Powered by

Home साहित्य के पन्नो से कबीर दास : वह कवि जो धर्म, जाती और भाषा से परे था, वह शिष्य जो गुरु का मान करना सिखा गया!

कबीर दास : वह कवि जो धर्म, जाती और भाषा से परे था, वह शिष्य जो गुरु का मान करना सिखा गया!

15वीं सदी के मशहूर कवि कबीर कबीर की भाषाएँ सधुक्कड़ी एवं पंचमेल खिचड़ी हुआ करती थी।

New Update
कबीर दास : वह कवि जो धर्म, जाती और भाषा से परे था, वह शिष्य जो गुरु का मान करना सिखा गया!

प भले ही हिंदी साहित्य या हिंदी के लेखकों और कवियों से परिचित हो न हो पर संत कबीर का लिखा, 'गुरु' को समर्पित एक दोहा आप सभी ने ज़रूर पढ़ा या सुना होगा। 15वीं सदी के मशहूर कवि कबीर कबीर की भाषाएँ सधुक्कड़ी एवं पंचमेल खिचड़ी हुआ करती थी। इनकी भाषा में आपको हिंदी भाषा की सभी बोलियों का मिश्रण मिलेगा, जिसमें   राजस्थानी, हरयाणवी, पंजाबी, खड़ी बोली, अवधी तथा ब्रजभाषा सम्मिलित है।

कबीर पढ़े-लिखे नहीं थे। अपनी कविताओं को वे अपने शिष्यों को सुनाते और वे उन्हें लिख देते, इसलिए उनकी कविताओं को कबीर-वाणी (कबीर का कहा हुआ) कहा जाता है।

इन्हीं वाणियों का संग्रह " बीजक " नाम के ग्रंथ मे किया गया, जिसके तीन मुख्य भाग हैं : साखी , सबद (पद ) और रमैनी। 

हम एक ऐसे संत के रूप में पहचानते हैं जिन्होंने हर धर्म, हर वर्ग के लिए अनमोल सीख दी है, जिनमें से उनकी सबसे बड़ी सीख थी 'गुरु के लिए सम्मान' की!

आईये पढ़ते हैं गुरु के लिए लिखे संत कबीर के सबसे मशहूर दोहे और उनकी व्याख्या -

गुरू गोविन्द दोऊ खड़े, काके लागूं पांय।
बलिहारी गुरू अपने गोविन्द दियो बताय।।

गुरू और गोबिंद (भगवान) एक साथ खड़े हों तो किसे प्रणाम करना चाहिए – गुरू को अथवा गोबिन्द को? ऐसी स्थिति में गुरू के श्रीचरणों में शीश झुकाना उत्तम है जिनके कृपा रूपी प्रसाद से गोविन्द का दर्शन करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।

गुरू बिन ज्ञान न उपजै, गुरू बिन मिलै न मोष।
गुरू बिन लखै न सत्य को गुरू बिन मिटै न दोष।।

कबीर दास कहते हैं – हे सांसरिक प्राणियों। बिना गुरू के ज्ञान का मिलना असम्भव है। तब तक मनुष्य अज्ञान रूपी अंधकार में भटकता हुआ मायारूपी सांसारिक बन्धनों मे जकड़ा रहता है जब तक कि गुरू की कृपा प्राप्त नहीं होती। मोक्ष रूपी मार्ग दिखलाने वाले गुरू हैं। बिना गुरू के सत्य एवं असत्य का ज्ञान नहीं होता। उचित और अनुचित के भेद का ज्ञान नहीं होता फिर मोक्ष कैसे प्राप्त होगा? अतः गुरू की शरण में जाओ। गुरू ही सच्ची राह दिखाएंगे।

गुरू पारस को अन्तरो, जानत हैं सब संत।
वह लोहा कंचन करे, ये करि लेय महंत।।

गुरू और पारस के अन्तर को सभी ज्ञानी पुरूष जानते हैं। पारस मणि के विषय जग विख्यात हैं कि उसके स्पर्श से लोहा सोने का बन जाता है किन्तु गुरू भी इतने महान हैं कि अपने गुण ज्ञान में ढालकर शिष्य को अपने जैसा ही महान बना लेते हैं।

आपकी सबसे पसंदीदा कबीर-वाणी कौनसी है, हमें कमेंट में लिखकर ज़रूर बताएं!


यदि आपको इस कहानी से प्रेरणा मिली है या आप अपने किसी अनुभव को हमारे साथ बांटना चाहते हो तो हमें [email protected] पर लिखे, या Facebook और Twitter (@thebetterindia) पर संपर्क करे।