50 साल पहले इस गृहिणी ने शुरू किया था कंस्ट्रक्शन मज़दूरों के बच्चों के लिए फ्री मोबाइल क्रेच!

भारत के हर बच्चे को अच्छा और सुखमय बचपन मिले, इस सपने को लिए मोबाइल क्रेचस, 'चाइल्ड फ्रेंड्ली साइट्स'(बच्चो के अनुकूल साइट) के अपने मिशन को पूरा कर रहा है।

यदि मैं आपसे एक बच्चे की कल्पना करने को कहूँ, तो आपको क्या नज़र आएगा?

ज़ाहिर है आप कहेंगे, एक हँसता, खिलखिलाता हुआ चेहरा, एक उर्जा से भरी हुई हँसी, भविष्य के सपनों से भरी हुई दो आँखें और एक चिंतामुक्त जीवन।

पर यदि यह कल्पना एक ज़मीन पर पड़े हुए, धूल मिट्टी से भरे, दूध के लिए बिलखते बच्चे में बदल जाए तो?

देश के हज़ारो निर्माण कार्य से जुड़े मज़दूरो के बच्चों के लिए कड़वा ही सही पर यही सच है। ये बच्चे ऐसे ही धूल मिट्टी से भरा बचपन जीने के लिए मजबूर है। और इन बच्चों के माता-पिता भी ग़रीब और लाचार होने के कारण इन्हें ऐसा ही जीवन दे सकते हैं। ऐसे में इन बच्चों की देखभाल कैसे हो? कैसे संवारा जाए इनके फूल से बचपन को?

भारत के हर बच्चे को अच्छा और सुखमय बचपन मिले, इस सपने को लिए मोबाइल क्रेचस, ‘चाइल्ड फ्रेंड्ली साइट्स'(बच्चो के अनुकूल साइट) के अपने मिशन को पूरा कर रहा है।

इस मिशन का मूल आधार कंस्ट्रक्शन (निर्माण कार्य) के साईटों पर मज़दूरो के बच्चों की हर तरह से देखभाल करना है। इन मज़दूरो के बच्चों को स्वस्थ तथा हँसता-खेलता बचपन देना ही इसका उद्देश्य है।

‘मोबाइल क्रेचस’ मीरा महादेवन द्वारा 1969 में दिल्ली में इसी भावना के साथ शुरू किया गया था, कि हर बच्चे को स्वास्थ, शिक्षा तथा सुरक्षा का मौलिक अधिकार होना चाहिए। मीरा, जो उस वक़्त एक गृहणी थी, एक निर्माण कार्य स्थल के पास से गुज़र रही थी। तब उनका सामना एक ऐसे ही कड़ी धूप मे, ज़मीन पर लेटे, धूल मिट्टी से सने हुए बच्चे से हुआ।

अगले ही दिन मीरा ने वहाँ एक टेंट लगाया तथा कुछ लोगों की मदद से अपना पहला मोबाइल क्रेच (चलता फिरता पालना घर) खोला।

यही से एक सामाजिक आंदोलन की शुरूवात हुई जिसका सिद्धांत था – ‘बचपन मायने रखता है’!

मीरा महादेवन

करीब तीन दशक तक सिर्फ़ एक संस्था के रूप मे काम करता मोबाइल क्रेचस साल 2007 में तीन विभागो मे बँटा- मोबाइल क्रेचस (दिल्ली), मुंबई मोबाइल क्रेचस और तारा मोबाइल क्रेचस (पुणे)। मुंबई मोबाइल क्रेचस की एक सदस्या, देवीका महादेवन, इस मुहीम से गत पाँच वर्षो से जुड़ी हुई है।

संस्था की पूर्व सीईओ ने बताया, “मेरी दादी, श्रीमती रुक्मिणी महादेवन चाहती थी, कि यह संस्था मुंबई मे भी शुरू हो। उन्होंने मुझे और मेरे पिता को भी इसमें शामिल कर लिया। यह मुहीम इसीलिए इतना ख़ास है क्यूंकि देश मे इस तरह की और कोई संस्था नहीं है, जो इन प्रवासी मज़दूरो के बारे में सोचे। इन मज़दूरो की परेशानियो को हमेशा से ही टाला गया है। पर अब, जब देश के हर बच्चे को पढ़ने-लिखने का अधिकार है और 6 साल से ऊपर की आयु के बच्चों का स्कूल जाना अनिवार्य है, तब हमें लगता है कि हम इन बच्चों के लिए एक बेहतर भविष्य बनाने का माध्यम बन सकते हैं। हमारी इस मुहीम को पूरा करने के लिए हमने एक और पहल की। हम इन साइट्स पर काम कर रही मज़दूर महिलाओ को टीचर बनने की ट्रेनिंग देने लगे। आज मुंबई  मे हमारे 28 केंद्र हैं, जिनमें 40% टीचर्स इन्हीं कंस्ट्रक्शन साइट्स से हैं। हम इन्हें काम के दौरान ही 11 महीने का प्रशिक्षण देते हैं।”

आयु उपयुक्त शिक्षण

‘बचपन बचाओ’ के सिद्धांत को लिए शुरू किए गये मोबाइल क्रेचस में एक पालनाघर को भी व्यापक तौर पर विकसित किया गया, जिसमें बच्चों के शारीरिक, मानसिक तथा सामाजिक ज़रूरतो की पूर्ति होती है। इस तरह से प्रवासी मज़दूरो के बच्चों के लिए देश के प्रथम अर्ली चाइल्ड केयर एजुकेशन (ए.सी.सी.ए ) की नींव रखी गयी। पिछले चार दशको से यह संस्था इन बच्चों के अधिकारों को उचित न्याय देने के लिए अभिभावको, निर्माण उद्योगियो, मज़दूर संगठनो एवं सरकारी और ग़ैरसरकारी संस्थाओ के साथ मिलकर काम कर रही है।

देवीका ने बताया कि तीन साल से कम आयु के बच्चों के लिए संस्था एक ख़ास कार्यक्रम चलाती है, जिससे उन्हे एक स्वस्थ बचपन मिले। इसके अलावा कई शैक्षणिक गतिविधियाँ तथा स्वास्थवर्धक जीवन जीने की कला भी सिखाई जाती हैं। एक उपयुक्त आयु के बाद इन बच्चों को नज़दीकी सरकारी स्कूलों मे भी भेजा जाता है। एक सर्वेक्षण के अनुसार इस संस्था के एक केंद्र मे करीब 17 राज्यो के बच्चे एक साथ थे। ऐसे मे भाषा एक बहुत बड़ी चुनौती के रूप मे सामने आया। लेकिन अपने शुरूवाती दौर के शिक्षण मे होने की वजह से इन बच्चों ने इस चुनौती को भी पार कर लिया।

मोबाइल क्रेचस यह मानते हैं कि शिक्षण का काम जन्म से शुरू होकर स्कूल अथवा उच्च विद्यालय तक निरंतर चलता है। एक बच्चे के जीवन को सशक्त बनाता है। साल 2007-08 मे इस संस्था ने 5000 बच्चों का जीवन सँवारा, 2008-09 में 5500 का और 2009-10 में यह आँकड़ा 6000 तक पहुँच गया। देवीका एक उज्वल भविष्य की कल्पना करते हुए, इस मुहीम को और आगे से आगे बढ़ाना चाहती हैं। इसके साथ ही वे सरकारी संस्थाओ के साथ मिलकर इस मुहीम को सफ़ल बनाना चाहती हैं। कंस्ट्रक्शन साइट्स के मज़दूरो के बच्चों को बेशक एक आम बच्चे के मुक़ाबले ज़्यादा मुसीबतों से गुज़रकर मंज़िल मिले, पर उनकी मंज़िल उन्हे ज़रूर मिलनी चाहिए।

मोबाइल क्रेचस की इस पहल को हमारा सलाम, जिसके कारण आज इन बच्चों का भविष्य अब सुरक्षित हाथों में है।

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मूल लेख श्रेय – उन्नति नारंग

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