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माँ-पिता गोरे हैं तो हे राम, तुम क्यों काले हुए?

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माँ-पिता गोरे हैं तो हे राम, तुम क्यों काले हुए?

योध्या से बारात चली बारात मिथिला नरेश राजा जनक के द्वार पर पहुँची थी. दोनों पक्ष आगे बढ़ बढ़ कर एक दूसरे का सम्मान कर रहे थे. एक दूसरे का ख़याल रख रहे थे. शिष्टता थी लेकिन मनोविनोद कम था. सहजता कम थी. फिर महिलाओं ने गारियाँ (गालियाँ) गाना आरम्भ किया और पाहुन (दामाद) तो क्या उनके पूरे परिवार को घेरे में ले लिया और छेड़छाड़, हँसी-ठिठोली के वातावरण में सब हल्के हो गए, आत्मीय हो गए. औपचारिकता के बंधन टूट गए. विवाह की तैयारी की सारी थकान उतर गयी.

यह हिन्दू धर्म की ही विशेषता है कि भगवान पूज्य भी है और दोस्त भी. गोपियाँ कृष्ण को उलाहने दे सकती हैं. अब के कान्हा जो आये पलट के, गालियाँ मैंने रक्खी हैं रट के. मिथिला की सब महिलायें सालियाँ बन राम को छेड़ सकती हैं और वो भी ऐसे कि मर्यादा पुरुषोत्तम शर्म से पानी पानी हो जाएँ और कुछ कहते न बने. आज का वीडियो कुछ मज़ेदार बात करनेवाला है - गालियों पर. गालियाँ सम्बन्ध बिगाड़ने के लिए ही नहीं प्रगाढ़ करने का भी माध्यम हैं.

तुमने मुझे जलेबी दी
मैंने कहा धन्यवाद!
तुमने फिर दी गाली
कहा 'समधी तो बन्दर की तरह मिठाई पर झपटता है
पता नहीं समधन का क्या हाल करता होगा'
इस पर सबकी बत्तीसियाँ बाहर झाँकने लगीं
ऐसी मज़ेदार गाली
कि दोनों तरफ़ की बहने, भौजाइयाँ हँस के दुहरी हुईं
बच्चे और किशोर झेंप गए
वृद्धजन आयी हँसी पी गए
उसके बाद तो औरतों ने मानों गलियों की चक्की ही चला दी
सबने सबको छेड़ा, किसी को नहीं बख़्शा गया
शराफ़त काफ़ूर हुई
सोई शरारत जाग उठ्ठी
बाजे तेज़ हुए
मनोविनोद की फुलझड़ियाँ फूटीं
और दोनों परिवार हमेशा के लिए मित्र बन गए

दोस्ती बढ़ाने का जो काम मिठाई नहीं कर सकती
गालियाँ बख़ूबी कर देती हैं.
सबा ने ज़ुबैर को ताना मारा
"कम्बख़्ती की हद है नामुराद, तू मेरे लिए तो कभी पान नहीं लाता"
ज़ुबैर समझ गया कि सबा उससे मोहब्बत रखती है. वो दिन भर ईमेल लिख के मिटाता रहा. आखीर में लिखा "अरे कमीनी आज ही सॉफ़्टवेयर की नौकरी छोड़ कर पान का खेत लगा लेता हूँ." उस दिन से दोनों की नींद पूरी तरह से भाग गयी.

और शीर्षक में भगवान राम का जो क़िस्सा छेड़ा गया था उसे आगे देखिये इस वीडियो में:)

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लेखक -  मनीष गुप्ता

हिंदी कविता (Hindi Studio) और उर्दू स्टूडियो, आज की पूरी पीढ़ी की साहित्यिक चेतना झकझोरने वाले अब तक के सबसे महत्वपूर्ण साहित्यिक/सांस्कृतिक प्रोजेक्ट के संस्थापक फ़िल्म निर्माता-निर्देशक मनीष गुप्ता लगभग डेढ़ दशक विदेश में रहने के बाद अब मुंबई में रहते हैं और पूर्णतया भारतीय साहित्य के प्रचार-प्रसार / और अपनी मातृभाषाओं के प्रति मोह जगाने के काम में संलग्न हैं.


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