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लेखिका जे. के. रॉलिंग की उपन्यास सीरीज, 'हैरी पॉटर' और इस पर आधारित फिल्म सीरीज के बारे में कौन नहीं जनता। स्कूल के बच्चों को इस सीरीज के किरदार, उनके नाम और तो और डायलॉग तक याद होते हैं।
क्या करें, जादू और रोमांच से भरी हैरी पॉटर की दुनिया है ही इतनी दिलचस्प। साल 1977 में हैरी पॉटर की पहली किताब प्रकाशित हुई थी और साल 2001 में फिल्म सीरीज का पहला भाग रिलीज़ हुआ।
भले ही यह हॉलीवुड फिल्म सीरीज है, लेकिन इसने पूरी दुनिया के लोगों के दिलों को छुआ है। जो बच्चे पहली बार हैरी पॉटर देखते हैं, उनकी मन में तो सचमुच के मैजिक स्कूल की कल्पनाएं आने लगती हैं।
लेकिन 'हैरी पॉटर' से भी 85 साल पहले हिंदी के एक उपन्यास ने भारतीयों को जादू और तिलिस्म से रू- ब-रू कराया था। सिर्फ इतना ही नहीं, इस उपन्यास पर आधारित एक टेलीविज़न धारावाहिक भी बना, जो आज भी लोगों के दिलों में बसा हुआ है।
यह उपन्यास था 'चंद्रकांता,' जिसे बाबू देवकीनंदन खत्री ने लिखा था। इस उपन्यास की तिलिस्मी दुनिया और इसमें होने वाले तरह-तरह के जादू, किसी भी तरह से 'हैरी पॉटर' से कम नहीं हैं। आज की पीढ़ी को शायद ही इस महान उपन्यास और धारावाहिक के बारे में पता हो।
मनोरंजन से भरपूर और रोमांचक होने के साथ, और भी बहुत सी वजहें हैं जो आज भी चंद्रकांता उपन्यास को सबसे अलग बनाती हैं।
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हिंदी साहित्य में 'चंद्रकांता' का बहुत ही खास स्थान है क्योंकि इस उपन्यास ने आधुनिक हिंदी की नींव को मजबूत किया। आज हम जिस स्वरूप में हिंदी को बोलते, पढ़ते और समझते हैं, उसकी शुरुआत 'चंद्रकांता' से हुई।
चंद्रकांता को हिंदी का पहला सबसे ज्यादा बिकने वाला उपन्यास माना जाता है। हिंदी साहित्य के मशहूर इतिहासकार, रामचंद्र शुक्ल के मुताबिक, इस उपन्यास की वजह से आम लोगों ने हिंदी भाषा की किताबें पढ़नी शुरू कीं। शायद कोई यकीन न करे, लेकिन 19वीं शताब्दी के अंत में और 20वीं शताब्दी की शुरुआत में भारत के गैर-हिंदी भाषी प्रान्तों में भी लोगों ने हिंदी पढ़ना सीखा। क्योंकि वे इस उपन्यास को पढ़ना चाहते थे।
देवकीनंदन खत्री: हिंदी के पहले तिलिस्मी लेखक
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बिहार के मुजफ्फरपुर में जन्मे देवकीनंदन खत्री एक समृद्ध परिवार से आते थे। अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद उन्होंने गया में कुछ दिन नौकरी की और फिर बनारस में 'लहरी प्रेस' शुरू की। अपनी प्रिंटिंग प्रेस से उन्होंने हिंदी मासिक पत्रिका 'सुदर्शन' का प्रकाशन आरम्भ किया।
कहते हैं कि खत्री को हमेशा से वन-जंगलों और किलों में घूमना पसंद था। उन्होंने चकिया और नौगढ़ के जंगल ठेकेदारी पर भी लिए। इन बीहड़ जंगलों, यहाँ के ऐतिहासिक खंडरों में घूमते हुए वह कई-कई दिन निकाल देते थे। लेकिन फिर किसी वजह से उनसे ठेकेदारी वापस ले ली गई।
इसके बाद, साल 1888 में उन्होंने 'चंद्रकांता' उपन्यास लिखना शुरू किया। बताया जाता है कि शायद चकिया और नौगढ़ के जंगलों, पहाड़ियों और प्राचीन ऐतिहासिक इमारतों के खंडहरों की पृष्ठभूमि को अपनी कल्पनाओं में शामिल करके उन्होंने इस उपन्यास को लिखा था।
जिस जमाने में खत्री ने अपनी लेखनी शुरू की, तब जादुई, काल्पनिक कहानियां पारसी या फिर उर्दू भाषा में लिखी जाती थीं। हिंदी का प्रयोग उस समय बहुत ही शुद्ध मानक भाषा के रूप में किया जाता था। लेकिन खत्री ने भाषा के नियमों की सीमा से बाहर निकलकर अपने उपन्यास में आम बोलचाल की भाषा को जगह दी।
उन्होंने चंद्रकांता को चार भागों में लिखा, जिनमें हर एक अध्याय को 'बयान' कहा गया है। उन्होंने साल 1888 से 1891 के बीच इसे एक-एक अध्याय करके सीरीज़ के तौर पर प्रकाशित किया। उनके ये अध्याय इतने मशहूर हो गए कि लोग बेसब्री से अगले अध्याय का इंतज़ार करते थे।
बहुत-से लोग उस समय देवनागरी लिपि पढ़ना नहीं जानते थे और इसलिए जिसे हिंदी पढ़ना आता था, वह तेज आवाज़ में बाकी सबको पढ़कर सुनाता था। इसके अलावा, बहुत से लोगों ने हिंदी पढ़ना सीखा। इसलिए भारत में हिंदी पाठकों की संख्या बढ़ाने का सबसे ज्यादा श्रेय देवकीनंदन खत्री को जाता है।
1892 में इन सभी भागों को साथ में, एक उपन्यास के तौर पर प्रकाशित किया गया। 'चंद्रकांता' की ऐतिहासिक सफलता के बाद, खत्री ने 'चंद्रकांता संतति' उपन्यास लिखा, इसके 24 भाग थे और इसे भी पाठकों द्वारा उतना ही पसंद किया गया, जितना कि पहले उपन्यास को।
आखिर क्यों है 'चंद्रकांता' खास?
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हिंदी साहित्य की स्कॉलर, 'फ्रेंसेस्का ओरिसिनी' के मुताबिक चंद्रकांता उपन्यास ने आधुनिक हिंदी के दौर की शुरुआत की। अपनी किताब, Print and Pleasure: Popular Literature and Entertaining Fictions in Colonial North India में उन्होंने लिखा है कि खत्री के समकालीन हिंदी लेखक जो साहित्य लिख रहे थे, उसका उद्देश्य आम लोगों को शिक्षित करना था।
वे अपनी रचनाओं में जिस भाषा का इस्तेमाल करते थे, वह आम पाठकों की भाषा से बिल्कुल अलग थी। क्योंकि सामान्य लोगों की भाषा उनके आस-पास के वातावरण से प्रभावित थी, जिसमें संस्कृत से ज्यादा उर्दू, पंजाबी जैसी भाषाओं के शब्द शामिल थे। इसलिए उस जमाने में हिंदी उपन्यासों को बहुत ही कम पढ़ा जाता था।
साहित्यकारों और आम पाठकों के बीच की इस दूरी को भरने का काम 'चंद्रकांता' ने किया। क्योंकि इसे आम लोगों की भाषा में लिखा गया था। चंद्रकांता के नायक-नायिकाओं और अन्य पात्रों के नाम और उनके बीच की बातचीत से लोग खुद को जोड़ पाते थे।
इसके अलावा, यह उपन्यास लोगों के लिए मनोरंजन का साधन था। लोग अपनी ज़िंदगी के संघर्ष और अंग्रेजों की गुलामी को भूलकर 'चंद्रकांता' की जादुई और तिलिस्मी दुनिया में पहुँच जाते थे। शायद यही वजहें थीं, जो चंद्रकांता, हिंदी साहित्य की एक बेजोड़ कृति बन गई।
साल 1994 में जब चंद्रकांता को एक धारावाहिक के तौर पर लोगों के सामने रखा गया, तब भी इसने लोगों के दिल जीते। आज भी बहुत से लोग हैं जो इस उपन्यास को पढ़ने में और इस धारावाहिक को फिर से देखने में दिलचस्पी रखते हैं।
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इस लॉकडाउन पीरियड में जिस तरह से रामायण-महाभारत का प्रसारण शुरू हुआ है, वैसे ही दूरदर्शन को 'चंद्रकांता' का प्रसारण भी करना चाहिए। इससे हमारी नई पीढ़ी को पता चलेगा कि भारत में जादू की दुनिया हैरी पॉटर और गेम्स ऑफ़ थ्रोन्स से बहुत पहले ही आ चुकी है।
अगर आप 'चंद्रकांता' उपन्यास को पढ़ना चाहते हैं तो इस लिंक पर क्लिक करें। 'चंद्रकांता संतति' का पीडीएफ डाउनलोड करने के लिए यहाँ क्लिक करें!
दूरदर्शन पर प्रसारित हुए चंद्रकांता धारावाहिक की एक झलक:
संपादन - अर्चना गुप्ता