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मातृभूमि की रक्षा के लिए यूँ तो कई वीर जवानों ने जान की बाजी लगाई है पर उनमें से महान मिलिट्री जवान हवलदार अब्दुल हामिद का नाम अग्रिणी है| उनकी मृत्यु के बाद उन्हें परम वीर चक्र से सम्मानित किया गया| उनके इस बलिदान को याद रखने के लिए उनके पैतृक गांव असल उत्तर में उनके शहीद स्मारक का निर्माण कराया गया है| वहां उनके बलिदान की दास्तां बयां करता एक शिलालेख भी है, जो मातृभूमि के लिए उनके इस अमिट बलिदान की सत्यनिष्ठा को प्रमाणित करता है|
पंजाब से महज 60 किमी दूर एक छोटा सा गांव है- असल उत्तर| ये गांव अपने आप में अलहदा है , क्यों कि ये अमृतसर को हाईवे 21 से जोड़ता है| इस गाँव से कुछ ही दूर भारत के महान मिलिट्री जवान हवलदार अब्दुल हामिद का शहीद स्मारक है|
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जबकि हामिद का नाम भारतीय आर्मी घेरों में आरक्षित है लेकिन उसकी विरासत ( मृत्यु-पत्र) को भुला दिया गया है| इस बात को 50 साल से ऊपर हो गए हैं जब 1965 के भारत-पाकिस्तान युद्ध के दौरान ये परमवीर चक्र विजेता अपनी मातृभूमि की रक्षा करते करते असल उत्तर में शहीद हो गया| हालांकि बहुत कम लोगों को उनकी बहादुरी और युद्ध क्षेत्र में उनके असाधारण कामों की जानकारी है।
पढ़िए हवलदार अब्दुल हामिद की कहानी जिनके अदम्य साहस और त्याग की वजह से भारतीय सेना 1965 की जंग में पकिस्तान की सेना पर हावी हो सकी।
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अब्दुल हामिद का जन्म 1 जुलाई 1933 में उत्तर प्रदेश के गाजीपुर के एक गांव धामपुर में मो. उस्मान और सकीना बेगम के घर में हुआ था, जिनके पहले से ही 3 बेटे और 2 बेटियां थीं| अब्दुल के पिता पेशे से दर्जी थे और आर्मी में शामिल होने का निर्णय लेने से पहले अब्दुल कपड़े सिलने के इस काम में पिता की मदद करते थे|
हामिद महज 20 साल के थे जब बनारस में उनकी भर्ती आर्मी में हुई थी| नजीराबाद के ग्रेनेडियर्स रेजिमेंटल सेंटर में ट्रेनिंग के दौरान ही उनकी पोस्टिंग 1955 में 4 ग्रेनेडियर्स में हुई| शुरुआत में उन्होंने एक राइफल कंपनी में अपनी सेवा दी उसके बाद उनकी पोस्टिंग रेकोइल्लेस प्लाटून में हुई| उन्होंने थांग ला में 1962 के युद्ध में भाग लिया, उसके बाद उत्तर-पूर्व फ्रंटियर प्रोविंस, 7 माउंटेन ब्रिज , 4 माउंटेन डिवीज़न का हिस्सा रहे|
सीजफायर की घोषणा होने के बाद उनकी यूनिट अंबाला के लिए प्रस्थान कर गयी जहां अब्दुल को प्रशासनिक कंपनी में कंपनी क्वार्टर मास्टर हवलदार का पद मिला| उन्होंने उस समय अपनी 106 mm रेकोइल्लेस राइफल से अपने जीवन का बेहतरीन शॉट दिया था, जिस वजह से युद्ध के कमांडर उन्हें रिफल प्लाटून के NCO पद पर वापस चाहते थे।
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1965 में, जब भारत-पाक युद्ध शुरू हुआ, अब्दुल हामिद भारतीय सेना में अपने 10 साल पूरे कर चुके थे और वो 4th ग्रेनेडियर्स में अपनी सेवा दे रहे थे| खबर आई कि दुश्मन ने जम्मू में अखनूर पर हमला कर दिया जिससे कि दूरभाष के साधन और जम्मू कश्मीर पर भारत की आर्मी तक सामान पहुंचाने वाले रूट को काट दें|
हामिद की 4th ग्रेनेडियर्स बटालियन ने पंजाब के खेम कारन सेक्टर की चीमा गांव के पास एक महत्वपूर्ण क्षेत्र पर कब्जा जमा लिया, उन्हें दुश्मनों को वहीँ रोके रखना था ताकि वो आगे ना बढ़ सकें| भारत की रक्षा योजना के हिसाब से इस क्षेत्र पर मजबूत पकड़ जरूरी थी और इसलिए 4th ग्रेनेडियर्स को आगे बढ़ने और पास के ही ऑर्डनेन्स डिपो से 106 आरसीएल बंदूकें लेने के आदेश मिले| हामिद सेना के कमीशन न पाने वाले प्रशिक्षिकों में से एक थे| टैंक भेदी टुकड़ी कमांडरों के ना होने की वजह से, उन्हें टैंक भेदी टुकड़ी को टेक ओवर करने के लिए बोला गया।
सितम्बर 8 को, दुश्मन ने ग्रेनेडियर्स पर दोबारा कई बार हमले किए, पर हर बार खदेड़ दिए गए| सबसे गंभीर हमला तब हुआ जब दुश्मन आधुनिक पाटन टैंक की टुकड़ी के साथ आया| ये हमला इतना तीव्र था कि भारतीय आर्मी की टुकड़ी बिखर गई|
हामिद के पास रेकोइलेस बंदूकों का कमांड था| वो जीप में अपनी बंदूक के साथ आगे बढ़े|
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उस पल तक जब टैंक शूटिंग की दुरी तक आ चुका था, हामिद ने गोली चला दी और गोली के प्रक्षेप पथ को देखा जैसे कि उन्होंने अपने लक्ष्य को भेदा| उन्होंने जिस टैंक को निशाना बनाया था उनकी आंखों के सामने लपटों से घिर गया जबकि बाकि दो को दुश्मन वहीँ छोड़ गए|
दिन के अंत तक हामिद ने दो टैंको को नष्ट कर दिया था, जबकि चार अभी भी बाकी थे| उसके बाद उन्होंने आर्मी के इंजीनियर्स को बुलाया और क्षेत्र से एंटी टैंक सुरंगों को पता लगाने को कहा| अगली सुबह वो अपनी रेकोइल्लेस बंदूक के साथ वापस आ गये, जबकि उसकी बटालियन को पाकिस्तानी सेबर जेट विमानों से हवाई हमले का सामना करना पड़ा| दिन के अंत तक हामिद दो और टैंकों को निशाना बना चुके थे|
10 सितंबर, 1965 को सुबह ठीक 8 बजे पाकिस्तानी पाटन टैंकों की एक बटालियन ने 4 ग्रेनेडियर्स के अधिग्रहित क्षेत्र पर हमला कर दिया| भारतीय सैनिकों पर तीव्र तोपों की बमबारी हुई पर उन्होंने कोई प्रति उत्तर नहीं दिया| एक घंटे के भीतर पाकिस्तानियों ने भारतीय ठिकानों में प्रवेश कर लिया| परिस्थिति काफी गंभीर हो गई| आमने-सामने की इस लड़ाई में हामिद ने देखा कि 4 पाकिस्तानी टैंक उनके सैनिकों की तरफ बढ़ रहे हैं|
एक बार भी दोबारा सोचे बिना वो अपनी जीप पर चढ़ गए जिसमें कि बंदूक रखी हुई थी और बिना सोचे समझे टैंक की दिशा में उसे नष्ट करने को पहुंच गए|
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दुश्मन की धुआंधार गोलियां भी उन्हें नहीं रोक सकीं| बड़े कपास के पेड़ों की आड़ में छुपते-छुपाते हामिद दुश्मन के मुख्य टैंक तक पहुंचे| उसके बाद अपनी जगह बदलते हुए उसने दुश्मन के दो और तनकों को निष्क्रिय कर दिया| तब तक उन पर दुश्मन की नजर पड़ चुकी थी और दुश्मन ने उन्हें मारने के लिए मशीन गन और विस्फोटक तैयार कर लिए| जैसे ही उन्होंने दुश्मन के दूसरे टैंक को निशाना बनाया, वो एक जानलेवा विस्फोटक से घायल हो गए|
इस तीव्र आक्रमण के दौरान, हामिद ने अकेले ही दुश्मन के 8 टैंकों को निशाना बनाया| उन्होंने अकेले वो कर दिखाया जो एक पूरी फोर्स के लिए करना भी कठिन होता है| उनकी इस बहादुरी और दृढ़ संकल्प ने उनके साथियों को भी पूरी ताकत के साथ शत्रु के टैंक को पीछे हटाने के लिए प्रेरित किया|
इस युद्ध के दौरान लगभग 97 पाकिस्तानी टैंकों को नष्ट किया गया| दुश्मन का सफाया हो गया|
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अब्दुल हामिद अगला दिन देखने के लिए या अपनी जीत का जश्न नहीं मनाने के लिए जीवित नहीं रहे, जो कि दिन दिन की लगातार लड़ाई के बाद हासिल हुई थी। 9 सितम्बर 1965 को एक प्रशस्ति प्रमाण पत्र भेजा गया जिसमें उन्हें दुश्मन के 4 टैंकों के विध्वंस का श्रेय दिया गया था लेकिन कोई नहीं जानता था कि हामिद ने अगले दिन 3 और टैंकों का विनाश किया है। क्यों कि प्रशस्ति प्रमाण पत्र पहले ही भेजा जा चुका था, जिसमें उन्हें केवल 4 टैंक नष्ट करने का श्रेय दिया गया था। वास्तविकता में उन्होंने 8 टैंक नष्ट किए थे। उनके निःस्वार्थ, दृढ़ संकल्प और बहादुरी से दुश्मन का सामना करने के लिए हामिद को मरणोपरांत आजाद भारत के सबसे बड़े वीरता पुरस्कार परम वीर चक्र से सम्मानित किया गया।
हामिद को युद्ध भूमि में ही दफना दिया गया और आज हामिद असल उत्तर में एक साधारण कब्र में है। रास्ते के किनारे लाल पत्थर पर ‘ कंपनी क्वार्टर मास्टर हवलदार अब्दुल हामिद की शहीद स्मारक' लिखा हुआ है। दीवारों से घिरी हुई कुछ एकड़ भूमि, झाड़ियों और पेड़ों के बीच से एक रास्ता उसकी कब्र की ओर जाता है जो कि उनका वास्तविक स्मारक है। वहां एक शिलालेख है जो उनकी मातृभूमि के लिए उनके बलिदान की सत्यनिष्ठा को प्रमाणित करता है।
और इस तरह से वो जीवित है उन युद्ध की ट्राफियों में जो भारत के आर्मी कैंटोमेन्ट एरिया में हैं, उन गन्ने के खेतों में जहां उन्होंने घुसपैठियों को खदेड़ा था, गांव के उस पार्क में जहां उनका स्मारक है और एक बहुत ही प्यारी बेटी की गर्वीले संस्मरणों में। बहुत ही कम लोग ये बात जानते होंगे कि जाने माने सामजिक कार्यकर्ता अन्ना हजारे भी युद्ध के समय अब्दुल हामिद के कामरेड थे। उनका काम बॉर्डर पर बंदूकें और विस्फोटक पहुंचाना था।
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copy:मातृभूमि के लिए जान की बाजी लगा देने वाले आर्मी जवान हलवलदार अब्दुल हामिद को मरणोपरांत परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया|