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एक वक़्त था जब थिएटर और सिनेमा में महिला का किरदार भी पुरुष कलाकार निभाते थे। उस जमाने में महिलाओं का इस क्षेत्र में काम करना बहुत ही ओछा माना जाता था, लेकिन धीरे-धीरे परिस्थितियाँ बदलीं और महिलाओं ने रंगमंच पर कदम रखना शुरू किया। कहते हैं कि बंगाली थिएटर ने अंग्रेज़ी थिएटर से भी पहले अपने नाटकों में महिला कलाकारों को स्टेज पर उतारा। उस शुरुआती दौर की पहली चंद कलाकारों में से एक थीं बिनोदिनी दासी।
अपने अभिनय और कला से बिनोदिनी ने बंगाली थिएटर को नए आयाम दिए और आज भी बंगाल में वे ‘नटी बिनोदिनी’ के नाम से लोगों के दिलों में बसती हैं। समय-समय पर बंगाली थिएटर और टीवी धारावाहिकों में उनकी कहानी को दोहराया जाता रहा है। उनका नाम उन भारतीय अभिनेत्रियों में शामिल होता है, जिन्होंने अपने अभिनय से लोगों को किरदारों से जुड़ने के लिए मजबूर कर दिया।
उन्होंने कलाकारों के कॉस्टयूम और मेक-अप में रचनात्मक और क्रियात्मक प्रयोग किए। यह मशहूर अभिनेत्री शिक्षा के महत्व को भी समझती थीं और इसलिए कहा जाता है कि बिनोदिनी घंटों कुछ न कुछ पढ़ने में व्यस्त रहती थीं।
आज के बहुत से लेखक उन्हें अपने समय की ‘फेमिनिस्ट’ कहते हैं क्योंकि उनके सपने और महत्वकांक्षाएँ उन्हें अपने समकालीन कलाकारों से बहुत अलग करते थे। बिनोदिनी सिर्फ एक स्टेज तक सीमित नहीं थीं बल्कि वह तो अपनी एक अलग पहचान चाहती थीं, अपना एक थिएटर, जहां वह कला की दुनिया को सजा सकें। हालांकि, उनके सपने दकियानूसी सोच की भेंट चढ़ गए। वह एक तवायफ की बेटी थीं और इसलिए कला से संपन्न होने के बावजूद समाज़ ने उन्हें स्वीकार करने से मना कर दिया।
शुरुआती सफ़र:
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साल 1862 में कोलकाता में जन्मी बिनोदिनी ने बचपन से अगर कुछ देखा तो सिर्फ गरीबी। उनके छोटे भाई की मात्र 5 साल की उम्र में शादी कर दी गयी ताकि दहेज़ में मिले गहने आदि को बेचकर घर का खर्च चल सके।
बिनोदिनी के नाजुक कंधों पर भी घर चलाने की ज़िम्मेदारी थी। इसलिए मात्र 12 साल की उम्र से ही उन्होंने थिएटर करना शुरू कर दिया था। थिएटर की दुनिया से उनकी पहचान उस समय की एक थिएटर गायिका, गंगाबाई ने करवाई थी। गंगाबाई उनके घर में किराए पर रहने आई थीं और उन्होंने छोटी बिनोदिनी को गायन सिखाना शुरू किया।
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उन्होंने ही बिनोदिनी की मुलाक़ात कोलकाता थिएटर के दिग्गज कलाकार और निर्देशक, गिरीश चंद्र घोष से करवाई थी। घोष ने ही बिनोदिनी को अपने नेशनल थिएटर के एक नाटक, ‘बेनी संहार’ से स्टेज पर उतारा। इस नाटक में बिनोदिनी ने एक छोटी सी भूमिका निभाई थी। पर इस छोटे से किरदार के बाद बिनोदिनी थिएटर की दुनिया में आगे बढ़ती रही।
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गिरीश ने बिनोदिनी को रंगमंच की बारीकियाँ सिखाईं या फिर यूँ कहे कि उन्होंने ही बिनोदिनी की कला को तराश उनके भीतर के हीरे को निकाला। बिनोदिनी ने हमेशा ही घोष को अपने गुरु और मार्गदर्शक होने का श्रेय और सम्मान दिया। कहते हैं कि बिनोदिनी किसी भी पात्र को सिर्फ ऊपर-ऊपर से नहीं निभाती थीं, बल्कि वह उसे स्टेज पर जीवंत कर देती थीं। घंटों रिहर्सल करना, किरदार को बार-बार पढ़ना और उसमें रम जाना- बिनोदिनी के कुछ गुर थे जिससे वह अपनी कला को और निखारती थीं।
उन्होंने बहुत बार एक ही नाटक में कई अलग-अलग भूमिकाएँ निभाईं और हर एक को इस तरह पेश किया कि दर्शक बिनोदिनी को किरदार के बाहर कभी न देख पाए। 'मेघनाद वध' में उन्होंने छह अलग-अलग भूमिकाएँ निभाईं - परिमाला, बरुनी, रती, माया, महामाया और सीता। इसके अलावा 'दुर्गेश नंदिनी' नामक नाटक में भी तीन किरदारों को जीया।
उनका सबसे चर्चित नाटक ‘चैतन्य लीला’ रहा क्योंकि इसमें उन्होंने किसी महिला का नहीं बल्कि संत चैतन्य का किरदार किया। जिस ज़माने में पुरुष महिलाओं की भूमिका निभाते थे, उस ज़माने में एक महिला कलाकार ने पुरुष का किरदार निभाने की चुनौती स्वीकारी।
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‘चैतन्य लीला’ में उनके अभिनय की चर्चा पूरे बंगाल में हुई। दर्शकों को यूँ लगा कि मानो खुद संत चैतन्य उनके सामने हैं। यह नाटक और भी एक वजह से चर्चा में रहा। दरअसल, महान समाज सुधारक रामकृष्ण परमहंस, खुद इस नाटक को देखने के लिए आए थे। वह इस कदर बिनोदिनी की कला से प्रभावित हुए कि खुद जाकर बिनोदिनी से मिले और उनकी कला की सराहना कर आर्शीवाद दिया।
कहते हैं कि ‘चैतन्य लीला’ के बाद बिनोदिनी का थिएटर करियर अपने शीर्ष पर था। हर तरफ अभिनय की दुनिया में उनका ही नाम था। लेकिन इसके ठीक दो साल बाद, 1887 में उन्होंने अपना आखिर किरदार ‘बेल्लिक बाज़ार’ नाटक के ज़रिए निभाया और महज़ 24 साल की उम्र में रंगमंच की दुनिया को अलविदा कह दिया।
लिखी अपनी आत्म-कथा
उनके इस फैसले की अलग-अलग वजह लोग देते रहे। किसी ने कहा कि संत चैतन्य की भूमिका ने उनके मन पर गहरी छाप छोड़ी और इसलिए उनका मन इस दुनिया से विरक्त हो गया, तो कोई कहता है कि अपने निजी संबंधों की वजह से उन्होंने ये काम छोड़ा। वजह चाहे जो भी रही हो लेकिन उनकी छाप थिएटर पर आज भी है।
13 वर्षों का थिएटर करियर, 80 से ज्यादा नाटक और 90 से ज्यादा किरदार और आज भी बिनोदिनी का नाम रंगमंच की दुनिया पर अमिट है!
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थिएटर की पहली महिला कलाकारों में से एक होने के साथ-साथ, बिनोदिनी अपनी आत्म-कथा लिखने वाली चंद पहली दक्षिण एशियाई अभिनेत्रियों में से एक हैं!
उन्होंने साल 1912 में 'अमार कथा' लिखी और 1924-25 में 'अमार अभिनेत्री जीबन' किताब लिखी। अपनी किताबों में उन्होंने अपनी ज़िन्दगी (स्टेज पर और स्टेज के बाहर) के उतार-चढ़ाव के बारे में लिखा है।
साथ ही, उन्होंने थिएटर की दुनिया में स्त्रियों के साथ होने वाले पक्षपात और दुर्व्यवहार को भी उजागर किया है।
उनकी किताबों के ज़रिए लोगों को पता चला कि किस तरह कोलकाता के मशहूर ‘स्टार थिएटर’ के निर्माण के लिए बिनोदिनी ने अपना सौदा किया था!
गिरीश चंद्र घोष ने जब अपना एक थिएटर बनाने का सोचा तो उनका यह सपना, बिनोदिनी का सपना भी बन गया। लेकिन समस्या थी कि फंड्स कहाँ से मिलें? ऐसे में, घोष को एक व्यवसायी गुरुमुख रे का ऑफर आया कि वह उन्हें थिएटर बनाने के लिए पैसे देंगे।
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लेकिन बदले में गुरुमुख रे ने घोष से मांगा - अपनी नाटक मण्डली की सबसे होनहार और मशहूर कलाकार, ‘नटी बिनोदिनी’। बिनोदिनी को कुछ समझ नहीं आ रहा था कि वह क्या करें? उन्हें असमंजस से निकालने के लिए रे ने एक और पासा फेंका। उन्होंने उनसे कहा कि यदि वह उनकी शर्त मान लेती हैं तो वह थिएटर का नाम उनके नाम पर रखेंगे।
अपने कुछ साथी कलाकारों के समझाने और अपने गुरु के सपने के लिए बिनोदिनी मान गईं। उन्होंने एक शादीशुदा आदमी के साथ एक ‘दूसरी औरत’ बनकर रहना स्वीकार किया ताकि उनकी कला और रंगमंच को सही मुकाम मिल सके। पर उन्हें यह नहीं पता था कि जिस रंगमंच को उन्होंने अपने सिर का ताज बनाया हुआ है वही रंगमंच उन्हें अपने सिर का कलंक समझ लेगा।
थिएटर का निर्माण जैसे ही पूरा हुआ तो रे और घोष ने इसका नाम ‘स्टार थिएटर’ रख दिया। उन्हें लगा कि तवायफों के घर से आने वाली लड़की के नाम पर इतने बड़े थिएटर का नाम रखना सही नहीं है। ये वो पल था जब दकियानूसी सोच, कला और किए गए वादे पर भारी पड़ चुकी थी।
पता नहीं बिनोदिनी उस समय वह ज़हर का घूंट कैसे पी गईं और कोई विरोध नहीं किया, लेकिन उनका रोष उनकी किताबों में महसूस होता है। बिनोदिनी की किताबों में खुद से किए गये सवाल उनके लेखन को और मार्मिक बनाते हैं। नेशनल स्कूल ऑफ़ ड्रामा के पूर्व-चेयरपर्सन, अमाल अल्लाना कहते हैं, "वह हमेशा अपनी पहचान के लिए लड़ती रहीं: मैं कौन हूँ और मुझे क्यों स्वीकार नहीं किया जा सकता।"
अल्लाना ने उनकी आत्म-कथा का अनुवाद पढ़ा और वह इस कदर प्रभावित हुए कि उन्होंने खुद बिनोदिनी के जीवन पर आधारित एक नाटक लिखी। उनके नाटक, 'नटी बिनोदिनी' को भारत के प्रमुख शहरों में मंचित किया गया और फिर 2011 में इसे वाशिंगटन के कैनेडी सेंटर में प्रस्तुत किया गया।
थिएटर छोड़ने के बाद उन्होंने अपनी ज़िन्दगी गुरुमुख रे के साथ बिताई। उनकी एक बेटी भी हुई, शकुंतला, लेकिन उन्होंने उसे 12 साल की उम्र में ही खो दिया। अपनी बेटी की मौत के बाद उन्होंने अपना सुकून लेखन और कविताओं में ढूंढा।
'मून ऑफ़ द स्टार थिएटर' और 'फ्लावर ऑफ़ नेटिव स्टेज' जैसी उपमाओं से सराही जाने वाली इस महान कलाकार ने साल 1941 में इस दुनिया से विदा लिया। बिनोदिनी तो चली गईं लेकिन अपने पीछे रंगमंच की दुनिया में ऐसा खालीपन छोड़ गईं कि शायद आज तक भी कोई इसे नहीं भर पाया है।
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बंगाल में तो लगभग सभी उनके बारे में जानते हैं लेकिन बाकी दुनिया में जो उन्हें नहीं जानते हैं वह जल्दी जान जाएंगे। बॉलीवुड निर्देशक प्रदीप सरकार इस बंगाली थिएटर कलाकार की जीवनी को बड़े पर्दे पर उतार रहे हैं। खबरों की मानें तो ‘नटी बिनोदिनी’ का किरदार इस फिल्म में अभिनेत्री ऐश्वर्या राय बच्चन निभाएंगी।
उम्मीद है कि ये फिल्म बिनोदिनी दासी को सिर्फ एक दुखी या फिर बेचारी नायिका के रूप में न दर्शाए, क्योंकि बिनोदिनी का अस्तित्व इससे कहीं बढ़कर है। उन्होंने अपने अभिनय से न सिर्फ रंगमंच की दुनिया में रंग भरे बल्कि भारतीय थिएटर के इतिहास को एक अलग दिशा भी दी।
संपादन - अर्चना गुप्ता