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पढ़िए साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित विष्णु प्रभाकर की रचित लघु कथा – फ़र्क!

विष्णु प्रभाकर

हिंदी साहित्य जगत को एक विशाल और समृद्ध खज़ाना सौंपकर यह महान लेखक 11 अप्रैल 2009 को हम सभी को अलविदा कह गया!

विष्णु प्रभाकर (Vishnu Prabhakar) हिन्दी गद्य साहित्य में एक ऐसा नाम है, जो अपनी कालजयी रचनाओं से सुधि पाठकों, समालोचकों व साहित्य-साधकों के मानस-पटल पर अपनी छाप निरन्तर अंकित करते रहे।

1931ई. में अपनी पहली कहानी ‘हिन्दी मिलाप’ में प्रकाशित करवाने से शुरूआत करके कलम के इस अथक साधक ने अपनी साहित्यिक यात्रा में ‘आवारा मसीहा’ के साथ , ‘अर्धनारेश्वर’, ‘धरती अब भी घूम रही है’ जैसे कई उपन्यास, ‘हत्या के बाद’, ‘प्रकाश और परछाइयाँ’, ‘युगे-युगे क्रांति’ जैसे कई नाटक व एकांकी, कई यात्रा वृत्तांत, ‘पंखहीन’ नाम से आत्म कथा जैसी उत्कृष्ट गद्य रचनाओं से हिन्दी साहित्य को समृद्ध किया।

‘पद्म विभूषण’, ज्ञानपीठ का ‘मूर्तिदेवी सम्मान’, ‘साहित्य अकादमी पुरस्कार’, ‘ सोवियत लैण्ड पुरस्कार’ से सम्मानित विष्णु जी का जन्म उत्तरप्रदेश के मुजफ्फरनगर जिले के गांव मीरापुर में हुआ था। अपने दौर के लेखकों में वे प्रेमचंद, यशपाल, जैनेंद्र और अज्ञेय जैसे महारथियों के सहयात्री रहे, लेकिन रचना के क्षेत्र में उनकी एक अलग पहचान रही।

1931 में हिन्दी मिलाप में पहली कहानी दीवाली के दिन छपने के साथ ही उनके लेखन का सिलसिला शुरू हुआ और फिर वह आठ दशकों तक निरंतर सक्रिय रहें।  नाथूराम शर्मा प्रेम के कहने से वे शरत चन्द्र की जीवनी आवारा मसीहा लिखने के लिए प्रेरित हुए जिसके लिए वे शरत को जानने के लगभग सभी सभी स्रोतों, जगहों तक गए, बांग्ला भी सीखी और जब यह जीवनी छपी तो साहित्य में विष्णु जी की धूम मच गयी। कहानी, उपन्यास, नाटक, एकांकी, संस्मरण, बाल साहित्य सभी विधाओं में प्रचुर साहित्य लिखने के बावजूद आवारा मसीहा उनकी पहचान का पर्याय बन गयी। बाद में अ‌र्द्धनारीश्वर पर उन्हें बेशक साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला हो, किन्तु आवारा मसीहा ने साहित्य में उनका मुकाम अलग ही रखा।

हिंदी साहित्य जगत को एक विशाल और समृद्ध खज़ाना सौंपकर यह महान लेखक 11 अप्रैल 2009 को हम सभी को अलविदा कह गया! उन्होंने अपनी वसीयत में अपने संपूर्ण अंगदान करने की इच्छा व्यक्त की थी। इसीलिए उनका अंतिम संस्कार नहीं किया गया, बल्कि उनके पार्थिव शरीर को अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान को सौंप दिया गया।

प्रस्तुत है उनकी एक बहुप्रचलित लघु कथा –

फ़र्क!

उस दिन उसके मन में इच्छा हुई कि भारत और पाक के बीच की सीमारेखा को देखा जाए, जो कभी एक देश था, वह अब दो होकर कैसा लगता है? दो थे तो दोनों एक-दूसरे के प्रति शंकालु थे। दोनों ओर पहरा था। बीच में कुछ भूमि होती है जिस पर किसी का अधिकार नहीं होता। दोनों उस पर खड़े हो सकते हैं। वह वहीं खड़ा था, लेकिन अकेला नहीं था-पत्नी थी और थे अठारह सशस्त्र सैनिक और उनका कमाण्डर भी। दूसरे देश के सैनिकों के सामने वे उसे अकेला कैसे छोड़ सकते थे! इतना ही नहीं, कमाण्डर ने उसके कान में कहा, “उधर के सैनिक आपको चाय के लिए बुला सकते हैं, जाइएगा नहीं। पता नहीं क्या हो जाए? आपकी पत्नी साथ में है और फिर कल हमने उनके छह तस्कर मार डाले थे।”

उसने उत्तर दिया,”जी नहीं, मैं उधर कैसे जा सकता हूँ?” और मन ही मन कहा- “मुझे आप इतना मूर्ख कैसे समझते हैं? मैं इंसान, अपने-पराए में भेद करना मैं जानता हूँ। इतना विवेक मुझ में है।”

वह यह सब सोच रहा था कि सचमुच उधर के सैनिक वहाँ आ पहुँचे। रौबीले पठान थे। बड़े तपाक से हाथ मिलाया।

उस दिन ईद थी। उसने उन्हें ‘मुबारकबाद’ कहा। बड़ी गरमजोशी के साथ एक बार फिर हाथ मिलाकर वे बोल– “इधर तशरीफ लाइए। हम लोगों के साथ एक प्याला चाय पीजिए।”

इसका उत्तर उसके पास तैयार था। अत्यन्त विनम्रता से मुस्कराकर उसने कहा– “बहुत-बहुत शुक्रिया। बड़ी खुशी होती आपके साथ बैठकर, लेकिन मुझे आज ही वापस लौटना है और वक़्त बहुत कम है। आज तो माफ़ी चाहता हूँ।”

इसी प्रकार शिष्टाचार की कुछ बातें हुई कि पाकिस्तान की ओर से कुलांचें भरता हुआ बकरियों का एक दल, उनके पास से गुज़रा और भारत की सीमा में दाखिल हो गया। एक-साथ सबने उनकी ओर देखा। एक क्षण बाद उसने पूछा– “ये आपकी हैं?”

उनमें से एक सैनिक ने गहरी मुस्कराहट के साथ उत्तर दिया– “जी हाँ, जनाब! हमारी हैं। जानवर हैं, फर्क करना नहीं जानते।”

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