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बचपन में राहुल शर्मा गर्मियों की छुट्टियों में चंडीगढ़ से लगभग तीन घंटे दूर कपूरथला जिले के एक छोटे से गाँव मुस्तफाबाद में जाया करते थे।
राहुल ने द बेटर इंडिया को बताया, “मुस्तफाबाद जाने पर हमें दादा-दादी का खूब प्यार मिलता था। मेरे दादाजी गाँव के सरपंच थे। लाहौर कृषि विश्वविद्यालय से ग्रेजुएशन करने के बाद उन्होंने खेती करने के लिए जमीन खरीदी। वह जमीन पिछले 100 सालों से हमारे परिवार की है।”
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राहुल के पिता बनवारी लाल शर्मा शुरुआत से ही अपने खेती में अपने परिवार का हाथ बटाते रहे। लेकिन नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी कुरुक्षेत्र में फिजिक्स के प्रोफेसर नियुक्त होने के बाद वह शहर चले गए। इस प्रकार राहुल शहर में बड़े हुए और उनकी पढ़ाई-लिखाई भी वहीं हुई।
कैसे बने किसान
राहुल जब छोटे थे तो उन्हें लगता था कि बड़े होने के बाद वो किसी न किसी तरह अपनी जमीन से जुड़े रहेंगे और फिर उन्होंने 18 सालों का अपना आईटी करियर छोड़कर उसी गाँव में जाकर अपने पुश्तैनी खेत में ऑर्गेनिक खेती की शुरुआत की।
उन्होंने यह भी बताया कि आईटी सेक्टर से खेती की तरफ वो कैसे मुड़े, राहुल अलग-अलग स्किल सीखने के अपने शौक के बारे में भी बताते हैं। शायद यही कारण था कि अर्थशास्त्र और सांख्यिकी में स्नातक होने के बावजूद 90 के दशक की शुरुआत में उन्होंने कंप्यूटर में डिप्लोमा भी किया।
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जब वह छुट्टियां मनाने इंडोनेशिया गए तो उनके दोस्त ने उन्हें वहां एक आईटी जॉब के बारे में बताया। राहुल ने न सिर्फ वह जॉब हासिल की बल्कि वे जकार्ता में लगभग 12 सालों तक रहे।
2006 में जब भारत में आईटी सेक्टर का क्रेज बढ़ा तो वह इंडोनेशिया से जॉब छोड़कर भारत आ गए और बेंगलुरु में विप्रो में आठ साल से अधिक समय तक काम किया।
राहुल ने बताया, “आईटी फील्ड में अपने करियर के अंतिम चार सालों में मेरा एकदम मन भर गया था। मैं अपने आप से पूछता रहता था कि मेरा अगला कदम क्या होगा। इस फील्ड में पैसा खूब था लेकिन कई बार मुझे तीन घंटे के प्रजेंटेशन के लिए 18 घंटे की यात्रा करके अमेरिका जाना पड़ता था और जब मैं फैमिली के साथ छुट्टियां मना रहा होता तब भी मुझे अपने साथ लैपटॉप ले जाना पड़ता था। मेरी तबीयत खराब रहने लगी। पैसों से मुझे कोई संतुष्टि नहीं मिल रही थी। मैं कुछ ऐसा करना चाहता था जो सार्थक हो।”
इसके बाद राहुल ने फूड और हेल्थ के बारे में पढ़ना शुरु किया जिसने उनके लिए नए रास्ते खोल दिए।
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आईटी फील्ड छोड़कर खेती की ओर रुख करना काफी मुश्किल था। राहुल को अपनी पत्नी और पांच साल के बेटे के साथ बेंगलुरु में अपना किराए का घर छोड़कर चंडीगढ़ में अपने माता-पिता के घर जाना पड़ा।
परिवार का मिला समर्थन
राहुल कहते हैं, “मेरी पत्नी का चेन्नई से जुड़ाव रहा है। ऐसे में नॉर्थ में बस जाना उसके लिए किसी झटके से कम नहीं था। हम बेंगलुरु में आर्थिक रूप से सुरक्षित थे, लेकिन यहां हर महीने कितने पैसे आएंगे, इसकी कोई गारंटी नहीं थी। ये सोचकर मैं काफी डरा हुआ था। लेकिन मेरी पत्नी ने मुझसे कहा कि आप जो करना चाहते हैं, वो करने से अगर मैं आपको रोकूं तो आप रुक जाएंगे लेकिन शायद आप खुश नहीं रह पाएंगे। इसलिए मेरी खुशी की खातिर वह मान गई।"
राहुल ने 2016 में अपनी नौकरी छोड़ दी और चंडीगढ़ चले गए। वहां से आने के पांच दिनों के भीतर वो मुस्तफाबाद गए और अपना काम शुरू कर दिया। खेती की उनकी पुश्तैनी जमीन, जो किसी को पट्टे पर दी गई थी, केमिकल के प्रयोग से खराब हो गई थी।
राहुल ने सबसे पहले चार-एकड़ खेत की मिट्टी को फिर से ऊपजाउ बनाने की प्लानिंग तैयार की।
आज वह गेहूं, काली चावल, बासमती चावल, मूंग, मसूर और अरहर की दाल, देसी मक्का , चना (काला चना), हल्दी, तिल (तेल के लिए), सरसों , कपास जैसी फसलें उगाते हैं।
राहुल कहते हैं, “जब मैंने शुरुआत की तो कुछ भी ऑर्गेनिक नहीं था। हर पौधे में यूरिया की मात्रा काफी ज्यादा थी जिससे मिट्टी का ऊपजाउपन खत्म हो गया था। मिट्टी में सूक्ष्मजीव, केंचुए और प्राकृतिक खनिज बिल्कुल नहीं थे। मिट्टी को ऊपजाउ बनाने के लिए मैंने किसी रॉकेट साइंस का इस्तेमाल नहीं किया बल्कि उन्हीं पारंपरिक तकनीकों का सहारा लिया जिन्हें हमारे पूर्वज अधिक उपज के लालच में भूल गए थे।“
राहुल की खेती की विधि -
क्रॉप रोटेशन और नाइट्रोजन-फिक्सिंग क्रॉप
क्रॉप रोटेशन मिट्टी के कटाव को कम करने, मिट्टी की उर्वरता और फसल की पैदावार बढ़ाने में मदद करने के लिए एक ही क्षेत्र में अलग-अलग प्रकार की फसलें उगाने का एक तरीका है।
मोनोक्रॉपिंग की तुलना में यह एक बेहतर विकल्प है, यह रोगजनकों और कीटों को कम करता है। ऐसा अक्सर तब होता है जब एक ही प्रजाति की फसल लगातार उगाई जाती है, और विभिन्न जड़ संरचनाओं से बायोमास बढ़ाकर मिट्टी की संरचना और उर्वरता में सुधार कर सकती है।
राहुल ने फसलों की बुआई का अपना तरीका विकसित किया। उन्होंने दलहन से शुरुआत की, जिसकी जड़ें नाइट्रोजन-फिक्सिंग प्रकृति की होती हैं। फसल कटने के बाद उन्होंने फसल के अवशेषों को हरी खाद के रूप में वापस मिट्टी में डाल दिया। इससे मिट्टी की उर्वरता में सुधार हुआ, खासकर बाद के मौसम में बासमती चावल, गेहूं या मक्का जैसी फसलों के लिए यह काफी उपयोगी साबित हुआ।
सिंचाई की प्रणाली
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राहुल बताते हैं कि यह एक मिथक है कि चावल के लिए अधिक पानी की जरुरत पड़ती है। यही कारण है कि फ्लड इरिगेशन का उपयोग करने के खरपतवार बढ़ने से बचाव होता है क्योंकि खेतों से खरपतवार निकालने में किसानों की अलग लागत लगती है।
इस पद्धति का उद्देश्य चावल की पैदावार बढ़ाना है। यह कम पानी और अधिक मेहनत वाली विधि है जिसमें बीजों की रोपाई किसी ख़ास उपकरण के साथ खुद अपने हाथों द्वारा करनी होती है।
हरी खाद
राहुल ने कोई पशु नहीं रखा है, इसलिए उनके पास गोबर की कोई व्यवस्था नहीं है। ऐसे में हरी खाद की तकनीक अपनाकर उन्होंने अपनी मिट्टी को उपजाऊ बनाया। राहुल बताते हैं कि जब वह एक विशेष फसल उगा रहे हों, तो उनकी जमीन का कुछ हिस्सा बाकी रह जाता है, जिसमें वह हरी खाद डालते हैं। एक बार जब फसल का मौसम खत्म हो जाता है, तो कटाई किए गए हिस्से को हरी खाद के साथ बिछाया जाता है, और अगले सीजन में पैदावार बढ़ाने के लिए पहले से तैयार किए गए पैच का उपयोग किया जाता है। सड़ी खाद मिट्टी में नमी और महत्वपूर्ण पोषक तत्वों को बनाए रखने में मदद करता है।
बायोडाइवर्स वाइल्ड पैच- बिना जुताई की खेती
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अपने खेत में जैव विविधता बढ़ाने के लिए, उन्होंने एक वाइल्ड पैच बनाया है जहां वह बिना जुताई की खेती करते हैं। एक एकड़ पैच के इस एक-चौथाई हिस्से में अलग-अलग फलों के पेड़ और झाड़ियां होती हैं जो पक्षियों और कीड़ों को आकर्षित करती हैं जैसे कि मकड़ियों, टिड्डों, लेडी बग्स आदि को।
फुल टाइम आर्गेनिक किसान होने के अलावा, वह एनजीओ, खेती विरासत मिशन और चंडीगढ़ ऑर्गेनिक फार्मर मार्केट के साथ भी जुड़े हैं। वह शहरी खेती को भी बढ़ावा देते हैं और स्कूलों और कॉलेजों में वर्कशॉप भी आयोजित करते हैं। वह कृषि स्टार्टअप के लिए एडवाइजरी सर्विस भी प्रदान करते हैं।
डॉ संजय पुरी पिछले छह महीनों से राहुल के खेत का उपज ले रहे हैं, उन्होंने बताया, “मैंने व्यक्तिगत रूप से राहुल के खेत का दौरा किया है। उपज महंगी हो सकती है, लेकिन इसका स्वाद और ताजगी इसे इस लायक बनाती है। मैं उनसे कई और प्रोडक्ट खरीदने की सोच रहा हूं। ”
एमसीएम डीएवी कॉलेज में स्किल-डेवलपमेंट सेल चलाने वाली गुरविंदर कौर कहती हैं, '' मुझे यह जानकर हैरानी हुई कि हमारे फूड चेन में केमिकल कैसे प्रवेश करते हैं और इसलिए कौशल विकास कार्यक्रम के रूप में मैं इसे अपने कॉलेज में भी चला रही हूं। मैंने कॉलेज की लड़कियों को टिकाऊ कृषि सिखाने का सुझाव दिया, जो शायद सबसे पुराना कौशल है। हमारा आगामी सिद्धांत यही था। पिछले दो वर्षों के बाद से, राहुल ने हमारे छात्रों के साथ मिलकर एक वेजिटेबल पैच बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। हम मौसमी सब्जियों को उगाते हैं। हम उनके खेत के कुछ उत्पादों जैसे गेहूं और हल्दी का भी सेवन करते हैं। ”
राहुल कहते हैं, "हम सभी के पसंदीदा दर्जी, स्टाइलिस्ट और डिजाइनर हैं लेकिन हममें से किसी के पास हमारे पसंदीदा किसान नहीं हैं! हालांकि मेरा अपना किचन, मार्केट पर 100 % निर्भर नहीं है, मैं आर्गेनिक किसानों के साथ जुड़कर उन चीजों को हासिल करता हूं जिन्हें मैं अपने खेत में नहीं उगा पाता। इसलिए मैं लोगों से आर्गेनिक किसानों की मदद करने की अपील करता हूं।''
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वे कहते हैं, “यदि आपके पास अपनी जमीन है, तो आप किस चीज का इंतजार कर रहे हैं? अगर आप करना चाहते हैं तो संकोच किस बात का, कहीं से भी शुरू करें। यहां तक कि अगर यह आपकी बालकनी में एक पॉट और टमाटर के बीज से शुरु कर सकते हैं, जैसे मैंने किया था, एक रात में क्रांति नहीं होती हैं; एक कदम आगे बढ़ाने से ही शुरुआत होती है।”
राहुल से संपर्क करने के लिए आप उन्हें [email protected] पर मेल कर सकते हैं।