दिल्ली की रहनेवाली गायत्री की निलोन्स अचार के साथ बहुत सी यादें जुड़ी हैं। वह कहती हैं, “अभी कुछ दिनों पहले मैं कैप्टन बत्रा पर बनी फ़िल्म शेरशाह देख रही थी। एक सीन में वह शराब खरीदने के लिए सेना की कैंटीन में जाते हैं। मेरा ध्यान कैंटीन में रखे एक कांच की शीशी की तरफ गया। मेरे लिए उसे पहचानना मुश्किल नहीं था।” गायत्री रिटायर्ड सेना अधिकारी की बेटी हैं। वह कांच की शीशी निलोन्स की थी। एक ऐसा ब्रांड जिससे उनका बचपन से नाता रहा है।
वह बताती हैं, “अपने पिता की नौकरी की वजह से हम भारत के कई शहरों में घूमते रहे हैं। रहने की जगह, स्कूल, दोस्त और पर्यावरण सब कुछ बदलता रहा। लेकिन एक चीज़ हमेशा साथ बनी रही, वह था निलोन्स का अचार। वह हमेशा हमारे खाने की टेबल पर रखा मिलता था।”
गायत्री को यकीन है कि उसकी तरह सेना से जुड़े हर परिवार का एक भावनात्मक जुड़ाव इस अचार के साथ रहा होगा। यह वही अचार है, जिसने इस कंपनी को दुनियाभर में लोकप्रिय बना दिया। एक ऐसा ब्रांड जिसे आज हम सभी पहचानते हैं और प्यार करते हैं।
फूड प्रोसेसिंग का पुराना अनुभव
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आज भले ही इस ब्रांड का टर्नओवर करोड़ो का हो, लेकिन सफर शुरु से इतना सुहाना नहीं था। चार सालों तक लगभग 50 प्रोडक्ट पर काम करने के बाद भी असफलता हाथ लगती रही। कंपनी के प्रबंध निदेशक और सीईओ दीपक कहते हैं, “मेरे पिता सुरेश सांघवी और अंकल प्रफुल्ल ने 1962 में महाराष्ट्र के जलगांव के उतरन गांव में घर की रसोई से कारोबार शुरू किया था।”
उन्होंने बताया, “1962 में मेरे पिता ने एग्रीकल्चर में ग्रेजुएशन किया था। लेकिन उनके बड़े भाई प्रफुल्ल अपने पिता की मौत की वजह से हायर एजुकेशन नहीं ले पाए। क्योंकि उस समय आय का एकमात्र जरिया खेती ही था। इसलिए उन्होंने पढ़ाई की जगह खेती को अपनाया। उन्होंने मेरे पिता को सुझाव दिया कि जो कुछ भी पढ़ा है उसे एग्रीकल्चर प्रोसेसिंग के लिए इस्तेमाल करें।”
वह आगे बताते हैं, “परिवार को पहले से ही फूड प्रोसेसिंग का अनुभव रहा है। हमारे पास 15 एकड़ का नींबू का खेत था। दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान घायल सैनिकों की इम्युनिटी बढ़ाने और सेहतमंद बने रहने के लिए हम ब्रिटिश और भारतीय सेना के लिए नींबू का सीरप और नींबू का रस बनाते थे। हमने अपने कुछ प्रोडक्ट्स निर्यात भी किए और अच्छा-खासा पैसा कमाया था।”
जब डाइनिंग टेबल बन गई लैब
हालांकि महाराष्ट्र कृषि भूमि अधिनियम 1961 के चलते परिवार को अपनी 90 प्रतिशत से ज्यादा जमीन छोड़नी पड़ी। जो जमीन बची थी, बस उस पर ही खेती की जा रही थी। वे जानते थे कि अगर ग्राहकों की जरूरतों को पूरा करने के लिए उन्होंने कोई सही उत्पाद तैयार कर लिया, तो उससे जुड़े बिज़नेस को वह अच्छे से चला सकते हैं।
बस इसी को ध्यान में रखकर दोनों भाइयों ने अपनी खाने की टेबल को ही अपनी लैब बना लिया। उन्होंने अलग-अलग मसालों और खाने की चीजों के साथ एक्सपेरिमेंट करना शुरू कर दिया था। सुरेश ने अपने खेत के ताजा शहतूत, आम और अन्य फलों से स्क्वैश तैयार किया। बाद में उन्होंने जेली, जैम, कैचअप और अन्य कई तरीके के प्रोडक्ट्स का उत्पादन शुरू कर दिया और उन्हें निलोन्स के ब्रांड नाम से बेचा।
नायलॉन उस समय लोगों की जबान पर चढ़ा हुआ नाम था। दरअसल, यह पहला मानव निर्मित फाइबर था, जो दुनियाभर के उद्योग और लोगों के जीवन में क्रांति लेकर आया। नायलॉन से प्रभावित होकर ही ब्रांड को निलोन्स नाम दिया गया। उसके बाद, दोनों भाइयों ने इसे लोगों तक पहुंचाने का काम शुरू कर दिया, लेकिन उन्हें सफलता नहीं मिली। लोगों को उनके ये उत्पाद कुछ खास पसंद नहीं आए।
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राह में मुश्किलें भी आईं
दीपक कहते हैं कि उनके पिता अगले चार सालों तक लगभग 50 तरह के उत्पाद बनाकर बाजार में लेकर आते रहे। सिर्फ इस उम्मीद से कि उनमें से कुछ तो सफल रहेंगे। लगातार मिल रही असफलताओं से वह परेशान होने लगे थे। 1965 में तो प्रफुल्ल ने सुरेश से यह तक कह दिया था कि इतने सालों से नुकसान झेलने के बाद क्या हमें इस बिज़नेस को बंद नहीं कर देना चाहिए?
हालांकि इसके जवाब में सुरेश की प्रतिक्रिया काफी दृढ़ थी। उन्होंने कहा, “हमने जहां निवेश किया है, उसी बिज़नेस से नुकसान की भरपाई भी करेंगे। दूसरे बिज़नेस की तरफ देखने का सवाल ही नहीं उठता।” सन् 1966 में जब दोनों ने घर के बने अचार को मार्केट में उतारा, तो चीज़े थोड़ा बेहतर होने लगी थीं।
सेना की कैंटीन ने बनाया सफल
दीपक कहते हैं, “उन दिनों सरकार, सेना की कैंटीन में सामान बेचने के लिए टेंडर निकाला करती थी। हमने भी अपने सभी तरह के अचार- मिर्च, आम, नींबू व मिक्स अचार के लिए आवेदन किया और भाग्यवश अगले कुछ सालों के लिए हमें कॉन्ट्रेक्ट मिल गया था।”
अगली चुनौती बड़े स्तर पर अचार तैयार करने की थी। वह बताते हैं, “उन्होंने इससे पहले कभी इतनी बड़ी फैक्टरी नहीं लगाई थी। 7000 वर्ग फुट में तुरंत एक प्लांट तैयार करना था। लोन लेकर एक मैन्युफैक्चरिंग यूनिट लगाई गई और फिर अचार का बड़े पैमाने पर उत्पादन शुरू हो गया। निलोन्स के अचार ने कुल बिक्री में 95 प्रतिशत योगदान दिया और उसके बाद से कंपनी ने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा।"
दीपक कहते हैं, “वह आज भी सेना के किसी कर्मचारी के संपर्क में आते हैं, तो सबसे पहले अचार का ही जिक्र आता है। निलोन्स के साथ उनकी कई खट्टी-मीठी यादें जुड़ी हैं। दरअसल, आचार कई पीढ़ियों के जीवन का हिस्सा बन गया है। हांलाकि हम आज भी सेना की कैंटीन में अचार की सप्लाई करते हैं, लेकिन निश्चित रूप से कॉम्पिटिशन बढ़ गया है। कई कंपनियां इस क्षेत्र में अपनी पैंठ बना चुकी हैं।”
टूटी-फ्रुटी कैंडीड पपाया भी रहा हिट
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उन्होंने बताया, “कंपनी का दूसरा प्रॉडक्ट, जो हिट हुआ वो टूटी-फ्रुटी कैंडीड पपाया था। उस समय भारत के लिए यह एकदम से नई चीज थी। कंपनियां इसे मार्केट में उतारने के लिए निरंतर प्रयोग कर रही थीं। गुजरात के एक वितरक मनसुख भाई ने एक दिन हमारे कारखाने का दौरा किया और ऑफिस में रखे टूटी-फ्रुटी के सैंपल को देखा।
हमने इसे अभी तक लॉन्च नहीं किया था। इसका ट्रायल चल रहा था। लेकिन उन्होंने इन उत्पादों को गुजरात में पान की दुकानों पर बेचकर प्रयोग करने का फैसला किया।”
दूसरी पीढ़ी के उद्यमी दीपक कहते है, “टूटी-फ्रुटी ने 1970 के दशक में लोगों के दिल में जगह बना ली थी। आप इसे आज भी मुंबई की विब्स ब्रेड में देख सकते हैं। इसके अलावा, कई कंपनियां मसलन कराची बेकरी, क्वॉलिटी वॉल्स हैवमोर, नेस्ले, डैनोन, वाडीलाल और अन्य कंपनियां अपने डेज़र्ट में इसका इस्तेमाल कर रही हैं।”
Njoy से काफी नुकसान उठाना पड़ा
हालांकि 1980 के दशक में कंपनी को अपने एक नए प्रोडक्ट्स Njoy से काफी नुकसान उठाना पड़ा था। उस समय के लोकप्रिय ड्रिंक रसना के साथ प्रतिस्पर्धा करने के लिए कपंनी ने Njoy को लॉन्च किया गया था। उन्होंने माना कि निलोन्स के अलावा, यहां 25 अन्य ब्रांड भी थे, जो इस क्षेत्र में अपने पैर जमाने की कोशिशों में लगे थे, लेकिन उम्मीद के मुताबिक उन्हें सफलता नहीं मिली।
दीपक अपने बचपन की यादों को साझा करते हुए बताते हैं, “अगस्त-सितंबर के महीने में, एक दिन मैं अपने पिता के साथ जलगांव की लोकल दुकान पर खड़ा था। वहां अलमारी में Njoy के लगभग 50 पैकेट रखे थे। मैंने खुश होते हुए अपने पिता से कहा था, देखो हमारा प्रोडक्ट सबसे ज्यादा दिखाई दे रहा है। बाकी कंपनी के प्रॉडक्ट तो नज़र ही नहीं आ रहे हैं।”
इस पर दीपक के पिता ने एक सेल्फ के कोने में रखे रसना के चार पैकेट उन्हें दिखाकर जवाब दिया था, “रसना के लगभग सारे पैकेट गर्मी का मौसम खत्म होते-होते तक बिक चुके हैं। ग्राहकों को अगर हमारा प्रोडक्ट पसंद आया होता, तो इतनी संख्या में वे दुकान पर नजर नहीं आते। बिज़नेस का शायद यह मेरा पहला सबक था। उस प्रॉडक्ट के नुकसान पर कंपनी को अपनी कुल संपत्ति का लगभग 25 प्रतिशत खर्च करना पड़ा था।”
जब दीपक ने संभाली कमान
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साल 2001 में सुरेश सांघवी की मौत, निलोन्स के लिए एक बड़ा झटका थी। दीपक बताते हैं, “उस समय, मैं मैनेजमेंट में पोस्ट ग्रेजुएशन कर रहा था। खेतों की जिम्मेदारी अंकल की थी। उन्हें बिज़नेस का ज्यादा अनुभव नहीं था। ऐसे में मुझे कंपनी की बागडोर सम्भालनी पड़ी।”
साल 2004 में कंपनी ने राजीव अग्रवाल को कंपनी के सीईओ के रूप में शामिल किया। जिन्होंने कारोबार को 8 करोड़ से बढ़ाकर 450 करोड़ पर पहुंचा दिया। गांव के लोगों को रोजगार देने के मकसद से कंपनी ने अपने तीनों कारखाने जलगांव में लगाए हुए हैं। आज कंपनी अमेरिका, ब्रिटेन, मध्य पूर्व अफ्रीका समेत 30 देशों को अपने प्रोडक्ट्स निर्यात करती है।
वह कहते हैं, “प्रॉडक्ट और उसके डाइवर्सिफिकेशन में बहुत सारे बदलाव किए जाने की जरूरत थी। निलोन्स को मुख्य रूप से अचार बनाने वाली कंपनी के रूप में जाना जाता था। वितरकों और डीलरों को हम ज्यादा प्रॉफिट नहीं दे पा रहे थे। हमें सुधार या फिर कहें कि कुछ नया करने की जरूरत थी।”
ग्राहकों की बदलती सोच और स्वाद को समझा
ब्रांड को सिर्फ अचार के लिए जाना जाता था। इसे खाद्य उत्पाद ब्रांड में बदलने के लिए कंपनी ने काफी काम किया। ग्राहकों के बदलते स्वाद को समझा और पास्ता सॉस, पास्ता मसाला, शेजवान चटनी, सॉस जैसे कई उत्पादों के साथ वह मार्किट में मजबूती के साथ खड़ी हो गई।
दीपक के अनुसार, पहले ग्राहक ज्यादातर उन्हीं रेस्टोरेंट में जाना पसंद करते थे जहां पंजाबी खाना मिलता था। ऐसे खाने के साथ अचार का होना तो लाजमी है। लेकिन अब लोगो का झुकाव चाइनीज या कॉन्टिनेंटल रेस्टोरेंट की तरफ ज्यादा है। वहां अचार को जगह नहीं मिलती। बस हमने लोगों और बाजार की बदलती सोच के साथ बदलने की कोशिश की है।
घर में खाना पकाना थोड़ा आसान हो जाए इसके लिए वे अदरक लहसुन का पेस्ट और पास्ता मसाले लेकर आए हैं। एक उदाहरण देते हुए वह कहते हैं, “गांवो में अभी भी रसोई में आपको सभी पारंपरिक मसाले मिल जाएंगे। लेकिन अगर बच्चा घर पर पास्ता या चाइनीज खाने की मांग करने लगे तो...! इस परेशानी को दूर के लिए हम रेडीमेड मसाले बनाते हैं। हमारा मकसद युवा और मिलेनियल्स के लिए कुकिंग को आसान बनाना है।”
इसमें प्यार मिला है
प्रोडक्ट को लेकर कंपनी की सोच को, हाल ही में बॉलीवुड अभिनेता पंकज त्रिपाठी के एक विज्ञापन से बड़ी आसानी से समझा जा सकता है। विज्ञापन में वह कॉमेडी और आकर्षक संवादों से निलोन्स के प्रोडक्ट्स को बढ़ावा देते नजर आ रहे हैं।
दीपक कहते हैं, “इसके जरिए हम एक संदेश भेजते हैं- इसमें प्यार मिला है, जिसका मतलब है प्रॉडक्ट को बड़े प्यार से तैयार किया गया है और सचमुच हम उत्पाद को बनाते समय इस बात का ख्याल रखते हैं।” पारंपरिक रूप से खाना बनाने के लिए जो चीजें भारतीय रसोई की जान हैं, उसके लिए तकनीकी समाधान अपनाया है। लेकिन स्वाद और सुगंध के साथ कोई समझौता नहीं किया गया है।
उन्होंने बताया, “अदरक लहसुन का पेस्ट पारंपरिक रूप से ओखली में पीसकर ही बनाया जाता था। हमने अमेरिका में ऐसी मशीन ढूंढने में सालों लगा दिए जो उसे मैन्युअली तरीके से दोहरा सकें और मसालों की सुगंध व स्वाद बरकरार रहे। हमारा यह पेस्ट थोड़ा दरदरा होता है। अचार के मसाले भी हम ऐसे ही तैयार करते हैं।”
कंपनी को नई ऊंचाइयों पर ले जाने का लक्ष्य
दीपक कहते हैं, “अपने ग्राहकों को खुश रखने के लिए उत्पादों को बड़े प्यार और देखरेख से बनाया जाता है। उनका कहना है कि कंपनी की योजना पूरे भारत में अपने रिटेल आउटलेट को 40 लाख से बढ़ाकर 50 लाख करने की है।
वह कहते हैं, “मैं खुश हूं कि मैंने अपनी पारिवारिक विरासत को बनाए रखा है और मेरा लक्ष्य है कि मैं इसे नई ऊंचाइयों पर ले जाऊं। मैं आपको भरोसा दिला सकता हूं कि कंपनी में काम करनेवाला हर कर्मचारी उत्पाद की गुणवत्ता बनाए रखने के लिए पूरे दिल से प्रयास करता है।”
मूल लेखः हिमांशु नित्नावरे
संपादनः अर्चना दुबे
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