Site icon The Better India – Hindi

जिस कैफ़े में थे स्वीपर, आज वहीं के मालिक हैं बाबू राव: पढ़िए साधारण आदमी की असाधारण कहानी

Cafe Niloufer Story

यह कहानी है हैदराबाद के मशहूर कैफ़े निलोफर (Cafe Niloufer) के मालिक अणुमुला बाबू राव की। आंध्र प्रदेश के आदिलाबाद जिले में एक छोटे से गांव में जन्मे बाबू राव का संबंध एक किसान परिवार से है। शुरुआती दिनों में उनका जीवन संघर्षों से भरा था। वह एक ऐसे किसान परिवार से थे जिसके लिए हर दिन दो वक़्त का खाना जुटा पाना भी बहुत मुश्किल था। ऐसे में, अच्छी जिंदगी और पढ़ाई-लिखाई तो भूल ही जाइये। लेकिन बाबू राव ने अपने जीवन में आगे जो कुछ भी किया वह किसी फिल्मी कहानी से कम नहीं है।

बाबू राव ने पांचवीं तक की पढ़ाई अपने चाचा के साथ महाराष्ट्र के चंद्रपुर में रहकर की। सरकारी स्कूल में पढ़ाई तो मुफ्त थी लेकिन उस समय छात्रों को खुद अपनी किताबें खरीदनी पड़ती थी। छठी कक्षा के बाद, उनके चाचा किताबों की जरूरत को पूरा नहीं कर पा रहे थे। इसके बाद, उन्हें अपने समुदाय द्वारा चलाये जाने वाले एक हॉस्टल में रहना पड़ा। इस हॉस्टल में रहने-खाने की फीस 100 रुपए थी और पांच गरीब बच्चों को मुफ्त में रखा जाता था। “उन पांच गरीब में, एक मैं भी था,” द बेटर इंडिया से बात करते हुए बाबू राव ने कहा। 

100 रुपयों के लिए पिता को बेचनी पड़ी गाय

Anumula Babu Rao. Source: Ticket65dotcom/ YouTube

दिवाली की छुट्टियों में वह कपड़ों के स्टोर पर काम करते थे ताकि पढ़ाई और घरेलू जरूरतों को पूरा कर सकें। वह बताते हैं कि वह 16 साल के थे और दसवीं कक्षा में थे। उन्हें किताबों के लिए 100 रुपए की जरूरत थी। इसलिए वह अपने गांव वापस गए। वह कहते हैं, “मैंने अपने पिता को बताया कि मैं पढ़ना चाहता हूं। उनके पास पैसे नहीं थे। उन्होंने कहा कि शाम तक मुझे पैसे मिल जायेंगे। उन्होंने अपनी बात रखी भी। दूसरे दिन सुबह में, मैंने अपनी माँ को पड़ोसियों के घर से छाछ मांगकर लाते हुए देखा। जब मैंने उनसे पूछा कि वह मांगने क्यों गयी थी तो उनकी आंखें भर आई। उन्होंने कहा, ‘तुम्हारे पिता ने हमारी दूध देने वाली गाय को 120 रुपए में बेच दिया ताकि तुम किताबें खरीद सको।”

यह सुनकर वह टूट गए क्योंकि उन्हें पता था कि वह गाय उनके परिवार के लिए कितना मायने रखती थी। इसलिए उन्होंने पूरे मन से दसवीं कक्षा पास की। लेकिन उन्हें समझ में आ गया कि इस तरह घर के हालात नहीं सुधरेंगे। इसलिए साल 1975 में वह हैदराबाद चले गए। उन्होंने ट्रैन पकड़ी और नामपल्ली स्टेशन पर उतर गए। कुछ दिनों तक वह रेलवे प्लेटफार्म पर ही सोये। किस्मत से, उनके कपड़ों के स्टोर में काम करने के अनुभव के कारण उन्हें फिर से एक कपड़े के स्टोर पर काम मिल गया। 

“रात को दुकान बंद होने के बाद, मैं दुकान के बरामदे में सोता था। मैं सुबह होने से पहले उठ जाता था और रेलवे स्टेशन जाकर, यहां खुली छत वाले वाशरूम में नहाता था। मैंने अपने कपड़े धोता और उन्हें यहीं पर सुखाता था,” उन्होंने बताया। इस तरह से कुछ दिन तक चलता रहा। उनका मालिक उन्हें हर दिन एक छोटे से होटल पर खाने के लिए पांच रुपए देता था। जब उन्होंने वहां पर कुछ कर्मचारियों को अपनी परेशानियां बताई तो उन्होंने कहा, “क्या तुम इस तरह अपनी पूरी जिंदगी गुजारने वाले हो? तुम एक होटल में नौकरी क्यों नहीं कर लेते हो? तुम्हें खाना, रहना, कपड़े और पैसे भी मिलेंगे!”

इसके बाद उन्होंने फ़ूड बिज़नेस में काम करना शुरू किया। 

Cafe Niloufer. Source: Tripadvisor

उन्होंने एक छोटे से होटल में आठ महीने तक काम किया। जिस लड़के ने पहले कभी पौछा नहीं लगाया था, वह मेज साफ़ कर रहा था, ऑर्डर ले रहा था और देखते ही देखते मालिक का स्टार कर्मचारी बन गया। उन्हें दिन के 10 रुपए मिलते थे। वह कहते हैं, “एक दिन हमारा एक नियमित ग्राहक होटल में आया और मुझसे कहा, ‘बाबू राव, मैं होटल खरीदने की सोच रहा हूं। क्या तुम मेरे लिए काम करोगे?” और इस दिन से उनकी जिंदगी बदल गयी। इस होटल को आज कैफ़े निलोफर (Cafe Niloufer) के नाम से जाना जाता है। 

स्वीपर से लेकर होटल के मालिक बनने तक का सफर 

उन्होंने कहा, “1976 में, मैंने कैफ़े निलोफर में पौछा मारने का काम शुरू किया। कुछ ही दिनों में मैं यहां सफलता की सीढ़ी चढ़ने लगा। मुझे जल्द ही वेटर का पद मिल गया और यहां से मुझे किचन में शिफ्ट कर दिया गया, जहां मैंने कैफ़े की एक्स्ट्रा स्पेशल ईरानी चाय और ओसमानिया बिस्कुट बनाए।” सिर्फ दो साल में कैफ़े के मालिक ने बाबू राव को एक ऑफर दिया। उन्होंने बाबू राव के साथ एक एग्रीमेंट किया कि बाबू राव इस कैफ़े को चला सकते हैं और जो भी कमाई होगी, उसे रख सकते हैं लेकिन बाबू राव को हर महीने मालिक को एक फिक्स अमाउंट देना होगा। 

जैसे-जैसे समय बीता, हर तबके के लोग कैफ़े निलोफर में आने लगे। कभी दिन में 400 कप चाय बेचने वाले कैफ़े में देखते ही देखते 20 हजार कप चाय बिकने लगी और यह सब हुआ बाबू राव की मेहनत से। खासकर कि ताजा बने ओसमानिया बिस्कुट लोगों को यहां खींच लाते थे। बाबू राव की कमाई बढ़ गयी। उस जमाने में वह हर महीने 40 हजार रुपए से ज्यादा मुनाफा कमा रहे थे। 

Fresh Osmania biscuits. Photo Credits: food_trooper/Instagram

साल 1993 में उन्होंने हर महीने कुछ पैसे बचाकर कैफ़े निलोफर को खरीद लिया। साल 1978 में बाबू राव ने कैफ़े को चलाना शुरू किया था और तब से अब तक चला रहे हैं। उनकी गरीबी से सफलता की कहानी को इस कैफ़े में आने वाले लोगों के बीच अक्सर दोहराया जाता है। बहुत से हैदराबादी लोगों के लिए यह कैफ़े बहुत खास है। 

हैदराबाद में पले-बढ़े रेवंत कहते हैं कि निलोफर बहुत ही अच्छी जगह है, जहां आप मात्र 12 रुपए में अच्छी चाय पी सकते हैं और घंटों तक दोस्तों के साथ बात कर सकते हैं। केतली में परोसी जाने वाली उनकी उनकी क्लासिक ईरानी चाय आपको हैदराबाद की निज़ामी संस्कृति का अनुभव देती है, जिसके लिए हैदराबाद जाना जाता है। चायोज और स्टारबक्स (Chaayos and Starbucks) के जमाने में, सड़क के किनारे अपने दोस्तों के साथ ईरानी चाय और ओसमानिया बिस्कुट के मजे को कोई चीज नहीं हरा सकती है। वहीं, एक और हैदराबादी मोहम्मद कहते हैं कि उनकी यादें उनके दादाजी के जमाने से जुड़ी हैं। 

“मेरे दादजी 90 के दशक में बाजार घाट इलाके में बसे थे। उन्होंने निलोफर कैफ़े में चाय पीना शुरू किया क्योंकि यह उनके दफ्तर के पास था। बाद में, मेरे पिताजी और उनके दोस्त यहां आया करते थे और अब मैं और मेरे दोस्त जाते हैं। तो निलोफर कैफ़े जाने की यह परंपरा हमारे परिवार में रही है,” उन्होंने कहा। 

Kadak chai. Photo Credits: saikiran.adigopula/Instagram

लोगों को खिलाते हैं मुफ्त खाना

आज भले ही बाबू राव के पास अच्छी कार है, आईफोन है और तमाम तरह की सुविधाएं है लेकिन वह उन शब्दों को नहीं भूले हैं, जो उनके पिता ने उनसे कहा था। उन्होंने कहा, ” पिताजी ने एक बार कहा था कि तुमको पढ़ना है, फिर बड़ा आदमी बनना और बड़ा आदमी बनकर गरीब की मदद करना मत भूलना।” इसलिए, पिछले 22 सालों से बाबू राव सरकारी एमएनजे कैंसर अस्पताल और निलोफर अस्पताल के बाहर हर रोज 350-400 जरूरतमंद लोगों को खाना खिला रहे हैं। बाबू राव याद करते हैं कि उन्होंने अस्पताल के बाहर दूर-दराज से अपनों का इलाज कराने आये लोगों को कतार में लगे देखा तो उन्हें बहुत बुरा लगता था। 

“उनके पास कोई जगह नहीं है जहां वे जा सकें। इसलिए वे फुटपाथ पर सोते हैं, लकड़ी जलाकर उधर ही अपना खाना बनाते हैं। पहले मैंने उन्हें फ्री गैस कनेक्शन और स्टोव दिया। बाद में, हम ग्रोसरी और राशन बांटने लगे। ताकि रेडियो और कीमोथेरेपी कराने आये मरीजों के साथ आने वाले परिवारजन अपना खाना आसानी से पका सकें,” उन्होंने बताया। जैसे-जैसे समय बीता, उन्होंने दिन में तीन समय खाना बांटना शुरू किया। हर महीने वह लगभग 75000 रुपए इस काम में खर्च करते हैं। 

खाने के अलावा, उन्होंने 2000 से ज्यादा लोगों को अपने परिजनों का अंतिम संस्कार करने में भी मदद की है। कई बारे मरीज कैंसर के इलाज के दौरान ही दुनिया से चले जाते हैं और उनके परिवार वालों के पास इतने पैसे नहीं होते कि वे उनका अंतिम संस्कार करा सकें या उनके शव को वापस अपने गांव ले जा सकें। ऐसे में, बाबू राव उनकी मदद करते हैं। उन्होंने अस्पताल के पास एक मंदिर भी बनाया है ताकि यहां आने वाले डोनेशन से लोगों की मदद हो सके। 

Feeding the hungry Source: Ticket65dotcom/YouTube

अब उन्होंने पुराने कैफ़े के साथ ही एक नया एसी वाला कैफ़े भी खोला है। इस कैफ़े में यशोदा फाउंडेशन द्वारा पुनर्वासित किए गए गरीब बच्चों को 12वीं पास करने के बाद काम दिया जाता है।  आज, उनके काम से प्रभावित होकर बहुत से लोग शहर के दूसरे सरकारी अस्पतालों में भी मरीजों और उनके परिवार जनों के लिए खाना पहुंचाते हैं। बाबू राव भी लगातार गरीबों की मदद कर रहे हैं। अंत में वह कहते हैं कि यह देखकर ख़ुशी होती है कि आज बहुत से युवा आगे बढ़कर इस काम में मदद कर रहे हैं। अब उन्हें विश्वास है कि अगर वह न भी रहे तो भी यह काम चलता रहेगा। 

अगर आपको इस कहानी से प्रेरणा मिली है तो आप उनसे cafeniloufer@gmail.com पर संपर्क कर सकते हैं या उनका फेसबुक पेज देख सकते हैं। 

मूल लेख: जोविटा अरान्हा 

संपादन- जी एन झा

यह भी पढ़ें: पेट्रोल पंप अटेंडेंट की बेटी को मिला IIT कानपुर में दाखिला, बनेंगी पेट्रोलियम इंजीनियर

यदि आपको इस कहानी से प्रेरणा मिली है, या आप अपने किसी अनुभव को हमारे साथ साझा करना चाहते हो, तो हमें hindi@thebetterindia.com पर लिखें, या Facebook और Twitter पर संपर्क करें।

Exit mobile version