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साल 1984
तारीख- 2 और 3 दिसंबर
ये दो दिन भारत के इतिहास से न तो भुलाये जा सकते है और न ही मिटाए जा सकते हैं। इन दो दिनों को हम 'भोपाल गैस त्रासदी' के नाम से जानते हैं। एक ऐसी त्रासदी जो शुरू तो आज से लगभग 3 दशक पहले हुई थी लेकिन कब ख़त्म होगी ये कोई नहीं जनता।
आज भी भोपाल गैस त्रासदी का प्रभाव पूरे भोपाल में देखा जा सकता है। इतना बड़ा औद्योगिक हादसा विश्व के इतिहास में पहली बार हुआ था। भोपाल स्थित यूनियन कार्बाइड पेस्टिसाइड प्लांट में से लगभग 30 टन मिथाइल आइसोसाइनेट गैस निकली और पूरे शहर में फ़ैल गयी। इस जहरीली गैस की चपेट में जो भी आये, उन्होंने या तो अपनी जान गँवा दी या फिर किसी न किसी खतरनाक बीमारी की चपेट में आ गये; किसी ने अपनी आवाज़ खो दी तो किसी ने अपनी आँखें।
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इस घटना में जो बर्बाद हुआ उसे तो वापिस नहीं लाया जा सकता है पर हाँ उन लोगों को जरुर श्रद्धांजलि दी जा सकती है जिन्होंने खुद की जान दाँव पर लगाकर लोगों की जान बचायी।
ऐसा ही एक अनसुना नाम है ग़ुलाम दस्तगीर का, एक स्टेशन मास्टर जिन्होंने उस भयानक रात को लाखों लोगों की ज़िन्दगी बचाई। अगर ग़ुलाम उस दिन अपनी सूझ-बूझ न दिखाते, तो शायद परिणाम और भी भयंकर हो सकते थे।
3 दिसंबर 1984 की रात को स्टेशन मास्टर ग़ुलाम देर रात तक रूककर अपना काम पूरा कर रहे थे। रात के लगभग 1 बजे वे गोरखपुर-मुंबई एक्सप्रेस के आगमन की घोषणा पर बाहर निकले।
लेकिन जैसे ही वे प्लेटफॉर्म पर पहुंचे, उनकी आँखे जलने लगी और साथ ही उनके गले में भी खुजली होने लगी। उन्हें नहीं पता था कि प्लांट से जहरीली गैस का रिसाव हो रहा है और धीरे-धीरे यह स्टेशन को भी अपनी चपेट में ले रही है।
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उन्हें यह भी नहीं पता था कि उनके बॉस, स्टेशन अधीक्षक हरीश धूर्वे समेत उनके तीन रेलवे सहयोगियों की मृत्यु हो चुकी है। हालांकि, यह बाद में बताया गया कि धुर्वे ने जैसे ही गैस के रिसाव के बारे में सुना, तो उन्होंने अपने प्राण त्यागने से पहले ट्रेनों के आगमन को रोकने की कोशिश की थी।
अपने वर्षों के अनुभव से ग़ुलाम समझ गये थे कि यहाँ कुछ तो गलत हो था। हालांकि, उन्हें पूरी बात नहीं पता थी लेकिन जब उन्हें अन्य किसी सहयोगी से कोई प्रतिक्रिया नहीं मिली तो उन्होंने तुरंत स्थिति को सम्भाला। उन्होंने बिदिशा और इटारसी जैसे पास के स्टेशनों के वरिष्ठ कर्मचारियों को सतर्क कर दिया और तुरंत सभी ट्रेनों को भोपाल से रवाना करने का फ़ैसला किया।
इधर गोरख़पुर-कानपूर एक्सप्रेस पहले से ही भोपाल प्लेटफॉर्म पर खड़ी थी और उसके रवाना होने का समय 20 मिनट बाद था। लेकिन ग़ुलाम ने अपने दिल की सुनी और स्टेशन पर बाकी स्टाफ को ट्रेन को रवाना करने के आदेश दिए और जब कर्मचारियों ने कहा कि ऊपर से आदेश आने तक उन्हें रुकना चाहिए तो ग़ुलाम ने जवाब दिया कि इस फ़ैसले की पूरी जिम्मेदारी वे स्वयं लेंगे। वे बस चाहते थे कि बिना एक पल भी गंवाए ट्रेन वहां से चली जाये ताकि यात्रियों की जान बचायी जा सके।
बाद में उनके सहयोगियों ने बताया कि ग़ुलाम को उस वक़्त सांस लेने में बहुत तकलीफ़ हो रही थी और उनकी आँखे भी लाल हो चुकी थीं। लेकिन ग़ुलाम और उनके बहादुर स्टाफ ने अपनी ज़िम्मेदारी पर ट्रेन को रवाना करवाया।
स्टेशनमास्टर के इस सूझ बुझ भरे एक फैसले ने उस दिन अनगिनत ज़िंदगियाँ बचाईं।
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ग़ुलाम का अपना परिवार भी शहर में इस जहरीली गैस की चपेट में था पर ग़ुलाम अनगिनत अजनबी जरुरतमंदों की मदद में लगे थे। इस दुर्घटना में उन्होंने अपने बड़े बेटे को खो दिया और उनके छोटे बेटे को जिंदगीभर के लिए खतरनाक त्वचा रोग हो गया। पर फिर भी वे एक प्लेटफॉर्म से दुसरे प्लेटफॉर्म पर पहुंचकर पीड़ित लोगों की मदद में जुटे रहे।
उन्होंने अस्पतालों से मदद मंगवाई। जल्द ही भोपाल स्टेशन किसी अस्पताल का इमरजेंसी विभाग लगने लगा था। इस दुर्घटना के बाद ग़ुलाम को भी अपनी सारी ज़िन्दगी अस्पताल के चक्कर में काटने पड़े क्योंकि बहुत ज़्यादा समय तक गैस में रहने की वजह से उनका गला जैसे पूरा जल ही गया था।
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भोपाल स्टेशन के प्लेटफॉर्म नंबर 1 पर उन सभी की याद में एक मेमोरियल बनाया गया है जिन्होंने उस दिन अपनी ड्यूटी निभाते हुए अपनी जान गंवा दी थी। लेकिन इस मेमोरियल में ग़ुलाम दस्तगीर का नाम नहीं है, जिनकी मौत बाद में हुई। पर आज इस अनसुने हीरो की दास्तान सबको जाननी चाहिए जिसने अपनी परवाह किये बिना अनगिनत जीवन बचाए।
संपादन - मानबी कटोच