Placeholder canvas

अनाथ आश्रम में पली-बढ़ी दिव्यांग शालू, अब स्पेशल ओलिंपिक में करेंगी भारत का प्रतिनिधित्व!

पंजाब के अमृतसर में स्थित अखिल भारतीय पिंगलवाड़ा चैरिटेबल सोसाइटी के अनाथ-आश्रम में पली-बढ़ी 23 वर्षीय शालू एक बेहतरीन वेटलिफ्टर हैं और आगामी स्पेशल ओलिंपिक खेलों में भारत का प्रतिनिधित्व करेंगी। शालू एक दिव्यांग लड़की हैं और वे ठीक से बोल नहीं पाती हैं, पर फिर भी उनके जज़्बे और हौंसले में कोई कमी नहीं है।

19 फ़रवरी 2000 की सर्द सुबह, पंजाब के अमृतसर में स्थित अखिल भारतीय पिंगलवाड़ा चैरिटेबल सोसाइटी के दरवाज़े पर पुलिस एक बच्ची को लेकर आई। यह बच्ची ठीक से कुछ बता नहीं पा रही थी और उसके साथ कोई भी नहीं था। सोसाइटी की एक स्वयंसेवक, पद्मिनी ने इस बच्ची की जिम्मेदारी ली, क्योंकि यह सोसाइटी बहुत-से अनाथ और बेसहारा बच्चों को आसरा देती है।

उस दिन से लेकर आज तक इस बच्ची की पूरी जिम्मेदारी पद्मिनी और इस सोसाइटी ने उठाई है। पद्मिनी बताती हैं, “हमने बहुत कोशिश की, कि उसके माता-पिता के बारे में कुछ पता चल सके, पर यह नहीं हो पाया। हमने उसे ‘शालू’ नाम दिया।”

पद्मिनी आगे बताती हैं कि शालू के साथ उन्हें काफ़ी मेहनत करनी पड़ी। शुरू में उसे संभालना थोड़ा मुश्किल था, पर फिर वह सबके साथ घुलने-मिलने लगी। आज शालू की उम्र 23 साल है और अभी भी वह ढंग से नहीं बोल पाती है। पर आज वह बेहतरीन पॉवरलिफ्टर है और 14 मार्च से 21 मार्च तक अबू धाबी में होने वाले विशेष ओलंपिक विश्व खेलों में भारत का प्रतिनिधित्व करने की तैयारी कर रही है।

शालू भले ही एक दिव्यांग बच्ची है, पर इस सोसाइटी और पद्मिनी ने उसकी क्षमताओं को खेल और एथलेटिक्स में दिशा दी। बचपन से ही शालू स्पोर्ट्स में आगे रही। हालांकि, यहाँ भी कई तरह की चुनौतियाँ थीं, पर हर एक परेशानी से लड़कर शालू ने अपनी पहचान बनाई है। पिछले कई सालों में अपने खेल और एथलेटिक्स में अच्छे प्रदर्शन के चलते शालू ने कई गोल्ड और सिल्वर मेडल जीते हैं।

पिंगलवाड़ा के इस अनाथ-आश्रम में शालू के आलावा और भी 223 बच्चे रहते हैं। यह सोसाइटी हर एक बच्चे के जीवन को संवार कर उसे एक नयी पहचान दे रही है।

शालू और पद्मिनी

अब शालू भारत का प्रतिनिधित्व आगामी स्पेशल विश्व ओलिंपिक में करेगी। यह विशेष ओलिंपिक प्रोग्राम दुनियाभर के दिव्यांग खिलाड़ियों को एक साथ लाकर उनकी क्षमता और प्रतिभा को वैश्विक स्तर पर पहचान देने की एक कोशिश है।

शालू ने साल 2012 में पॉवरलिफ्टिंग शुरू की, पर कुछ ही महीने में उसकी दिलचस्पी चली गयी। हालांकि, उसके कोच ने उसे प्रेरित करने के काफ़ी प्रयास किये, लेकिन शालू फिर फुटबॉल खेलने लगी। कई महीने तक वह फुटबॉल पर अपना सारा समय देती थी। फिर एक दिन मैच में उसे फ़ाउल मिला और इस पर उसे बहुत गुस्सा आया।

शालू ने उसी दिन फुटबॉल छोड़ दी और अपना गुस्सा ज़ाहिर करने के लिए पॉवरलिफ्टिंग करने लगी। शालू के कोच ने उसके गुस्से को सही दिशा दी और शालू को इस खेल में और भी अच्छा करने के लिए प्रेरित किया। तब से पॉवरलिफ्टिंग ही शालू के लिए सब कुछ बन गया।

पद्मिनी का कहना है कि शालू ओलिंपिक के लिए कड़ी-मेहनत कर रही है और उन्हें उम्मीद है कि वह देश के गोल्ड ज़रुर जीतेगी। हालांकि, शालू पर हार या जीत का कोई भी दबाव नहीं है और अभी वह अपनी पहली हवाई यात्रा के लिए उत्साहित है। शालू फ़िलहाल सिर्फ़ 4 शब्द बोलती है- शालू, इंडिया, गोल्ड और माँ (वह पद्मिनी को माँ बुलाती है)

द बेटर इंडिया इस युवती के हौंसले और जज़्बे को सलाम करता है और हमें पूरा विश्वास है कि शालू अपनी ज़िन्दगी में नए मुकाम हासिल करेगी।

मूल लेख


यदि आपको इस कहानी से प्रेरणा मिली है या आप अपने किसी अनुभव को हमारे साथ बांटना चाहते हो तो हमें hindi@thebetterindia.com पर लिखे, या Facebook और Twitter पर संपर्क करे। आप हमें किसी भी प्रेरणात्मक ख़बर का वीडियो 7337854222 पर भेज सकते हैं।

We at The Better India want to showcase everything that is working in this country. By using the power of constructive journalism, we want to change India – one story at a time. If you read us, like us and want this positive movement to grow, then do consider supporting us via the following buttons:

X