कूलर की घास में ऐसा क्या है खास, जिसे मुग़लों ने भी माना और फिजी जैसे देश ने भी अपनाया

कूलर की जिस घास को आप आम समझते हैं, दरअसल वह बड़ी खास है। मुगलों के ज़माने से इसे प्राक़तिक रूप से ठंडक और खुशबू के लिए इस्तेमाल किया जाता रहा है।

हर साल जैसे ही अप्रैल का महीना आता है, गर्मियों की आहट सुनाई देने लगती है। सर्दियों की गुनगुनी धूप अब चुभने लगती है और मई-जून आते-आते तो यह प्रचंड गर्मी में तब्दील हो जाती है। इंसान तो इंसान, जानवर भी बेहाल होकर छांव की तलाश में इधर-उधर भागने लगते हैं।

अगर ऐसी भयंकर गर्मी में आपको कहीं से खस का शरबत मिल जाए, तो फिर कहना ही क्या! यह किसी मन्ना (स्वर्ग से आया भोजन) से कम न होगा। पहले खस से बना शरबत आम भारतीयों के हर घर में मिल जाया करता था। जिसे खस-खस यानी वेटीवर घास के पत्तों (क्राइसोपोगोन ज़िज़ानियोइड्स) से बनाया जाता है। 

बात अगर खस से बने शरबत की करें तो इसकी तासीर ठंडी होती है। खस की पत्तियां शरीर की गर्मी को कम करती हैं और प्राकृतिक एंटीऑक्सीडेंट से भरपूर होती हैं। इससे शरीर की सूजन भी कम होती है। खस की खूबियां तो जान लीं, अब जरा इस वंडर घास के इतिहास पर भी थोड़ी नजर घुमा ली जाए। 

बहुत पुराना है खस से भारत का रिश्ता

ज़ारा और डिओर जैसे ब्रांड आज अपने लग्जरी परफ्यूम में खस का इस्तेमाल करते हैं। लेकिन इससे बहुत पहले से भारतीय इस सुगंधित घास का इस्तेमाल अपनी रोज़मर्रा की जिंदगी में करते रहे हैं। अगर हम इतिहास में झांककर देखें, तो पता चलेगा कि भारत हजारों सालों से खस निर्यात करता आ रहा है।

पहली शताब्दी में, ग्रीक नाविक द्वारा यात्रा पर लिखी गई किताब ‘पेरिप्लस ऑफ द एरिथ्रियन सी’ के एक हिस्से में लिखा है कि भारत बड़ी मात्रा में वेटिवर को बाहर भेज रहा था। दो हजार सालों से भी पहले लिखे गए प्राचीन संगम साहित्य में खस का उल्लेख ‘ओमलीगई’ के रूप में किया गया था, जिसका नहाने के समय इस्तेमाल किया जाता था।

मध्ययुग के भारत में मुगलों ने एक खास विभाग बनाया हुआ था, जहां विलासिता और खान-पान में इस्तेमाल के लिए विशेष सुगंध तैयार की जाती थी। मुगलों के शाही संरक्षण में, कन्नौज का प्राचीन शहर, भारत की इत्र की राजधानी के रूप में उभरा था। गंगा नदी के किनारे बसा यह शहर, विशेष रूप से गुलाब, चमेली जैसे खुशबूदार फूलों और खस की खेती के लिए मशहूर था। 

कन्नौज का मशहूर ‘मिट्टी इत्र’ 

Khas or cooler grass thai mat
Mat made of vetiver

कन्नौज, हज़ारों सालों से दुनियाभर में मशहूर ‘मिट्टी इत्र’ समेत कई तरह के आकर्षक अतर बना रहा है। सूखी मिट्टी पर बारिश की बूंदें पड़ने के बाद, जो खुशबू आती है, बस उसी के एहसास से लबालब है यह मिट्टी इत्र।

कन्नौज की खस ‘रुह’ आज अंतर्राष्ट्रीय व्यवसाय की दुनिया में बेशकीमती है। यह अरमानी के ‘वेटिवर बेबीलोन’ और टॉम फोर्ड के ‘ग्रे वेटिवर’ जैसे प्रतिष्ठित परफ्यूम का आधार है। यह जानना दिलचस्प होगा कि कलाकार-पत्रकार सेलिया लिटल्टन ने अपनी किताब ‘इन द स्केंट ट्रेल’ में लिखा है, “वैज्ञानिकों ने वेटिवर से 150 मॉलिक्यूल्स को अलग कर दिया है। इसकी जड़ों से अभी और रहस्यों का पता लगाना बाकी है।”

खस-खस की घास कैसे पहुंची कूलर तक? 

भारतीयों के लिए वेटिवर की कहानी सिर्फ मिट्टी के इत्र से नहीं जुड़ी है। वह इससे भी कहीं आगे है। 90 के दशक में डेजर्ट कूलर ने बहुत से भारतीयों की खस-खस की घास से पहचान करा दी थी। 

यह, वह दौर था जब एयर कंडीशन आम मध्यम वर्ग की पहुंच से बहुत दूर था। उनकी कीमत काफी ज्यादा थी, जिन्हें खरीदना आसान नहीं था। उस समय कूलर, लोगों की खास पसंद हुआ करते थे। लोहे से बने इस कूलर में पानी उठाने वाली मोटर, एक फैन और खस की घास लगी होती है। 

जैसे ही कूलर चलता है, मोटर पानी उठाता है और खस की घास गीली होकर, ठंडी हवा बाहर फेंकने लगती है और पूरा कमरा बिना एसी के ठंडा हो जाता। गीली खस से होकर बहने वाली मीठी महक वाली हवा से जो राहत मिलती है, उसका सार कवि बिहारी लाल चौबे की काव्य रचना में भी मिल जाएगा। 

लू भी जब ठंडी, महकदार हवा में बदल जाए 

sikki grass bihar foundation
Sikki work of Bihar

अबुल फज़ल ने अपनी किताब ‘ऐन-ए-अकबरी’ में लिखा है, “खुद मुगल शासक अकबर ने सबसे पहले ठंडक बनाए रखने के लिए खस के परदे को इजाद किया था।

भारत की गर्मी से बचने के लिए अंग्रेजों ने थर्मैन्टिडोट्स का निर्माण किया। हम इसे उस समय का डेजर्ट कूलर भी कह सकते हैं। इसमें हाथ के पंखों से सुगंधित घास से बनी चटाई के जरिए ठंडी हवा का लुत्फ उठाया जाता था। खस से बनी चटाई (जिसे खस की टट्टी कहा जाता था) को भिश्ती से पानी का छिड़काव कर गीला रखा जाता था।

आज भी भारत के कई इलाकों में घरों को गर्म हवा या कहे कि लू से बचाए रखने के लिए खिड़की पर खस के परदे लगाए जाते हैं। फूस की छत बनाते समय खस का इस्तेमाल किया जाता है, ताकि घर ठंडा रहे। इससे गर्मियों की लू भी ठंडी, महकदार हवा में बदल जाती थी। हाल ही में भारतीय बाजारों में सैंडल, टोपी और खस से बने मास्क ने भी लोगों का ध्यान अपनी ओर खींचा है।

हमारे ऐतिहासिक परम्परा

खस का उपयोग हमारी ऐतिहासिक परम्परा रही है। त्योहारों से लेकर लोक कला में इसका एक खास स्थान है। बिहार के मिथिला क्षेत्र में समा चाकेवा उत्सव के दौरान, महिलाएं लोक गीत गाने के लिए इकट्ठा होती हैं और सूखी वेटिवर घास से परंपरागत रूप से गुडियां बनाती हैं।

मिथिला के लोग ‘सिक्की’ हस्तशिल्प बनाने के लिए वेटिवर डंठल का भी इस्तेमाल करते हैं। सिक्की हस्तशिल्प एक प्राचीन कुटीर उद्योग है, जो कई घरों को रोजगार दे रहा है। दरअसल, यह कला 600 साल से भी ज्यादा पुरानी है। मैथिली कवि विद्यापति ने अपनी कविताओं में डंठल इकट्ठा करने वाली महिलाओं की दुर्दशा का जिक्र किया था। 

खस की खासियत इतने तक ही सीमित नहीं है। इसके और भी बहुत से फायदे हैं। 

मिट्टी के कटाव को रोकने के लिए

ये छोटा सा पौधा मिट्टी को जकड़ कर रखता है और उसे अपनी जगह पर बनाए रखता है। इसमें कोई बीज नहीं होता और इसकी लंबी और सख्त जड़ें बाहर की तरफ फैले बिना खेत में प्राकृतिक तरीके से मेड़ बनाने में मदद करती हैं। इसलिए इन्हें खेत की सीमाओं या नदी के किनारे पर बाड़ के रूप में लगाया जाता है।

वेटिवर घास के इस फायदे को देखकर कुछ दशक पहले फिजी ने भी इसे अपने खेतों में आजमाया था। मिट्टी के कटाव के चलते गन्ने की फसल खतरे में पड़ती जा रही थी। उन्होंने खेत के किनारे इस घास को लगाया, तो मिट्टी का कटाव रुक गया। मिट्टी के पोषक तत्व मिट्टी में ही बने रहे और उनकी फसल दोगुनी हो गई। आज फिजी के किसान खस घास की कसम तक खाते हैं।

रोकती है मिट्टी की कटान

वेटिवर नेटवर्क इंटरनेशनल कहता है, “अगर इस घास का बेहतरीन तरीके से इस्तेमाल किया जाए, तो यह मिट्टी के कटाव (98 प्रतिशत तक) को कम करने, बारिश के पानी को बहने से रोक पाने, उसे संरक्षित करने (70 प्रतिशत तक) और भूजल स्तर बढ़ाने में महत्वपूर्ण साबित हो सकती है। इसके साथ ही यह, पानी को साफ करने और बाढ़ के जोखिम को कम करने व समुदायों को आर्थिक लाभ देने में भी आगे है।”

तो फिर जब भी अगली बार आप गर्मी से बेहाल हों और ठंडक की तलाश कर रहे हों, तो एक बार अपनी रूट्स की तरफ लौटने के बारे में सोचिएगा जरुर। यह बहुआयामी घास आपको खुशबू के एहसास के साथ गर्मी से निजात भी दिला देगी। 

मूल लेखः संचारी पाल

संपादनः अर्चना दुबे

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