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शीरमाल: ‘अमीरों की रोटी’ को 190 सालों से आम लोगों तक पहुंचा रही है यह दुकान

Ali Hussain Sheermal

यदि आप अवधी व्यंजनों के शौकिन हैं, तो ‘शीरमाल’ के बारे में तो जरूर ही सुना होगा। ‘शीरमाल’ रोटी का ही एक रूप है, जिसे लोहे के तंदूर में पकाया जाता है। इसे बनाने में मैदा के साथ-साथ दूध, घी और केसर आदि का उपयोग होता है। आज हम आपको लखनऊ स्थित ‘शीरमाल’ की प्रसिद्ध दुकान ‘अली हुसैन शीरमाल’ के बारे में बताने जा रहे हैं, जहां के शीरमाल केवल देश में ही नहीं, बल्कि विदेशों में भी लोकप्रिय है। 

लखनऊ के शीरमाल वाली गली में ‘अली हुसैन शीरमाल’ नाम की इस दुकान की शुरुआत 1830 में हुई थी। इस दुकान को मोहम्मद उमर और उनके भतीजे, मोहम्मद जुनैद चला रहे हैं। जुनैद कहते हैं, “लखनऊ में ईद, मुहर्रम तो क्या, होली-दिवाली भी बिना शीरमाल के पूरी नहीं होती है। लोगों के घरों में शादी-ब्याह हो या कोई और ख़ुशी का आयोजन, इसमें शीरमाल का होना जरूरी होता है। इसके अलावा, सामान्य दिनों पर भी एक समय के खाने में बहुत से परिवार शीरमाल खाना पसंद करते हैं।” 

‘शीरमाल’ रोटी का ही एक रूप है, जो स्वाद में हल्का सा मीठा होता है और इसलिए इसे निहारी या सालन के साथ खाया जाता है। आज कई तरह के शीरमाल आपको खाने के लिए मिल जाएंगे। लेकिन 32 वर्षीय मोहम्मद जुनैद बताते हैं कि लखनऊ के एक स्थानीय बेकर ने पहली बार नवाब नसीर-उद-दीन हैदर (1827-37) के जमाने में ‘शीरमाल’ बनाया। हालांकि, किसी-किसी जगह नवाब ग़ाज़ीउद्दीन हैदर (1818-1827) का भी जिक्र मिलता है कि उनके जमाने में पहली बार ‘शीरमाल’ बना। लेकिन इस बात पर कोई दो राय नहीं हैं कि शीरमाल को जिस स्थानीय बेकर ने बनाया, उनका नाम, मुहम्मदु था और अली हुसैन, इन्हीं के यहां काम करते थे। 

Sheermal Roti (Source)

नवाब की फरमाइश पर बनी एक अलग तरह की ‘रोटी’

कहा जाता है कि एक बार नवाब ने फरमाइश की, कि उन्हें कुछ अलग तरह की रोटी पेश की जाए। यह फरमान शाही दरबार में एक प्रतियोगिता की तरह हो गया। शाही खानसामों से लेकर आम बावर्ची भी अपनी समझ और जानकारी के हिसाब से रोटियां तैयार करके लाए थे। उन्हीं में से एक थे मुहम्मदु। बताते हैं कि उन्होंने ‘बाकरखानी’ में थोड़े-बहुत बदलाव करके, एक नया व्यंजन तैयार किया। उनकी एक नई तरह की ‘रोटी,’ दूसरे खानसामों की रोटियों के साथ शाही दस्तरखान पर पहुंची। 

नवाब एक-एक करके सबकी रोटियां देख रहे थे कि उनकी नजर एक हल्की-सी केसरी रंग की रोटी पर गयी। उन्होंने तुरंत इसमें से एक टुकड़ा तोड़ा और मुंह में रखा। कुछ पल के बाद तो नवाब मानो इसके स्वाद में खो गए थे। बस उसी दिन से ‘शीरमाल’ शाही व्यंजनों में शामिल हो गया और खास मौकों पर शाही दस्तरखान की शान बढ़ाने लगा। मुहम्मदु ने इस अनोखे शीरमाल को दूध, घी और केसर का इस्तेमाल करके बनाया था और फिर इसे तंदूर में पकाया। 

उस जमाने में शीरमाल सिर्फ शाही लोगों की प्लेट तक पहुंचता था। लेकिन 1830 में, इसका स्वाद आम लोगों तक भी पहुंचने लगा। मोहम्मद जुनैद बताते हैं, “हमारे पूर्वज अली हुसैन, मुहम्मदु के साथ काम करते थे। उन्होंने ही 1830 में यह दुकान शुरू की और शीरमाल बनाने लगे। समय के साथ पूरे लखनऊ में शीरमाल की दुकान खुल गयी है। लेकिन आज भी हमारी दुकान के बनाये शीरमाल की जितनी मांग है, उतनी शायद ही किसी और की हो।” 

Ali Hussain Sheermal Shop (Photo: Mohammed Junaid)

पीढ़ियों की विरासत को संभाल रही ‘अली हुसैन शीरमाल’

अपने चाचा, मोहम्मद उमर के साथ दुकान को संभाल रहे मोहम्मद जुनैद बताते हैं, “एक समय पर शीरमाल को ‘अमीरों की रोटी’ कहा जाता था। क्योंकि शीरमाल बनाने में ज्यादातर सभी महंगी सामग्री का इस्तेमाल होता है। लेकिन हमारे पूर्वज इसे शाही बावर्चीखाने और दस्तरखान से आम लोगों के बीच ले आये। और आज मैं सातवीं पीढ़ी हूं, जो दुकान को संभाल रहा हूं। हमने अपने पूर्वजों से जो कुछ भी सीखा है, उसे आगे बढ़ाने की कोशिश कर रहा हूं।” 

उन्होंने आगे बताया कि हर एक सामग्री शीरमाल को एक नया अंदाज देती है। जैसे केसर से इसे रंग दिया जाता है, तो दूध से इसकी मिठास बढ़ती है। केवड़ा और इत्र से इसे एक अलग खुशबू मिलती है और घी के कारण इसे टेक्सचर मिलता है। वह कहते हैं कि शीरमाल का मुलायम होना, इस बात पर निर्भर करता है कि आप इसके लिए मैदे को गूंथ कैसे रहे हैं और इसके ऊपर से घी डाला जाता है। उनकी दुकान में आज भी तोलकर मैदे की लोई बनाई जाती है। इसके बाद, इसे बेला जाता है और एक टूल, जिसे वे चोका कहते हैं, उससे इसमें छोटे-छोटे छेद किए जाते हैं, ताकि तंदूर में सेकने पर ये फूले नहीं। क्योंकि अगर रोटियां फूलने लगेंगी तो तंदूर में नीचे गिर जाएंगी। 

Making of Sheermal Roti (Source) and Junaid in his Shop (Credit: Junaid)

“एक खास बात यह भी है कि शीरमाल को लोहे से बने तंदूर में ही पकाया जाता है। अगर इसे मिट्टी से बने तंदूर में पकाएंगे, तो मिट्टी इनमें घी को सोख लेगी,” उन्होंने कहा। आज भी उनकी दुकान से हर रोज लगभग 2000 शीरमाल बिकते हैं। इसके अलावा, ख़ास मौकों पर उन्हें और भी बड़े ऑर्डर मिलते हैं। उन्होंने बताया कि उनकी दुकान से न सिर्फ दिल्ली, मुंबई जैसे शहरों में शीरमाल गए हैं, बल्कि दूसरे देशों में खासकर कि अरब देशों में भी शीरमाल पैक होकर जाते हैं। “एक बार तैयार होने के बाद, आप लगभग 15 दिन तक शीरमाल को रख सकते हैं। इसलिए बहुत से लोग हमसे ऑर्डर करके मंगवाते हैं,” उन्होंने कहा। 

सामान्य शीरमाल के अलावा, अब वे और भी कई तरह के शीरमाल बना रहे हैं। जैसे ज़ाफ़रानी और जैनबिया शीरमाल। मुहर्रम के मौके पर गरीबों में बांटने के लिए भी उनकी दुकान से बड़ी मात्रा में शीरमाल बनवाया जाता है। मोहम्मद जुनैद कहते हैं कि उनकी कोशिश यही रहेगी कि उनकी आने वाली नस्लें भी पीढ़ियों की इस विरासत को इसी तरह संभालती रहे, ताकि भारत का यह नायब व्यंजन कहीं खो न जाए। 

संपादन- जी एन झा

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