामों में लगना पड़ा।
आज के समय में अगर देखा जाए तो आपको बहुत ही कम समुदाय मिलेंगे जो यह काम कर रहे हैं। जो बचे हुए परिवार हैं, वे हजारों मुश्किलों का सामना करते हुए अपनी सभ्यता और हुनर को बचाने में जुटे हैं।
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गुजरात में छोटा उदयपुर इलाके के कई समुदाय आज भी मिट्टी के बर्तन (Earthenware) बनाकर अपनी आजीविका कमा रहे हैं। यहाँ धानुका, भील और नायक जैसे समुदाय के लोग मिट्टी के बर्तन तो बनाते ही हैं, साथ ही, उनके काम की खासियत यह है कि वे मिट्टी से नॉन-स्टिक बर्तन भी बना देते हैं। पर इस पूरी प्रक्रिया में उन्हें बहुत-सी मुश्किलों का सामना करना पड़ता है।
"बर्तन बनाने के बाद ये कारीगर, इन बर्तनों को पकाने के लिए आंच में रखते हैं। इसके लिए उनके पास कोई सिस्टम नहीं है। वह खुले में उपले आदि से आंच करके, उन पर बर्तनों को रख देते हैं और ऊपर से भी छोटी-छोटी लकड़ियां आदि लगाकर आग देते हैं। इस प्रक्रिया में काफी समय लगता है और खुले में रखने की वजह से सभी बर्तनों को आंच भी अच्छे से नहीं लगती है। अगर उन्होंने 50 बर्तन साथ में रखे हैं तो उनके 20 बर्तन ही सही निकलते हैं," यह हमें बताया आयुष पांडेय ने।
ओडिशा के राऊरकेला के रहने वाले 24 वर्षीय आयुष इंजीनियरिंग के छात्र हैं। साल 2019 में आयुष को सृष्टि समर स्कूल में शामिल होने का मौका मिला, जहां उन्होंने अपने कोर्स के लिए इंटर्नशिप की। इस दौरान, आयुष ने कंवला गाँव के कुम्हार समुदाय के साथ वक़्त बिताया और उनकी परेशानियों को समझकर उनकी समस्या हल करने की कोशिश की।
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प्रोफेसर अनिल गुप्ता द्वारा शुरू किये गए हनी बी नेटवर्क ने देशभर के ग्रासरूट्स इनोवेटर्स और इनोवेटिव छात्रों को आपस में जोड़ा है। सृष्टि और ज्ञान संगठन भी हनी बी नेटवर्क की ही पहल है। इस सबके ज़रिये उनका उद्देश्य देश के कोने-कोने से ऐसे आम और साधारण लोगों को तलाशना और तराशना है जिनकी सोच, विचार और अविष्कार आसाधारण हैं। जो आम लोगों की रोज़मर्रा की परेशानियों का हल ढूंढते हैं। आज के छात्रों में ज्ञान के साथ-साथ समस्या का समाधान ढूंढने की सोच और हुनर भी विकसित हो सके, इसलिए प्रोफेसर गुप्ता ने समर स्कूल की शुरुआत की।
सृष्टि समर स्कूल में वह देशभर के छात्रों को कुछ दिनों के लिए अपने साथ इंटर्नशिप करने के लिए आमंत्रित करते हैं। इस दौरान इन छात्रों को ग्रासरूट इनोवेटर्स से मिलने और सीखने का मौका मिलता है। साथ ही, इन सभी छात्रों को अलग-अलग टीम में बाँट कर कोई न कोई रोज़मर्रा की समस्या का हल ढूंढने के लिए प्रेरित किया जाता है।
आयुष कहते हैं कि उन्हें कॉलेज के दौरान ही हनी बी नेटवर्क के बारे में पता चला और इसकी ओडिशा ब्रांच से वह जुड़ गए। इसके बाद, जैसे ही उन्हें मौका मिला उन्होंने अपने कॉलेज का सेकंड इयर पूरा होने पर सृष्टि समर स्कूल में अप्लाई किया। वह बताते हैं कि यहाँ पर आने के बाद उन्होंने बहुत कुछ सीखा।
"पढ़ाई के दौरान यह तो पता था कि हमें लोगों के लिए काम करना है। नयी चीजें बनानी है और प्रॉब्लम हल करनी हैं। लेकिन किसी भी परेशानी को समझते कैसे हैं और फिर स्टेप बाय स्टेप उसका हल कैसे ढूंढते हैं, यह हमने समर स्कूल में सीखा। वहीं पर मुझे मेरे बाकी दो टीममेट्स राहुल बिश्नोई और साईराज खोपे मिले। हम तीनों को कंवला गाँव के लोगों की समस्या पर काम करने का मौका मिला," आयुष ने आगे बताया।
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आयुष और उनकी टीम ने इन लोगों के साथ रहकर उनके बर्तन बनाने के काम और परेशानियों को समझा। इसके बाद उन्होंने तय किया कि वे इन लोगों के लिए कम-लागत वाली ऐसी भट्ठी बनाएंगे, जिससे की बर्तन अच्छे से पकें और टूटे नहीं। उनका डिज़ाइन पहली बार में फाइनल नहीं हुआ बल्कि उन्होंने जैसे समस्यायों को समझा, वैसे-वैसे उन पर काम किया। उनका पहला प्रयास असफल रहा।
"पहली बार में हमें असफलता मिली और फिर हमने इस पर सोचा कि हमसे कहाँ चुक हुई है। हम कई ग्रासरूट्स इनोवेटर्स जैसे मनसुख भाई प्रजापति से मिले। इन लोगों से हमें बहुत कुछ सीखने को मिला। इन लोगों से हमने समझा कि हमारी तकनीक और आविष्कार लोगों के हिसाब से होने चाहिए, न कि हम लोगों को तकनीक और आविष्कार के हिसाब से ढालें। अगर हम किसी भी तकनीक से इन लोगों के सांस्कृतिक और पारंपरिक स्पर्श को ही हटा देंगे तो हमारा प्रयास सफल नहीं होगा। हमें उन लोगों को उनके हिसाब से मशीन बनाकर देनी है न कि उन्हें किसी और रंग-ढंग में ढ़ालना है," आयुष ने कहा।
पहले असफल प्रयास के बाद, राहुल, आयुष और साईराज ने फिर से कोशिश की। उन्होंने दूसरा प्रोटोटाइप तैयार किया और इस बार वह सफल रहे। उन्होंने एक पोर्टेबल भट्टी बनाई और एक परिवार को इस्तेमाल करने के लिए दी। आयुष बहुत ही सरल शब्दों में समझाते हैं कि उनके इनोवेशन से पहले इन लोगों को क्या-क्या समस्याएं थी:
- खुले में उन्हें बर्तनों को पकाने के लिए रखना पड़ता था, जिस वजह से सभी बर्तनों को समान हीट नहीं मिल पाती है।
- धुंआ ज्यादा निकलता है।
- ईंधन ज्यादा चाहिए।
- 50 में लगभग 30 बर्तन टूट जाते हैं।
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समस्या का समाधान: कम लागत वाली पोर्टेबल भट्ठी
आयुष और उनकी टीम ने मेटल से एक भट्ठी बनाई, जो चारों तरफ से बंद है और ऊपर सिर्फ पतली चिमनी से धुँआ बाहर निकल सकता है। वह कहते हैं कि कारीगर जिस प्रक्रिया से बर्तनों को पकाते थे, वही प्रक्रिया करनी है। बस फर्क इतना है कि पहले वे खुले में यह करते थे। अब वह यह प्रक्रिया इस भट्ठी में कर सकते हैं।
भट्टी के बेस के ऊपर उपले आदि रखकर बर्तनों को रखना है और फिर ऊपर से भट्ठी को बंद कर देना है। इससे सभी बर्तन बराबर पकेंगे और धुंआ भी चिमनी से ऊपर की तरफ निकल जाएगा। इस पर्यावरण को भी कोई हानि नहीं होगी। इसके साथ ही, ईंधन की बचत भी होगी।
"सबसे ज्यादा ख़ुशी हमें तब हुई जब उन्होंने बर्तन पकने के बाद बाहर निकाले। उनका एक भी बर्तन टूटा नहीं था। हमने कई ट्रायल किए और सभी में नतीजा बहुत अच्छा निकला। यह हमारे लिए सबसे बड़ी ख़ुशी थी," आयुष ने कहा।
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आयुष और उनकी टीम ने इस भट्ठी को लगभग 2200 रुपये की लागत से बनाया था। समर स्कूल में यह प्रोजेक्ट काफी सफल रहा और इसके बाद सृष्टि संगठन ने इसे एडवांस लेवल पर ले जाने के लिए काम शुरू कर दिया। सृष्टि के एक प्रोजेक्ट कोऑर्डिनेटर बताते हैं कि समर स्कूल में जो भी इनोवेशन होते हैं, वे ओपन होते हैं। इनका उद्देश्य ज्यादा से ज्यादा ज़रुरतमंदों तक पहुंचना है। किसी भी इनोवेशन को पेटेंट से नहीं बाँधा जाता ताकि भारत के छोटे-बड़े मैकेनिक, फेब्रिकेटर आदि इन तकनीकों को सीखकर ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचा सकें और अपने लिए भी अच्छी आजीविका कमाएं।
आयुष और उनकी टीम का यह पोर्टेबल भट्ठी का डिज़ाइन भी ओपन है। कोई भी फेब्रिकेटर इस डिज़ाइन को अपनाकर या इसे मॉडिफाइड करके देशभर के कुम्हार समुदाय के लिए इस तरह की छोटी-बड़ी भट्ठियां बना सकते हैं। छोटी भट्ठी की लागत जहां 2000 रुपये तक आएगी वहीं बड़ी भट्ठी के लिए शायद यह 3-4 हज़ार रुपये तक हो। लेकिन यह इनोवेशन अगर देश के कोने-कोने तक पहुंचे तो बहुत-से मिट्टी के बर्तन बनाने वाले कारीगरों और यह भट्ठी बनाने वाले कारीगरों को फायदा होगा।
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