शकील बदायूँनी, शायर बनने के लिए जिन्होंने छोड़ दी थी सरकारी नौकरी!

एक वक़्त था जब फ़िल्मी दुनिया एक ऐसे शायर की कलम से सजा हुआ था कि उसके हर गीत, हर ग़ज़ल और हर कव्वाली के बोल आज तक कानों में गूंजते हैं! इस शायर का नाम था शकील बदायूँनी!

एक वक़्त था जब फ़िल्मी दुनिया एक ऐसे शायर की कलम से सजा हुआ था कि उसके हर गीत, हर ग़ज़ल और हर कव्वाली के बोल आज तक कानों में गूंजते हैं!

इस शायर का नाम था शकील बदायूँनी, जिन्होंने ‘चौदहवीं का चांद’, ‘मुगल-ए-आजम’ और ‘मदर इंडिया’ जैसी कालजयी फिल्‍मों और ‘मेरे महबूब’, ‘गंगा-जमुना’ और ‘घराना’ जैसी अपने दौर की सुपरहिट फिल्‍मों के गाने लिखे थे!

उत्तर प्रदेश के बदायूँ क़स्बे में 3 अगस्त 1916 को जन्मे शकील अहमद उर्फ शकील बदायूँनी की परवरिश नवाबों के शहर लखनऊ में हुई। लखनऊ ने उन्हें एक शायर के रूप में शकील अहमद से शकील बदायूँनी बना दिया। शकील ने अपने दूर के एक रिश्तेदार और उस जमाने के मशहूर शायर जिया उल कादिरी से शायरी के गुर सीखे थे। वक़्त के साथ-साथ शकील अपनी शायरी में ज़िंदगी की हकीकत बयाँ करने लगे। 

source – Rekhta

अलीगढ़ से बी.ए. पास करने के बाद,1942 में वे दिल्ली पहुंचे जहाँ उन्होंने आपूर्ति विभाग में आपूर्ति अधिकारी के रूप में अपनी पहली नौकरी की। इस बीच वे मुशायरों में भी हिस्सा लेते रहे जिससे उन्हें पूरे देश भर में शोहरत हासिल हुई। अपनी शायरी की बेपनाह कामयाबी से उत्साहित शकील ने आपूर्ति विभाग की नौकरी छोड़ दी और 1946 में दिल्ली से मुंबई आ गये।

मुंबई में उनकी मुलाक़ात संगीतकार नौशाद से हुई, जिनके ज़रिये उन्हें फिल्मों में अपना पहला ब्रेक मिला! 1947 में अपनी पहली ही फ़िल्म दर्द के गीत ‘अफ़साना लिख रही हूँ…’ की अपार सफलता से शकील बदायूँनी कामयाबी के शिखर पर जा बैठे।

1952 में आई ‘बैजू बावरा’ में लिखा उनका गीत ‘मन तड़पत हरि दर्शन को आज…’ सिनेमा जगत में धर्म निरपेक्षता की मिसाल बन गयी। शकील के लिखे इस भजन को संगीत दिया था नौशाद ने और इसे गाया था महान मुहम्मद रफ़ी साहब ने!

इसके अलावा शकील और नौशाद की जोड़ी ने मदर इंडिया का सुपरहिट गाना ‘होली आई रे कन्हाई रंग बरसे बजा दे ज़रा बांसुरी…’ भी दिया, जो आज तक होली का सबसे सुहाना गीत माना जाता है।

1960 में रिलीज़ हुई ‘मुग़ल-ए-आज़म’ में लिखी गयी शकील की मशहूर कव्वाली ‘तेरी महफ़िल में किस्मत आज़माकर हम भी देखेंगे’ महफ़िलों की जान बन गयी और शकील की कामयाबी पर भी चार चाँद लग गए।

हेमन्त कुमार के संगीत निर्देशन में भी शकील ने कई बेहतरीन गाने दिए जैसे – ‘बेकरार कर के हमें यूं न जाइये’ ‘कहीं दीप जले कहीं दिल’ (बीस साल बाद, 1962) और ‘भंवरा बड़ा नादान है बगियन का मेहमान’, ‘ना जाओ सइयां छुड़ा के बहियां’ (साहब बीबी और ग़ुलाम, 1962)।

अभिनय सम्राट दिलीप कुमार की फ़िल्मों की कामयाबी में भी शकील बदायूँनी के रचित गीतों का अहम योगदान रहा है। इन दोनों की जोड़ी वाली फ़िल्मों में मेला, बाबुल, दीदार, आन, अमर, उड़न खटोला, कोहिनूर, मुग़ले आज़म, गंगा जमुना, लीडर, दिल दिया दर्द लिया, राम और श्याम, संघर्ष और आदमी शामिल है।

शकील बदायूँनी को अपने गीतों के लिये लगातार तीन बार फ़िल्मफेयर पुरस्कार से नवाजा गया। उन्हें अपना पहला फ़िल्मफेयर पुरस्कार वर्ष 1960 में प्रदर्शित चौदहवी का चांद फ़िल्म के ‘चौदहवीं का चांद हो या आफताब हो..’ गाने के लिये दिया गया था।

वर्ष 1961 में प्रदर्शित फ़िल्म ‘घराना’ के गाने ‘हुस्न वाले तेरा जवाब नहीं.’. के लिये भी सर्वश्रेष्ठ गीतकार का फ़िल्म फेयर पुरस्कार दिया गया। 1962 में उन्हें फ़िल्म ‘बीस साल बाद’ में ‘कहीं दीप जले कहीं दिल’ गाने के लिये फ़िल्म फेयर अवार्ड से सम्मानित किया गया।

लगभग 54 वर्ष की उम्र मे 20 अप्रैल 1970 को उन्होंने अपनी अंतिम सांसें ली। शकील बदायूँनी की मृत्यु के बाद नौशाद, अहमद जकारिया और रंगून वाला ने उनकी याद मे एक ट्रस्ट ‘यादें शकील’ की स्थापना की ताकि उससे मिलने वाली रकम से उनके परिवार का खर्च चल सके।

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