किसान : मैथिलीशरण गुप्त !

बाहर निकलना मौत है, आधी अँधेरी रात है, है शीत कैसा पड़ रहा, औ’ थरथराता गात है. तो भी कृषक ईंधन जलाकर, खेत पर हैं जागते, यह लाभ कैसा है, न जिसका मोह अब भी त्यागते

मैथली शरण गुप्त का जन्म 3 अगस्त 1886 को उत्तर प्रदेश के चिरगांव में हुआ था। हिंदी कविताओं की रचना इन्होने ब्रज भाषा की जगह खड़ी बोली में की, जिसे आगे चल कर कई कवियों ने अपनाया। इसे मैथलीशरण गुप्त का साहित्य में सबसे बड़ा योगदान माना गया है। सन 1932 में इन्हें गाँधीजी द्वारा राष्ट्र कवि की संज्ञा प्रदान की गयी । ये 1952-1964 तक राज्यसभा के सदस्य भी मनोनीत हुये। 12 दिसम्बर 1964 को दिल का दौरा पड़ने से गुप्त जी का निधन हो गया।

प्रस्तुत है उनकी महान कृतियों में से एक मानी जाने वाली कविता –

किसान !

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हेमन्त में बहुदा घनों से पूर्ण रहता व्योम है
पावस निशाओं में तथा हँसता शरद का सोम है

हो जाये अच्छी भी फसल, पर लाभ कृषकों को कहाँ
खाते, खवाई, बीज ऋण से हैं रंगे रक्खे जहाँ

आता महाजन के यहाँ वह अन्न सारा अंत में
अधपेट खाकर फिर उन्हें है काँपना हेमंत में

बरसा रहा है रवि अनल, भूतल तवा सा जल रहा
है चल रहा सन सन पवन, तन से पसीना बह रहा

देखो कृषक शोषित, सुखाकर हल तथापि चला रहे
किस लोभ से इस आँच में, वे निज शरीर जला रहे

घनघोर वर्षा हो रही, है गगन गर्जन कर रहा
घर से निकलने को गरज कर, वज्र वर्जन कर रहा

तो भी कृषक मैदान में करते निरंतर काम हैं
किस लोभ से वे आज भी, लेते नहीं विश्राम हैं

बाहर निकलना मौत है, आधी अँधेरी रात है
है शीत कैसा पड़ रहा, औ’ थरथराता गात है

तो भी कृषक ईंधन जलाकर, खेत पर हैं जागते
यह लाभ कैसा है, न जिसका मोह अब भी त्यागते

सम्प्रति कहाँ क्या हो रहा है, कुछ न उनको ज्ञान है
है वायु कैसी चल रही, इसका न कुछ भी ध्यान है

मानो भुवन से भिन्न उनका, दूसरा ही लोक है
शशि सूर्य हैं फिर भी कहीं, उनमें नहीं आलोक है

                    – मैथिलीशरण गुप्त


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