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घूम-घूमकर गाँवों में बायोगैस प्लांट लगवा रहीं हैं पटना की आकांक्षा, कई घरों को किया रौशन

आकांक्षा सिंह का जन्म भले ही शहर में हुआ हो लेकिन वह ग्रामीण इलाकों में मौजूद लोगों के तमाम प्रकार के दुःख व दर्द को अच्छी तरह से समझती हैं। लेकिन गाँव के लोगों की समस्याओं का एहसास उन्हें शहर बैठे ही नहों हो गया बल्कि वह जमीनी स्तर पर गईं और नज़दीक से उन्होंने इसे देखा और महसूस किया।

2014 में टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज (TISS) से सोशल इंटरप्रेन्योरशिप में मास्टर्स करने के बाद आकांक्षा इटर्नशिप करने मध्य प्रदेश के झाबुआ जिले में गईं।

उन्होंने द बेटर इंडिया को बताया कि उस इंटर्नशिप ने उनकी आंखे खोलने का काम किया। आकांक्षा बताती हैं, “मैं वहाँ दो हफ्ते रही और देखा कि किसी भी घर में न तो शौचालय है और न ही वहाँ ठीक से बिजली आती थी। इसका मतलब था कि महिलाओं को रात होने से पहले खाना बना लेना पड़ता था क्योंकि तब तक उनके पति का खेतों पर काम खत्म हो जाता था।“

इस अवधि के दौरान, उन्होंने इस क्षेत्र में कई सामाजिक और पर्यावरणीय मुद्दों पर भी ध्यान दिया। वहाँ महिलाएँ अभी भी गोबर के उपलों का उपयोग कर खाना बना रही थीं और पूरा परिवार नियमित रूप से खतरनाक धुंए में सांस ले रहा था।

आकांक्षा सिंह

इसके अलावा उस इलाके के किसान केमिकल वाले खाद और कीटनाशकों पर बहुत ज़्यादा निर्भर थे। आकांक्षा कहती हैं कि वर्षों से केमिकल वाले खाद और कीटनाशकों के इस्तेमाल ने मिट्टी में पीएच स्तर को गड़बड़ कर दिया था और इस कारण इसकी उर्वरता प्रभावित हुई थी। इसके अलावा, गाँव वालों का प्राथमिक जल स्रोत, यानी गाँव के तालाब की भी ठीक से देखरेख नहीं की गई थी और इसका कारण जागरुकता की कमी थी। रसोई से बायोडिग्रेडेबल कचरे के लिए कोई उचित प्रबंधन नहीं था। अक्सर ग्रामीण उसी तालाब में कचरा फेंका करते थे, जहाँ से घरेलू कामों के लिए पानी लिया जाता था। इसके अलावा ग्रामीण अपने पशुओं को धोने के लिए भी इसी तालाब का इस्तेमाल करते थे।

वहीं जमा हुए बायोडिग्रेडेबल कचरे से मच्छर पैदा होते थे जिससे परिवार के स्वास्थ्य और पशुधन को हानि पहुंचती थी। मच्छरों से निपटने के लिए किसान चावल की भूसी जलाते थे और इस तरह एक अस्वास्थ्यकर जीवन शैली का चक्र चल रहा था।

आकांक्षा कहती हैं, “इन सभी मुद्दों ने मुझे काफी प्रभावित किया। ग्रामीण भारत के लिए विद्युतीकरण योजनाएं थीं, लेकिन यह क्षेत्र एक स्पष्ट उदाहरण था कि योजनाएँ प्रभावी रुप से लागू नहीं हुई थी। खाद और कीटनाशकों के लिए गाँव वाले निगमों को भुगतान कर रहे थे जिसका प्रभाव उनकी जेब पर पड़ रहा था। इससे उनकी आजीविका बिगड़ रही थी। मैंने महसूस किया कि क्यों किसान बाहरी एजेंटों को भुगतान करें जबकि वह खुद अपने लिए बिजली बना सकते हैं और इससे वह काफी दूसरे मुद्दे भी सुलझा सकते हैं।”

और इसी तरह  बायो- इलेक्ट्रिसिटी का विचार आया।

लोगों के जीवन में रोशनी ला रहीं आकांक्षा

आकांक्षा कहती हैं, “ग्रामीण इलाकों में अधिकांश लोग मवेशी पालन करते हैं, जो बायो- इलेक्ट्रिसिटी के दायरे को बहुत अधिक बढ़ाता है। एक बायोगैस प्लांट आसानी से खाद और बायोडिग्रेडेबल कचरे का उपयोग करके पूरे समुदाय को बिजली उपलब्ध करा सकता है। इसके अलावा, प्लांट से मिलने वाले गैस से महिलाओं को रसोई में मदद मिल सकती है। इससे भी खास बात यह है कि किसान उप-अपशिष्ट जिसे घोल या कर्दम कहा जा सकता है, उसका उपयोग जैव उर्वरक के साथ-साथ जैव कीटनाशक की तरह भी कर सकते हैं।”

इसी विचार के साथ ही स्वयंभू इनोवेटिव सल्शयून प्राइवेट लिमिटेड हुई। स्वंयभू बायोइलेक्ट्रिसिटी के माध्यम से गरीबी से जूझ रहे किसान परिवारों की ज़िंदगी को रोशन करने की एक परियोजना है। अपनी महत्वाकांक्षी योजना को साकार करने के लिए, आकांक्षा ने इसे अपने गृह राज्य बिहार में चलाने का फैसला किया।

आकांक्षा बताती हैं, “मैंने समस्तीपुर का इलाका चुना, जहाँ 50 घरों का एक दलित समुदाय रहता है। ये लोग गरीबी में जीवन यापन कर रहे थे और इलाके में बिजली भी नहीं थी।” आकांक्षा को यह सुझाव, कॉलेज में उनकी रूममेट रहीं  दोस्त ने दी थी जो वहाँ प्रखंड विकास अधिकारी थी। अकांक्षा बताती हैं कि यह एक कठिन यात्रा थी, लेकिन इसका परिणाम यह है कि आज इन परिवारों के घरों में बिजली है और इसके लिए उन्हें प्रति माह 60 रुपये की मामूली राशि का भुगतान करना पड़ता है।

अकांक्षा को काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ा। उन्हें चार से पाँच महीने का समय गाँव वालों को योजना पर विश्वास दिलाने और स्वीकार कराने में लगा।

सीतामढ़ी के ग्रामीणों के साथ बायो गैस प्लांट पर मौजूद आकांक्षा

उस समय को याद करते हुए अकांक्षा कहती हैं कि लोगों को बायोगैस प्लांट के बारे में जानकारी थी लेकिन उन्हें लगता था कि बिजली के लिए इतना भुगतान करने से उनकी आय पर प्रभाव पड़ेगा जो पहले से ही कम थी। वह कहती हैं कि मामला दुविधा भरा था और वह इसे समझ सकती थीं। उन्होंने इसे गहराई से समझने का फैसला किया।

अकांक्षा को पता चला कि इन किसानों ने जमींदारों और धनी किसानों से जमीनें लीज पर ली थीं, लेकिन खेती के कामों के दौरान लगने वाले बिजली के खर्च के लिए वे किसानों से अच्छा-खासा चार्ज ले रहे हैं। उदाहरण के लिए, ज़मींदार स्वंय 2 रुपए प्रति घंटा भुगतान कर रहे थे जबकि किसानों को बिजली बिल के लिए 150 रुपए प्रति घंटा देने के लिए मजबूर कर रहे थे।

अकांक्षा याद करते हुए कहती हैं, “ये किसान और दिहाड़ी मजदूर मोबाइल रिचार्ज के लिए प्रति दिन 5 रुपए देने के लिए राजी थे लेकिन बिजली बिल भुगतान के लिए तैयार नहीं थे। हमें उनके विचारों को बदलना था।”

अंत में, परियोजना के कई लाभों के बारे में विस्तार से बताने और समझाने के बाद, ग्रामीणों ने इसे समझा और फिर प्लांट लगाने के लिए अकांक्षा ने जमीन की तलाश शुरू की।

बायो गैस प्लांट बनाने में जुटे मजदूर

अकांक्षा कहती हैं, “सौभाग्य से, दूसरे समुदाय के एक व्यक्ति ने स्वेच्छा से परियोजना के लिए हमें भूमि दान की। यह उल्लेखनीय है कि जाति व्यवस्था इस क्षेत्र में काफी प्रचलित है, लेकिन वह शख्स चाहता था कि दलित समुदाय बेहतर और सशक्त जीवन जिए। यहीं से, हमारी यात्रा शुरू हुई। ”

अकांक्षा परियोजना को सफल बनाने का श्रेय स्वंयभू के सह-संस्थापक, आशुतोष कुमार और एक गैर-लाभकारी संगठन आयुष्मान फाउंडेशन को देती हैं।

फाउंडेशन के सह-संस्थापक आशुतोष के साथ आकांक्षा

अकांक्षा बताती हैं कि यह फाउंडेशन तकनीकि और मार्केटिंग सहायता प्रदान करता रहा है। बायोफर्टिलइज़र और जैव कीटनाशकों को उनकी प्रयोगशालाओं में जांचा जाता है कि वे 100 प्रतिशत जैविक हैं। वे इन उत्पादों को बाजार में लाने में भी मदद करते हैं।

वह बताती हैं कि इस पहल को आगे बढ़ाने में मैखिक प्रचार ने भी अहम भूमिका निभाई है।

आज, उनके पास समस्तीपुर में दो बायोगैस प्लांट हैं,  एक के पास 2-घंटे की बायो- इलेक्ट्रिसिटी क्षमता है जबकि दूसरा चार घंटे बिजली की आपूर्ति करता है।

स्वंयभू को अपनी प्रारंभिक फंडिंग सिंगापुर के डीबीएस बैंक से मिली है। उनकी परियोजना को आंशिक रूप से लाभार्थियों और मुख्य रुप से सरकारी और गैर-सरकारी एजेंसियों द्वारा सहायता प्राप्त हुई है।

अकांक्षा कहती हैं, “इन क्षेत्रों में एक स्पष्ट बदलाव देखा जा सकता है। यह देख कर कि बिजली ने उनके जीवन को किस तरह से प्रभावित किया है, ये ग्रामीण अब बिना चूक के बिजली का भुगतान करते हैं। इसके अलावा जब से उन्होंने केमिकल वाले खाद के बदले प्लांट से निकलने वाले खाद का इस्तेमाल करना शुरु किया है, तब से वे अच्छी खासी रकम की बचत भी करते हैं और बेहतर पैदावार भी पाते हैं। हमारे समाधान से उनके जीवन में सकारात्मक बदलाव आ रहे हैं।”

सामुदायिक बायोगैस प्लांट के अलावा, उन्होंने आईआईटी पटना के छात्रों के साथ मिलकर बायोइलेक्ट्रिसिटी के लिए अलग-अलग प्लांट पर भी काम किया है।

अकांक्षा बताती हैं कि वह महिलाओं को इसमें शामिल करने और अपनी पहल के माध्यम से स्थाई आजीविका ढांचे के साथ सशक्त बनाने के लिए उत्सुक हैं।

ग्रामीण महिलाओं को बायो गैस का महत्त्व समझातीं आकांक्षा

इस बारे में विस्तार से अकांक्षा बताती हैं, “प्लांट से घोल का उपयोग अगरबत्ती, धूप, गमले के साथ-साथ खाद के गोले बनाने के लिए किया जा सकता है। गाँव की महिलाएँ आसानी से इन उत्पादों को बनाकर अच्छी आय अर्जित कर सकती हैं। उनके घरों में बायोगैस और बायोइलेक्ट्रिसिटी है और साथ ही उनके पास जीविका कमाने के लिए पर्याप्त समय है।”

हमने अकांक्षा से पूछा कि ऐसे समय में जब अधिकांश युवा विदेश में काम करते हैं या महानगरीय शहरों में नौकरी का आनंद लेते हैं तो ऐसा क्या कारण था कि उन्होंने एक अपरंपरागत रास्ते पर चलने, विशेष रूप से ग्रामीण क्षेत्र में काम करने का सोचा?

अकांक्षा बताती हैं, “सामाजिक इंटरप्रेन्योरशिप के छात्र के रूप में, सामाजिक विषमताओं के प्रसार ने मुझे व्यथित किया। बिजली, पानी की आपूर्ति और बेहतर जीवन शैली जैसी सुविधाएँ प्रत्येक व्यक्ति का मूल अधिकार हैं, चाहे वह शहरों में रहें या गाँवों में। सुविधाओं की स्पष्ट कमी है और अधिकांश लोगों के लिए गाँवों में काम करने में कोई आकर्षण नहीं है। मैं इस अहसास से प्रेरित हुई कि अगर मैं एक शिक्षित व्यक्ति होने के नाते ऐसा नहीं करूँगी, तो कौन करेगा? ”

झारखंड में बायो गैस प्लांट का निर्माण

स्वयंभू टीम अपनी बायो- इलेक्ट्रिसिटी परियोजना को बढ़ाने के लिए काम कर रही है। यह संस्था देश के ग्रामीण भागों तक बायो- इलेक्ट्रिसिटी पहुँचाने में अपने प्रयासों के लिए सहायता की तलाश में हैं। आकांक्षा ने द बेटर इंडिया को बताया कि अभी यूपी के खलीलाबाद व झारखंड में उनके बायोगैस प्लांट का निर्माण चल रहा है जोकि लगभग पूरा होने की कगार पर था लेकिन कोरोना महामारी के चलते काम कुछ धीमा पड़ गया है। इसके अलावा हरिद्वार से भी जल्दी ही एक अच्छी खबर आने वाली है जहाँ वह एक निजी कंपनी के साथ मिलकर ग्रामीणों के लिए प्लांट बनाने में जुटी हैं।

समाज के कमजोर वर्गों को बदलने में आकांशा का दृढ़ संकल्प और ईमानदारी से किया गया प्रयास सराहनीय है। स्वयंभू आर्थिक रूप से मजबूत और स्वस्थ जीवन जीने के लिए ग्रामीण गरीबों को सशक्त बनाने का एक मॉडल है।

यदि आप स्वयंभू की मदद करना चाहते हैं, तो आप उन्हें फेसबुक या ट्विटर पर संपर्क कर सकते हैं।

मूल लेख-LEKSHMI PRIYA S

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