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लद्दाख के सुदूर गाँव के उन १०० उत्साही बच्चों के लिए वो तोहफा लेकर आई थी -१५०० किलो स्कूल का सामान जिसे माइनस २० डिग्री के तापमान पर और ३ माउंटेन पास (पहाड़ी में से निकलते रस्ते) को पार कर, २५ घोडो पर लाद कर लाया गया था। मिलिए, सुजाता साहू से जो शिक्षा को दिल्ली से लेह तक लेकर आई है।
सुजाता अमूमन बादलों के बीच चल रही थी, वो अकेले ही लद्दाख में हाड कंपा देने वाली ठण्ड में ट्रैकिंग का आनंद ले रही थी। तभी कुछ ऐसा हुआ जिसने हमेशा के लिए उसकी ज़िन्दगी बदल दी ।
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"मैं ऊंचाई से लडती.. अकेली चढ़ती जा रही थी। आसपास पहाड़ों के अलावा कोई भी नही था। अचानक मैंने २ स्थानीय औरतों को दूसरी तरफ जाते देखा। उनसे मैंने जो सुना उस से मेरे होश ही उड़ गये। ये दोनों औरतें शिक्षिकाये थीं और स्कूल से वापस लेह लौट रही थी (जिसमे डेढ़ दिन तक पैदल चलना पड़ता और किसी आती हुई गाडी से कुछ घंटो तक लटककर सफर भी करना पड़ता)। उनके सफर का मकसद? वो लेह जा रही थी ताकि वो मिड डे मील का सामान और बच्चों की यूनिफार्म ला सके। जिस कर्तव्यपरायणता और सरलता से उन्होंने अपनी इस 'अन्य जिम्मेदारी' को उठाया था, उसने मुझे चकित कर दिया।"
सुजाता के लिए भी पढाना कोई नया काम नही था। अमेरिका में एक सफल तकनीशियन रह चुकी सुजाता ने अपनी बच्चों को पढ़ाने की लगन के कारण, दिल्ली के श्री राम स्कूल में पढ़ाना शुरू कर दिया था। पर दिल्ली एक बड़ा शहर था। यहाँ लद्दाख में- "मैंने छोटे छोटे स्कूल देखे जहाँ मुठ्ठीभर बच्चे आते थे पर उनके परिवार और वो बच्चे पढाई को लेकर बहुत उत्साहित थे।"
“वो जिन स्कूलों में जा रहे थे वहां बमुश्किल छत थी और उन्हें अंग्रेजी पाठ्यक्रम के कारण काफी दिक्कत आ रही थी। लेकिन तमाम दिक्कतों के बाद भी वो पूरे संयम, शांति और ख़ुशी से पढाई कर रहे थे। इसी बात से प्रेरित होकर मैंने उन लोगों की पढ़ाई के लिए कुछ करने का सोचा।"
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सुजाता ने दिल्ली वापस आकर अपने पति संदीप साहू से बात की, जो खुद भी ट्रैकिंग करते हैं और उन्होंने ही सुजाता को लद्दाख जाने के लिए प्रोत्साहित किया था। “बाद में सर्दियों में जब पारा -१५ डिग्री तक पहुँच गया था तब मैं अपने पति और हमारी एक दोस्त डावा जोरा के साथ एक स्कूल गयी, जो लिंग्शेद गाँव में था। वहां पहुँचने के लिए हमें ३ दिन तक ट्रैकिंग करनी पड़ी थी और वो भी १७००० फुट की उंचाई पर। जब हम वहां पहुचे तो बच्चे लाइन में खड़े होकर हमारा इंतज़ार कर रहे थे। हम २० से भी अधिक घोड़ों और गधों पर किताबें, कपडे, स्पोर्ट्स का सामान और कई चीज़ें लेकर गये थे। यहाँ के लोग कभी बाहर नही जा पाते और उन्हें पहाड़ों के अलावा बाहरी दुनिया का कुछ भी पता नही होता। “
“मुझे याद है जब मैं बच्चों के साथ बैठी थी और सोच में पड़ी हुई थी कि वे किताब में लिखी हुई उन चीज़ों को कैसे समझ पाएंगे, जो उन्होंने कभी देखी ही नहीं थी। कई फल और सब्जियां, स्ट्रीट्लाईट, बिल्डिंग, एलीवेटर, बहुत सारे पशु-पक्षी, कारें, ट्रेन, दूसरी जगहों के लोग, बिजली, टीवी, दुकानें, विद्युत उपकरण और भी न जाने क्या क्या। मैं हैरान थी, परेशान थी पर कहीं न कहीं उनकी इस सरलता और सादगी भरे जीवन से प्रभावित भी थी। बस यहीं वो क्षण था जब '17000 ft Foundation' (१७००० फुट फाउंडेशन) का जन्म हुआ।”
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“इसका नाम हमने पहाड़ी से निकलते उस रास्ते के नाम पर रखा था, जिसे लिंग्शेद पहुँचने के लिए हमे पार करना पडा था। फिर हम तीनो ने १७००० फुट फाउंडेशन की स्थापना करने का सोचा।"
लेकिन लद्दाख में काम करने के बारे में सोचना और वास्तव में वहां काम करना- दो बहुत अलग चीज़ें हैं। यहाँ बहुत सारी चुनौतियां हैं, जैसे कि उंचाई, मौसम, खाइयाँ और ऐसी छोटी जगहों से जुडी आम मुश्किलें। लद्दाख के लोगों का कहना था कि वो लोग पागल हैं, जो उन गांवों तक पहुचने का सोच रहे हैं। “इस जगह में एक मॉडल डालने में हमें एक साल लग गया जो काम भी करे, प्रभावी भी हो और लंबी अवधि के लिए भी हो। हमारा सबसे बड़ा यूरेका पल तब आया था जब हमें अक्षरा फाउंडेशन, कर्नाटक शिक्षा मंच का प्रौद्योगिकी मंच मिला था जिसने स्कूलों की निगरानी के लिए स्थानीय प्रशासन को सक्षम करने के लिए एक नक्शे में कर्नाटक के सभी स्कूलों को डाल दिया है।
“हमें लगा कि हम भी इसी तरह लद्दाख के सभी स्कूलों को नक़्शे में डाल सकते हैं, ताकि सभी पर्यटकों और ट्रैकिंग करने वालों को उन्हें ढूँढने में आसानी हो और वो यथासंभव मदद कर सकें।”
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“इस आईडिया से हमारे मिशन को हरी झंडी मिल गयी। शुरुआत में बहुत मुश्किले आई, पर जब हमें प्रथम फाउंडेशन ने २०००० किताबें और स्कॉलैस्टिक इंडिया ने १०००० किताबें दान में दी तब हमे यकीन हो गया कि हम आगे बढ़ सकते हैं।
तो आखिर 17000 फीट फाउंडेशन करती क्या है?
उनका मुख्य केंद्र बिंदु लद्दाख की जनजातियों को बेहतर मौके दिलाना है जिस से उनकी बेहतर ज़िन्दगी की तलाश में शहरों की ओर पलायन की चाह को कम किया जा सके। “हम लोग गाँव के लोगों की ज़िन्दगी बदलने में प्रयासरत हैं। हमारे प्रोग्राम यहाँ की शिक्षा व्यवस्था को बेहतर बनाने में लगे हैं और साथ ही साथ यहाँ के युवा को पैसे कमाने में मदद करते हैं ताकि वो लोग अपने गाँव की प्रगति में योगदान दे सकें।"
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फाउंडेशन कुछ इस तरह काम करती है :
MapMySchool (मैप माय स्कूल) एक ऐसी टेक्नोलॉजी है जिस से लद्दाख के सुदूर इलाको में स्थित स्कूल बाहरी दुनिया से संपर्क स्थापित कर सकते हैं और ट्रेकर्स और टूरिस्ट्स अपना योगदान दे सकते हैं। फाउंडेशन ने सफलता पूर्वक लद्दाख के १००० स्कूलों को नक़्शे में डाल दिया है।
The Yountan Project (यौन्तन प्रोजेक्ट) स्कूलों की शिक्षा में सुधार लाने में प्रयासरत है। इसकी टीम पुस्तकालय स्थापित करती है और समय समय पर स्कुलो में पढने के प्रोग्राम करती है। वो स्कूल के इन्फ्रास्ट्रक्चर को सुधारते हैं और प्लेग्राउंड और फर्नीचर वगैरह की व्यवस्था करते हैं।
“हम हर साल सैकडों शिक्षकों को पढाने के नए तरीके सिखाते हैं और स्कूल में बच्चों के सीखने की क्षमता को सुधारने में उनकी मदद करते हैं। हमने सफलतापूर्वक १०० पुस्तकालय स्थापित किये हैं ,१५ स्कूलों के बुनियादी ढाँचे को बेहतर बनाया है और ५०० से भी अधिक शिक्षकों को ट्रेन किया है। हमारे लाइब्रेरी प्रोग्राम में ३०० से अधिक स्कूल शामिल हैं।"
सुजाता कहती है।
Voluntourist@17000ft(वोलुन्टूरिस्ट एट १७००० फीट) एक तरीका है जिस से बाहर के लोग फाउंडेशन की मदद कर सकते हैं। इसके द्वारा पर्यटक अलग रास्ते पर चल कर फाउंडेशन के प्रोग्राम का हिस्सा बन सकते हैं और छुट्टियों में किसी भी स्कूल में सहायता कर सकते हैं। वोलुन्टूरिजम १७००० फुट के लिए पैसे भी इकठ्ठा करती है। "हमारे पास १० दिन,१६ दिन और एक महीने के प्रोग्राम हैं। हमने अभी तक १५० वोलुन्टूरिस्ट को ६० गाँवो के स्कूलों में भेजा है।" –सुजाता कहती है।
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सुजाता को लगता है कि १७००० फाउंडेशन तो अभी बस हिमशिखर को छुआ भर है और आगे उन्हें बहुत कुछ करना है।
“कारगिल के बाद हम और भी इलाकों तक पहुंचना चाहते हैं, जो अलग थलग हैं पर वहां पर्यटन विकसित किया जा सकता है। खासकर लाहौल स्पीती जैसी जगहें और उत्तराखंड, सिक्किम और उत्तरपूर्व के कुछ सुदूर इलाके हैं।"
“हमारा कारगिल प्रोजेक्ट हमारा पहला भौगोलिक विस्तार था, जो कि अप्रैल २०१५ में शुरू हो गया था। और चूँकि हम इस इलाके के २०० गांवों में मौजूद हैं, इसलिए हम सुदूर गाँवो को पैसे कमाने में मदद कर सकते हैं और साथ ही साथ युवाओं को इस लायक बना सकते हैं कि वो अपने गाँव की प्रगति में योगदान दे सकें।”
17000 फीट फाउंडेशन के बारे में और अधिक जानने के लिए आप उनकी वेबसाइट पर जा सकते है।