Site icon The Better India – Hindi

रानी राशमोनी: एक बंगाली विधवा महिला, जिसने अकेले दी थी ईस्ट इंडिया कंपनी को मात

Rani Rashmoni

अगर हम इतिहास के पन्नों को खंगाले तो पता चलेगा कि भारतीय महिलाएं हमेशा से सामाजिक परिवर्तन का हिस्सा रही हैं। उन्होंने महत्वपूर्ण आंदोलनों का नेतृत्व किया और समाज की बुराईयों के खिलाफ आवाज़ उठाती रहीं। लेकिन उनके योगदान को बड़ी ही आसानी से भुला दिया गया।

ऐसी ही एक भूली-बिसरी नायिका हैं, रानी राशमोनी (Rani Rashmoni)। एक ऐसी रानी जो वास्तव में रानी नहीं थीं, लेकिन फिर भी लोगों के दिलों पर इस हद तक राज़ करती थीं कि उन्हें सम्मान से आज भी रानी के रूप में ही याद किया जाता है।

ईस्ट इंडिया कंपनी के सामने निडरता के साथ खड़े होने से लेकर, दक्षिणेश्वर काली मंदिर की स्थापना तक राशमोनी ने कोलकाता (उस समय कलकत्ता) के इतिहास पर अमिट छाप छोड़ी है।

एक महिला उद्यमी, जो अपने समय से थी बहुत आगे

रानी राशमोनी (Rani Rashmoni) का जन्म 28 सितंबर 1793 को बंगाल के हालिसहर के छोटे से गांव में एक कैवर्त (मछुआरे समुदाय) परिवार में हुआ था। उनके पिता एक गरीब मजदूर थे। राशमोनी जब अपनी किशोरावस्था में थीं, तो उनकी शादी एक धनी ज़मींदार के वंशज राज दास से कर दी गई।

दास एक प्रगतिशील विचारधारा वाले व्यक्ति थे। उस समय के पढ़े-लिखे और रूढ़ीवादी सोच से परे, दास अपनी पत्नी की बुद्धिमानी से काफ़ी प्रभावित थे। उन्होंने राशमोनी को हमेशा अपने दिल के अनुसार काम करने के लिए प्रेरित किया। साथ ही उन्होंने राशमोनी को अपने ट्रेड बिज़नेस से जोड़ा।

वे दोनों मिलकर अपनी संपत्ति का इस्तेमाल लोगों के कल्याण के लिए किया करते थे। उन्होंने लोगों के लिए प्याऊ का निर्माण कराया। भूखे लोगों के लिए सूप रसोई बनाई। इस दम्पति ने कोलकाता के दो सबसे पुराने और व्यस्तम घाट अहिरीटोला घाट और सुंदर बाबू राजचंद्र दास घाट, या बाबूघाट का भी निर्माण कराया था।

जब रानी ने संभाली बागडोर, तो विरोधी हुए खुश

सन् 1830 में दास का निधन हो गया। उनकी मौत के बाद रानी ने अपने जीवन के सबसे कठिन समय का सामना किया था। पितृसत्ता से लड़ते हुए और विधवाओं के खिलाफ़ तत्कालीन प्रचलित सामाजिक मान्यताओं को दरकिनार कर, चार युवा बेटियों की माँ ने पारिवारिक बिज़नेस की बागडोर संभाली। यह उस समय के लिए के लिए बहुत बड़ी बात थी।

जब उनके पति यानी दास के विरोधियों और जान-पहचानवालों ने यह बात सुनी तो वे बड़े खुश हुए। इसलिए नहीं कि रानी ने बिज़नेस की बागडोर अपने हाथ में ले ली, बल्कि इसलिए कि अब वे कंपनी पर आसानी से अधिग्रहण कर पाएंगे। उनकी सोच के अनुसार, एक विधवा महिला ज्यादा समय तक उनके सामने टिक नहीं पाएगी। 

लेकिन अपनी बुद्धिमता का परिचय देते हुए राशमोनी (Rani Rashmoni) ने बिज़नेस को पूरी तरह से संभाल लिया और अपने विरोधियों की उम्मीदों पर पानी फेर दिया था। वह बड़े ही व्यवहारिक तरीके से काम कर रही थीं। उनके इस काम में मथुरा नाथ बिस्वास ने काफी मदद की थी। शिक्षित युवा मथुरानाथ ने राशमोनी की तीसरी बेटी से शादी की थी। मथुरा बाबू (जैसा कि उन्हें कहा जाता था) लेन-देन का सारा काम संभालते थे। वह राशमोनी के विश्वासपात्र थे और हमेशा उनका दाहिना हाथ बनकर काम करते रहे। 

सती प्रथा और बाल विवाह का किया विरोध

बाद के कुछ वर्षों में उन्होंने दो महत्वपूर्ण मुद्दों पर अपनी आवाज़ उठाई। एक तरफ वह समाज में मौजूद बाल-विवाह, बहु-विवाह और सती प्रथा जैसी बुराइयों के खिलाफ़ लड़ाई लड़ी रही थीं, तो दूसरी तरफ उन्होंने ईश्वर चंद्र विद्यासागर जैसे अग्रणी समाज सुधारक का समर्थन भी किया। उन्होंने ईस्ट इंडिया कंपनी के सामने बहुविवाह के खिलाफ़ एक मसौदा विधेयक प्रस्तुत किया था।

रानी राशमोनी (Rani Rashmoni) ने कोलकाता के पास प्रसिद्ध दक्षिणेश्वर मंदिर भी बनवाया। इसके लिए ब्राह्मणों ने उन्हें काफी भला-बुरा कहा और निचली शूद्र जाति की महिला द्वारा बनाए गए मंदिर में पुजारी बनने से इनकार कर दिया था। तब तमाम विरोधों के बीच आखिरकार, धार्मिक नेता रामकृष्ण परमहंस, मंदिर के मुख्य पुजारी के रूप में काम करने के लिए आगे आए।

मंदिर के निर्माण और व्यावसायिक कौशल ने उन्हें कलकत्ता के प्रशासनिक दायरों में बहुत सम्मान दिया। यह दलितों और गरीबों के लिए काम करने की सोच ही थी, जिसने उन्हें इन लोगों के बीच काफी लोकप्रिय बना दिया था। वह गरीबों के लिए कितना सोचती थीं, इसके लिए उस घटना को जान लेना काफी है, जब उन्होंने संकट में पड़े मछुआरों की मदद करने के लिए अंग्रेजों को अपनी होशियारी से मात दी थी।

जब अंग्रेजों की साजिश का शिकार हुए मछुआरे

सन् 1840 के दशक में ईस्ट इंडिया कंपनी अपना मुनाफा बढ़ाने के लिए अब अपना ध्यान गंगा नदी के लंबे तटों की तरफ लगा रही थी। बंगाल प्रेसिडेंसी से होकर गुजरने वाली यह नदी, मछुआरा समुदाय के लोगों के लिए जीवन रेखा थी। वे अपनी आजीविका के लिए नदी के इन तटों पर निर्भर थे।

यह तर्क देते हुए कि मछुआरों की छोटी नावें, घाट पर बड़ी नावों (फैरी) की आवाजाही में बाधा डाल रही हैं, ईस्ट इंडिया कंपनी ने उनकी नौकाओं पर कर लगा दिया। नदी में मछली पकड़ने की गतिविधियों को कम करते हुए अतिरिक्त राजस्व कमाने का यह अंग्रेज़ों का एक आसान तरीका था।

अपनी रोज़ी-रोटी को लेकर परेशान मछुआरे, कुलीन ज़मींदारों के साथ मामला दर्ज कराने के लिए कलकत्ता गए थे। लेकिन उन्हें वहां से कोई समर्थन नहीं मिला। हर तरफ से निराश होने के बाद वे आखिर में राशमोनी (Rani Rashmoni) के पास पहुंचे। उन्होंने इस बारे में कुछ करने के लिए उनसे अपील की। 

हुगली नदी को बांध दिया जंजीरों से

इसके बाद जो हुआ, उसकी उम्मीद शायद अंग्रेंज़ों ने भी नहीं की होगी। राशमोनी ने 10 हजार रुपये देकर ईस्ट इंडिया कंपनी से हुगली नदी (कलकत्ता से होकर बहने वाली गंगा की डिस्ट्रीब्यूटरी) के दस किलोमीटर के हिस्से के लिए एक इजारा (पट्टा समझौता) हासिल किया। उन्होंने अपने पट्टे वाले क्षेत्र को घेरने के लिए हुगली में लोहे की दो बड़ी जंजीरें लगा दीं और फिर मछुआरों से इस क्षेत्र में मछली पकड़ने के लिए कहा। 

राशमोनी (Rani Rashmoni) की चाल से कंपनी के अधिकारी हतप्रभ थे। उनके इस कदम से हुगली नदी पर जहाजों का जमावड़ा लग गया। जब अधिकारियों ने राशमोनी से स्पष्टीकरण मांगा, तो उन्होंने कहा कि अपनी संपत्ति से होने वाले आमदनी की सुरक्षा के लिए वह ऐसा कर रही हैं। व्यवसायिक स्टीमशिप उसके इजारा में मछली पकड़ने की गतिविधियों को प्रभावित कर रहे हैं।

यह बताने के लिए कि वह ऐसा करने की हकदार हैं, सामंति महिला ने ब्रिटिश कानून का हवाला दिया और साथ ही कहा कि अगर कंपनी ने इस बारे में कुछ और सोचा, तो वह अदालत में इसके खिलाफ़ लड़ने के लिए तैयार हैं।

लोहे की जंजीरों से बंधे क्षेत्रों के दोनों और नावों के जमा होने के कारण ईस्ट इंडिया कंपनी को राशमोनी के साथ एक समझौता करने के लिए मजबूर होना पड़ा। मछली पकड़ने पर लगाया गया टैक्स खत्म कर दिया गया और मछुआरों के अधिकारों की रक्षा करते हुए गंगा में उनकी आवाजाही पर लगी रोक हटा दी गई।

नदी हमेशा के लिए बन गई ‘रानी राशमोनी जल’

राशमोनी ने बड़ी चालकी से ईस्ट इंडिया कंपनी को मात दे दी। एक सदी से भी ज्यादा समय बीत जाने के बाद, साल 1960 में प्रख्यात बंगाली लेखक गौरांग प्रसाद घोष ने इस ऐतिहासिक घटना के एक मात्र अवशेष की तस्वीर खींची थी। यह तस्वीर उस विशाल बड़ी सी खूंटी की थी, जिसे कभी हुगली नदी में जंजीरों को बांधने के लिए इस्तेमाल में लाया गया था।

यह खूंटी भले ही लोगों को याद न हो, लेकिन मछुआरे अपनी रानी को कभी नहीं भूले। बंगाली लेखक समरेश बसु ने अपनी किताब ‘गंगा’ (मूल रूप से 1957 में जन्मभूमि पत्रिका में प्रकाशित) में लिखा था, “नदी हमेशा के लिए ‘रानी राशमोनी जल’ बन गई।”

मूल लेखः संचारी पाल

संपादनः अर्चना दुबे

यह भी पढ़ेंः एक बेटी कैप्टन, तो एक बनी लेफ्टिनेंट, पढ़ें प्राउड पिता व होनहार बेटियों की प्रेरक कहानी

यदि आपको इस कहानी से प्रेरणा मिली है, या आप अपने किसी अनुभव को हमारे साथ साझा करना चाहते हो, तो हमें hindi@thebetterindia.com पर लिखें, या Facebook और Twitter पर संपर्क करें।

Exit mobile version