पिछले 99 सालों से जलियाँवाला बाग़ की विरासत को सहेज रहा है यह बंगाली परिवार!

मुख़र्जी का मानना था कि भले ही यह ज़मीन हमें ब्रिटिशों के अत्याचार की याद दिलाता रहेगा, पर वहां मारे गए हिन्दुस्तानी शहीदों की खातिर हमें जलियांवाला बाग़ को हमेशा सहेज कर रखना चाहिए।

13 अप्रैल 1919
बैसाखी का दिन!

स्वतंत्रता की लड़ाई अपनी चरम सीमा पर थी और गाँधी जी के दिखाए अहिंसा की राह पर चलते हुए, देशवासी अंग्रेज़ों के खिलाफ़ शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शन कर रहे थे।

अमृतसर के जलियाँवाला बाग़ में भी करीब 5000 भारतीय, रोलाक्ट एक्ट के विरोध में प्रदर्शन कर रहे थे। तभी छोटे-छोटे घरों और संकरी गलियों से घिरे हुए इस बाग़ में ब्रिगेडियर जनरल आर.ई.एच डायर ने अपने सैनिकों के साथ प्रवेश किया। इस निर्दयी अफ़सर ने बाग से निकलने का एकमात्र रास्ता भी बंद करवा दिया और अपने सैनिकों को अँधा-धुंध गोलियां चलाने का आदेश दे दिया।

गोलियों के लगभग 1650 राउंड चलाये गए, जिनमें 1500 से ऊपर निर्दोष, औरतों, बच्चों, बूढों और जवानों की मृत्यु हो गयी और कई घायल हो गए।

आज इसी नृशंस घटना की 100वीं बरसी है, जिसे चाहकर भी कोई भी भारतीय नहीं भुला सकता!

उस दिन, जलियाँवला बाग में उन 5,000 लोगों के बीच, डॉ. शष्टि चरण मुखर्जी भी थे, जो मूल रूप से पश्चिम बंगाल के हुगली के रहने वाले एक डॉक्टर थे। पर इंडियन नेशनल कांग्रेस के अध्यक्ष, मदन मोहन मालवीय के साथ काम करने के लिए वे अलाहबाद आकर बस गए थे।

1919 में मालवीय ने डॉ. मुखर्जी को अमृतसर में पार्टी के एक सत्र के लिए एक अच्छी जगह ढूँढने के लिए कहा। डॉ. मुखर्जी को इस बात की ज़रा भी भनक नहीं थी, कि यही काम उन्हें 1500 मासूमों की ह्त्या का चश्मदीद गवाह बना देगा। जब जनरल डायर ने गोलियां चलवाई, तो मुख़र्जी एक मंच के नीचे छुप गए, जिससे उनकी जान बच गयी। पर उन्होंने जो नरसंहार देखा था, उसने उन्हें झकझोर कर रख दिया था।

इस दुर्भाग्यपूर्ण घटना ने न केवल पूरे देश में स्वतंत्रता आन्दोलन की तस्वीर बदल दी, बल्कि डॉ. मुखर्जी का भी जीवन पूरी तरह बदल दिया।

“इस नरसंहार को प्रत्यक्ष देखने के बाद वे दुःख और पीड़ा से भर चुके थे और उन्होंने इसके ठीक बाद इन्डियन नेशनल कांग्रेस को पत्र लिखकर कहा कि उन्हें जलियांवाला बाग़ की ज़मीन खरीदनी है,” उनके पोते सुकुमार मुखर्जी ने एक साक्षात्कार के दौरान बताया।

मुख़र्जी का मानना था कि भले ही यह ज़मीन हमें ब्रिटिशों के अत्याचार की याद दिलाता रहेगा, पर वहां मारे गए हिन्दुस्तानी शहीदों की ख़ातिर हमें जलियांवाला बाग़ को हमेशा सहेज कर रखना चाहिए।

कहते हैं कि घटना के सबूत हमेशा के लिए मिटा देने के इरादे से अंग्रेज़, जलियांवाला बाग़ की ज़मीन को एक कपड़ा-बाज़ार में तब्दील कर देना चाहते थे। पर इस बात का विरोध करते हुए डॉ. मुख़र्जी ने गाँधी जी को ख़त लिखा। उन्होंने इंडियन नेशनल कांग्रेस के आगे भी एक पेटीशन जारी की, जिसके ज़रिये उन्होंने यहाँ एक स्मारक बनवाने की मांग की।

साल 1920 में यह पेटीशन पारित हो गया और ज़मीन की कीमत 5.65 लाख रूपये रखी गयी। अब बस पैसों का इंतजाम करना था, और डॉ. मुख़र्जी का यहाँ एक स्मारक बनाने का सपना पूरा हो सकता था। जहाँ गाँधी जी ने सारे देशवासियों से इस महान कार्य के लिए दान करने की अपील की, वहीं डॉ. मुख़र्जी ने घर-घर जाकर लोगों से मदद मांगी। आखिर इन दोनों की मेहनत रंग लायी और उन्होंने करीब 9 लाख रूपये जमा कर लिए। जब ज़मीन को बेचा गया तो नीलामी रखी गयी, जिसे डॉ. मुख़र्जी ने जीत लिया और यह ज़मीन उनके नाम हो गयी।

इन सब से गुस्साएं ब्रिटिशों ने कुछ वक़्त के लिए डॉ. मुख़र्जी को गिरफ्तार तो किया, पर जल्द ही उन्हें मुख़र्जी को छोड़ना पड़ा और उन्हें इस स्मारक का पहला सचीव चुना गया।

1962 में डॉ. मुख़र्जी की मृत्यु के बाद उनके सबसे बड़े बेटे उत्तम चरण मुख़र्जी को इस स्मारक की बागडोर दी गयी।

आज उत्तम के बेटे और डॉ. शष्टि  चरण मुख़र्जी के पोते, 65 वर्षीय सुकुमार मुखर्जी इस जगह की देखभाल करते हैं। 

सुकुमार मुखर्जी

1988 में अपने पिता की मृत्यु के बाद से ही सुकुमार इस जगह को सँभालते हैं।

मुख़र्जी आम जनता से अपील करते हैं, कि यह जगह शहीदों का स्मारक है, और उन्हें इस जगह को उतनी ही इज्ज़त देनी चाहिए, जितनी हम शहीदों को देते हैं। इस जगह की गरिमा बनाये रखने के लिए वे आम जनता से बस इतना चाहते हैं, कि जब वे यहाँ घूमने आये तब यहाँ कचरा न फेंके और इसे साफ़ रखने में सुकुमार के परिवार की मदद करें।

सुकुमार अपने परिवार के साथ इसी स्मारक के परिसर में स्थित एक छोटे से मकान में रहते हैं। इस जगह की अहमियत की वजह से उन्हें इस एक कमरे के मकान का भी काफ़ी ज़्यादा किराया देना पड़ता है, पर उन्हें इस बात से कोई ऐतराज़ नहीं है।

सुकुमार ने बताया कि शुरू में उन्होंने इस जगह में प्रवेश के लिए दो रूपये का प्रवेश शुल्क रखने का प्रस्ताव रखा था, ताकि उन्हें इसे सहेजने में लग रहे खर्चे में कुछ मदद मिले, पर पंजाब सरकार ने उनके इस प्रस्ताव को स्वीकार नहीं किया। लाखों मुश्किलों के बावजूद सुकुमार को इस बात पर गर्व है, कि उनके परिवार को इस महान स्मारक को सहेजने का सौभाग्य प्राप्त है।

आज जब हम जलियाँवाला बाग़ के शहीदों को याद कर रहे हैं, तो क्यूँ न एक सलाम इस परिवार को भी करें, जिनकी वजह से उन शहीदों की यादें आज भी जिंदा है!


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