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"साल 1978 में मैंने ट्रक पर जाना शुरू कर दिया, लेकिन उस ड्राईवर को मुझसे हर बात पर खुन्नस निकालनी होती थी क्योंकि उसकी हेराफेरी के बारे में मैं मालिक को सच बता देता था। उसने एक बार मुझे महाराष्ट्र में बीच रास्ते में ही छोड़ दिया। 3 दिन तक मैं भूखा-प्यासा 200-250 किमी चला और फिर एक रेलवे स्टेशन पर पहुंचा, जहाँ से मैं दिल्ली की ट्रेन में बैठा। मुझे इतनी भूख लगी थी कि मेरे सामने एक आदमी पुड़ी खा रहा था और मुझसे रहा नहीं गया तो मैंने उससे पुड़ी मांग ली। उसने एक पुड़ी तो दी लेकिन जब दूसरी के लिए कहा तो बहुत गलियाँ सुनाई उसने मुझे। उस पल मेरी आँखों में आंसू थे पर मन में बस यही आया कि एक दिन ऐसा बनना है कि मैं दूसरों को खिलाऊं।"
सालों पुरानी इस घटना का जिक्र करते हुए 60 वर्षीय देव गोस्वामी की आवाज़ भारी हो गयी और उनका गला रुंध गया। आज भी उन्हें यह किस्सा याद है जैसे कि कल की ही बात हो। लेकिन अब वे उस आदमी को धन्यवाद करते हैं क्योंकि उसकी वजह से उनके मन में दूसरों के लिए कुछ करने का भाव आया।
हरियाणा के सोनीपत जिले में गन्नौर गाँव के रहने वाले देवदास गोस्वामी पिछले लगभग 35 सालों से बेघर और बेसहारा लोगों को रोटी, कपड़ा और रहने के लिए घर दे रहे हैं। देवो आश्रम के नाम से वे दो शेल्टर होम चला रहे हैं, एक गन्नौर में और एक दिल्ली के द्वारका में। गन्नौर में फ़िलहाल 100 से ज़्यादा लोग हैं तो द्वारका में 80 लोगों का पालन-पोषण हो रहा है।
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ये सभी लोग बेघर, बेसहारा हैं जो इधर-उधर से भीख मांगकर अपना गुज़ारा करते हैं। इनमें बहुत से लोग मानसिक रोगी भी हैं क्योंकि वर्षों से ज़िंदगी के थपेड़े झेलते हुए वे उदासीन हो गए हैं। जहाँ भी देव को इस तरह के असहाय लोग मिलते हैं, वे उन्हें अपने साथ अपने शेल्टर होम ले आते हैं। देव बताते हैं,
"सबसे पहले हम उन्हें शीशा दिखाते हैं और फिर उन्हें नहला-धुलाकर, दाढ़ी-बाल आदि बनाकर उन्हें साफ़-सुथरे कपड़े पहनाते हैं। इसके बाद फिर से उन्हें शीशा दिखाया जाता है और यदि दोबारा शीशा देखने पर उनके चेहरे पर मुस्कराहट आ गयी तो बस फिर उन्हें ज़िंदगी की और लाना मुश्किल नहीं। इन लोगों की वह एक मुस्कराहट इतनी संतोषजनक होती है कि कभी अपने मकसद से पीछे हटने नहीं देती।"
इसके अलावा, देव लावारिस मौत मरने वालों का पूरे विधि-विधान से अंतिम संस्कार भी करते हैं। उनके इन सभी कार्यों में उनकी पत्नी तारा गोस्वामी उनका बराबर साथ देती हैं। तारा दिल्ली के शेल्टर होम को सम्भालती हैं तो देव ज़्यादातर गन्नौर के शेल्टर होम में रहते हैं। जितनी हमदर्दी उन्हें लोगों से है उतनी ही जानवरों से भी है। देव बताते हैं कि अगर कभी रोड एक्सीडेंट में कोई जानवर मर जाता है तो अक्सर आने-जाने वाले लोग उसे नज़र अंदाज कर देते हैं। लेकिन उनके जीवन का यह नियम है कि अगर कहीं भी-कभी भी उन्हें कोई जानवर ऐसे मिलता है तो वे उसे खुद दफनाते हैं।
कैसे हुई शुरुआत?
देव के इन नेक कामों की शुरुआत 80 के दशक से होती है। उन्होंने बताया कि उनके पिता ब्रिटिश आर्मी में ड्राईवर की नौकरी करते थे और माँ गृहिणी थी। उनके पिता हमेशा उन्हें अपनी यात्राओं की कहानी सुनाते थे और बस उनके किस्से-कहानी सुनकर बड़े हुए देव ने भी ठान लिया कि वह ट्रक ड्राइविंग करेंगे और लंबी-लंबी यात्राओं पर जाएंगे। नौवीं तक पढ़े देव ने हरियाणा की नॉर्दन कैरिएर्स प्राइवेट लिमिटेड नामक एक कंपनी के साथ काम करना शुरू किया।
शुरू में वह दूसरे ड्राइवर्स के साथ जाते थे और फिर साल 1980 से उन्होंने खुद गाड़ी चलाना शुरू कर दिया। देव कहते हैं,
"मैंने अपने सफ़र के दौरान लोगों को बरसों चलते देखा है। उस जमाने में सीधे-सपाट रास्ते होते थे और उन रास्तों में न जाने कितने ही लोगों को भूखे-प्यासे, नंगे पैर, बहुत बार बिना कपड़ों के चलते देखा। मेरे ज़ेहन में रेलवे स्टेशन पर मेरे साथ घटी घटना हमेशा रही और इसलिए जब मेरे अपने हाथ में ट्रक आया तो मैं अपने साथ राशन का सामान रखता। रास्ते में अगर कोई भूखा-प्यासा बेसहारा मिल जाता तो वहीं गाड़ी साइड लगाकर, खाना बनाता और उन्हें खिलाता।"
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खाने के अलावा देव अपने साथ कैंची, उस्तरा, ब्लेड आदि भी रखते और इन लोगों के दाढ़ी-बाल भी बना देते। वह कुछ एक्स्ट्रा कपड़े भी अपने साथ रखने लगे ताकि रास्ते में ज़रुरतमंदों को दे सकें। अपने इस काम में देव इतने मग्न रहते कि उनकी डिलीवरी में लेट-लतीफी होने लगी। कई बार तो उन्हें कंपनी से निकाल दिए जाने का नोटिस भी मिल जाता था। उनके साथी ड्राईवर उन्हें पागल कहते थे जो अपने को भुलाकर दूसरों के लिए कहीं भी रुक जाता।
लेकिन देव के लिए उनके इस काम से बढ़कर कुछ नहीं था। उनके जीवन में एक वक़्त ऐसा भी था कि उन्होंने आजीवन शादी न करने की ठान ली थी। पर फिर घरवालों के बहुत समझाने और कहने पर उन्होंने शादी की।
उनकी पत्नी तारा भी उनके इस काम से काफ़ी प्रभावित हुई और उन्होंने हमेशा उनका साथ दिया। यहाँ तक कि जब पहली बार देव ने एक लावारिस का अंतिम संस्कार किया तो उनकी पत्नी ने उस अर्थी को उनके साथ कंधा दिया। सैकड़ों मृत लोगों का अंतिम संस्कार कर चुके देव कहते हैं कि वह और उनकी पत्नी किसी धर्म या जाति को नहीं मानते। उनके लिए सबसे बड़ा धर्म लोगों की सेवा करना है।
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साल 1992 के बाद उन्होंने खुद को पूरी तरह से इस काम के लिए समर्पित कर दिया। उनके पास जो कुछ भी बचत थी उससे उन्होंने तिहाड़ जेल फ्लाईओवर के नीचे 125 लोगों को खाना खिलाना शुरू किया। उन्होंने उनके लिए वहां त्रिपाल आदि लगाकर रहने की व्यवस्था की। उनके इस काम को देखकर और भी बहुत से लोग उनकी मदद के लिए आये।
"बस यूँ समझ लो कि इस काम में मुझे कभी भी पैसे की तंगी नहीं हुई। साल दर साल इतने सज्जन लोग जुड़ते रहे कि कोई पैसे देता तो कोई राशन पहुंचा जाता। कभी दो लोग दान देना बंद करते तो और चार लोग उन्हीं के माध्यम से दान देना शुरू कर देते। बस इसी तरह कारवां चल रहा है," उन्होंने हंसते हुए कहा।
वह आगे बताते हैं कि कुछ साल पहले उन्हें फ्लाईओवर के नीचे से हटा दिया गया और उसके बाद उन्होंने गन्नौर में और द्वारका में शेल्टर होम चलाना शुरू किया। द्वारका में जिस जगह शेल्टर होम चल रहा है वह उन्होंने किराए पर ली हुई है। बाकी गन्नौर में वह बिल्डिंग बनवा रहे हैं जिसका काम अभी चल रहा है। इस शेल्टर होम के निर्माण के लिए उन्होंने मिलाप पर एक फण्डरेजर शुरू किया है।
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अंत में वह सिर्फ़ इतना ही कहते हैं,
"मुझे कभी भी यह डर नहीं लगा कि मैं इतने लोगों के लिए कैसे-क्या करूँगा। कहाँ से पैसेआएंगे, बस मेरी भावना सच्ची रही। मैंने मोह की जगह सेवा भाव को अपनाया। क्योंकि सिर्फ़ अपने लिए जीने में क्या जीना है, अगर जीना ही है तो दूसरों के लिए कुछ करते हुए जियो, फिर आपको दुनिया की कोई भी चीज़ नामुमकिन नहीं लगेगी।"
यदि आपको इस कहानी ने प्रेरित किया है और आप देव गोस्वामी के इस नेक काम में कोई मदद करना चाहते हैं तो मिलाप पर उनके अभियान में डोनेट कर सकते हैं। अधिक जानकारी के लिए यहाँ क्लिक करें!
देव गोस्वामी से संपर्क करने के लिए 9910200632 पर डायल करें!
संपादन - मानबी कटोच