साल 2004 में जब रूबी की शादी दौसा जिले में खटवा गाँव के रहने वाले ओम प्रकाश पारीक से हुई, तब उन्हें खेती के बारे में ज्यादा कुछ नहीं पता था। लेकिन उनके ससुराल में कृषि ही प्रमुख रोज़गार था तो धीरे-धीरे उन्होंने भी खेतों में परिवारजनों की मदद करना शुरू किया।
“मैंने दसवीं तक ही पढ़ाई की और फिर यहाँ शादी के बाद खेती-किसानी में ही लग गयी थी। खेती-बाड़ी की जानकारी सबसे ज्यादा मुझे अपने पति से मिली। तब तक हम रासायनिक खेती ही करते थे। पर फिर साल 2008 में दौसा के कृषि विज्ञान केंद्र (केवीके) से कुछ लोग हमारे यहाँ आये,” रूबी पारीक ने द बेटर इंडिया से बात करते हुए बताया।
केवीके से आये हुए एक्सपर्ट्स ने यहाँ पर किसानों को जैविक खेती की तरफ बढ़ने के लिए प्रेरित किया। उन्होंने गाँव के किसान, विशेषकर महिला किसानों को जैविक खेती की ट्रेनिंग के लिए बुलाया। रूबी को भी उनके पति ओम प्रकाश ने इस ट्रेनिंग में जाने के लिए प्रेरित किया।
तीन दिन की ट्रेनिंग में रूबी ने बहुत कुछ जाना और समझा। सबसे ज्यादा उनमें रसायनों से होने वाले दुष्प्रभाव और बिमारियों के बारे में सजगता बढ़ी। उन्होंने समझा कि कैसे केमिकल युक्त खाने की वजह से हमारा भविष्य खतरे में है। रूबी और ओम प्रकाश ने इस बारे में विचार-विमर्श किया और उन्होंने तय किया कि वे न सिर्फ खुद जैविक खेती अपनाएंगे बल्कि अपने आस-पास के किसानों को भी समझायेंगे।
“साल 2008 से हमने जैविक तरीके अपनाना शुरू किया। हमारी 20 बीघा ज़मीन है और उस पर हम सभी तरह की फसलें, जैसे कि बाजरा, गेंहूँ, चना, ग्वार, मूंगफली, जौ आदि उगाते हैं। हर एक फसल हम जैविक विधि से ही उगा रहे हैं और हमें इसमें फायदा ही हुआ है,” उन्होंने आगे कहा।
सब जानते हैं कि अगर आप एकदम से जैविक खेती करने की कोशिश करते हैं तो पहली बार में उतना अच्छा रिजल्ट नहीं मिलता। लेकिन यह सिर्फ शुरू की बात है क्योंकि दूसरे-तीसरे साल से आपकी फसल की गुणवत्ता के साथ-साथ पैदावार भी काफी बढ़ने लगती है। रूबी के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ।
वह बताती हैं कि शुरू में उन्होंने जैविक तरीके से कुछ साग-सब्जियां ही उगायीं। उन्होंने केवीके में खाद बनाना और कुछ हर्बल पेस्टिसाइड बनाना सीखा था। उन्होंने खुद ही अपने खेतों पर गोबर आदि से खाद बनाना शुरू किया। इसके अलावा, केवीके ने उनके गाँव में एक किसान क्लब का गठन भी किया था। जिससे कि किसान साथ में बैठकर विचार-विमर्श करें, एक-दूसरे की मदद करें।
रूबी को जैविक खेती की तरफ सक्रियता से काम करते हुए देख, उन्हें किसान क्लब की अध्यक्षता दे दी गयी।
“जब गाँव में इतना बड़ा सम्मान मुझे मिला तो इसके साथ आई ज़िम्मेदारी का अहसास भी पूरा-पूरा था। मैंने पूरी ईमानदारी से इस ज़िम्मेदारी को निभाने का निर्णय कर लिया था और मुझे ख़ुशी है कि मैं इस ज़िम्मेदारी को अच्छे से निभा पा रही हूँ,” उन्होंने आगे कहा।
पिछले दस-ग्यारह सालों से वह लगातार कृषि के क्षेत्र में कुछ न कुछ नया कर रही हैं। उनके इनोवेटिव तरीकों से न सिर्फ उनके खेतों की पैदावार बढ़ी है, बल्कि पूरे दौसा क्षेत्र में जैविक खेती का रुझान बढ़ा है। आज लगभग 1, 000 छोटे- बड़े किसान उनके प्रेरणा पाकर जैविक उत्पादन कर रहे हैं।
आज हम द बेटर इंडिया पर आपको उनके द्वारा किये गये कुछ इनोवेटिव कार्यों के बारे में बता रहे हैं-
शुरू की खुद की वर्मीकम्पोस्ट यूनिट:
रूबी और ओम प्रकाश ने गाँव में जैविक खेती को बढ़ावा देने के लिए अपने खेतों पर एक वर्मीकम्पोस्ट प्लांट भी लगाया। यह यूनिट शुरू करने में उन्हें नाबार्ड से काफी मदद मिली। इस यूनिट को शुरू करने का उद्देश्य अपनी खेती को पूरी तरह जैविक करने के साथ-साथ गाँव के अन्य किसानों को भी जैविक खेती से जोड़ना था।
ओम प्रकाश पारीक बताते हैं कि उन्होंने अपने खेतों पर ही 200 मीट्रिक टन की एक कम्पोस्ट यूनिट शुरू की। यहाँ पर गोबर आदि से खाद बनाने के साथ-साथ उन्होंने केंचुआ-पालन का काम भी किया। अपनी इस यूनिट की वजह से वे पूरे दौसा में जाने जाने लगे क्योंकि किसान उनके यहाँ इस यूनिट को देखने और उनसे सीखने आते थे।
वर्मीकल्चर की विधि बहुत ही आसान है। यह किसी छायादार, साफ़-सुथरी और नमी वाली जगहों पर किया जाता है। क्योंकि केंचुएं अत्यधिक सूरज की रौशनी और बहुत ज़्यादा पानी में विकसित नहीं हो पाते। सबसे पहले तो तय करें कि आपको किस जगह खाद बनानी है।
“उस जगह को साफ़ करें। यह सुनिश्चित करें कि वह जगह छायादार हो। फिर वहां गड्ढा आदि बनाएं और उस पर पानी का छिड़काव करके इसे गीला करें। उसमें सबसे पहले कुछ घास-फूस डालें। अब इसमें पुराना गोबर डालें, ध्यान में रहे कि गोबर ताजा न हो।”
गोबर के साथ आप अपने घर की रसोई से निकलने वाला गीला कचरा या फिर आपके खेतों का बचा हुआ जैविक कचरा भी डाल सकते हैं। इस मिश्रण में नमी बनाये रखने के लिए पानी का छिड़काव करते रहें। पर अधिक मात्रा नहीं होनी चाहिए पानी की। फिर 2-3 दिन बाद इसमें आप ज़रूरत के हिसाब से केंचुआ डाल सकते हैं। इसके बाद इसे घास-फूस, पत्तों और फिर बोरी से ढका जाता है।
40 से 45 दिनों में आपकी खाद बनकर तैयार हो जाती है। यह देखने में चाय की पत्ती की तरह काले रंग की होती है।
रूबी और ओम-प्रकाश ने बहुत से किसानों को वर्मीकम्पोस्ट बनाना सिखाया और साथ ही, उन्हें अपने खेतों के लिए खाद खुद बनाने के लिए प्रेरित किया। उनकी वर्मीकम्पोस्ट यूनिट की वजह से गाँव की कई महिलाओं को रोज़गार भी मिला हुआ है।
इस यूनिट से उनके अपने खेतों के लिए तो खाद की पूर्ति आसानी से हो ही जाती है, साथ ही बाकी बची खाद को वे उनके पास आने वाले किसानों को बेच देते हैं।
अज़ोला उत्पादन की शुरुआत:
वर्मीकम्पोस्ट यूनिट के अलावा, उनकी दूसरी इनोवेटिव पहल है अज़ोला का उत्पादन। अज़ोला एक तरह की फ़र्न है और यह पशुओं के चारे के लिए इस्तेमाल होती है। गुणवत्ता से भरपूर अज़ोला, गांवों में पशुओं के लिए हरे चारे का विकल्प हो सकती है।
रूबी कहती हैं कि अज़ोला उत्पादन की लागत, सामान्य हरे चारे के लिए इस्तेमाल होने वाली फसलों से काफी कम है और बाकी इसके फायदे बहुत सारे हैं। इसे सूखे चारे में मिलाकर पशुओं को दिया जाता है। इसके अलावा, अज़ोला को आप रबी और खरीफ की फसलों में एक जैविक खाद के तौर पर भी इस्तेमाल कर सकते हैं।
“अज़ोला का उत्पादन बहुत तेजी से होता है। साथ ही, 3×10 की क्यारी का उत्पादन लगभग 3 महीने के लिए पर्याप्त रहता है। बाकी पशुओं को अज़ोला खिलाने से उनके स्वास्थ्य पर सकारात्मक प्रभाव ही पड़ता है। इससे दूध उत्पादन में भी वृद्धि होती है,” ओम प्रकाश ने बताया।
अज़ोला के उत्पादन में न तो लागत ज्यादा है और न ही मेहनत। अज़ोला प्लांट की लागत 1500 रुपये से 2000 रुपये तक होती है। इसके अलावा, इसे पानी की ज़रूरत बहुत ही कम होती है। अज़ोला को खेतों में ही या फिर घर के बगीचे में भी आसानी से उगाया जा सकता है।
सबसे पहले जहां अज़ोला उगाना है उस ज़मीन को एकदम समतल किया जाता है। फिर उसके चारों और इंटों से एक बाउंड्री बनाई जाती है और फिर इसमें एक प्लास्टिक की शीट बिछाई जाती है। इसमें मिट्टी डालते हैं और फिर उसमें गाय का गोबर आदि और अन्य कुछ पोषक तत्व पानी में मिलाकर डाले जाते हैं।
इसके बाद, क्यारी में मिट्टी और पानी को अच्छे से हिलाकर, इसमें अज़ोला इनोकुलम समान रूप से डाला जाता है। फिर इस पर ताजा पानी छिड़का जाता है। एक हफ्ते के अंदर अज़ोला पूरी क्यारी में फ़ैल जाता है और एक मोटी चादर की तरह हो जाता है।
दो हफ़्तों के भीतर ही पूरी क्यारी भर जाती है और एक छलनी की मदद से आप इसे निकाल सकते हैं। पशुओं को खिलाने से पहले इसे अच्छे से धोना चाहिए ताकि इसमें कोई गंध न आये। छोटे किसानों के लिए अज़ोला उत्पदान काफी फायदेमंद साबित हो सकता है।
किसान उत्पादक संगठन:
दौसा में रूबी और ओम प्रकाश से प्रेरित होकर बहुत से किसानों ने जैविक खेती शुरू की है। जब उनके इलाके में जैविक फसलों का अच्छा उत्पादन होने लगा तो कृषि विज्ञान केंद्र की मदद से उन्होंने किसान उत्पादक संगठन की स्थापना की।
इस संगठन से आज लगभग 1000 जैविक किसान जुड़े हुए हैं। इस संगठन का कार्यभार भी रूबी बखूबी सम्भाल रही हैं। इन किसानों में से 400 से भी ज्यादा किसान जैविक तरीकों से गेंहू उगा रहे हैं। लगभग 200 बीघा ज़मीन पर दो हज़ार क्विंटल जैविक गेंहूँ का उत्पादन हो रहा है। इन सभी किसानों को उनकी उपज का डेढ़-दो गुना मूल्य मिलता है। उनके मुताबिक इस किसान उत्पादक संगठन का सालाना टर्नओवर 50 लाख रुपये है।
जैविक खेती सिर्फ किसानों के लिए ही नहीं बल्कि हमारे पर्यावरण को संतुलित रखने के लिए भी बहुत ज़रूरी है।
“जैविक खेती के बहुत फायदे हैं। सबसे पहले तो हमें स्वस्थ उपज मिल रही है बिना किसी केमिकल के और फिर इसमें पानी की बचत भी काफी होती है। जो गेंहू रसायनों के कारण छह पानी में लगता था, अब उसे सिर्फ तीन पानी की ज़रूरत होती है। साथ ही, मिट्टी की गुणवत्ता भी लगातार बढ़ रही है,” ओम प्रकाश ने कहा।
उन्होंने सिंचाई के लिए ड्रिप इरिगेशन और सोलर पंप इनस्टॉल करवाए हुए हैं। इन दोनों तकनीकों के लिए सरकार द्वारा किसानों को सब्सिड़ी दी जाती है।
देसी बीज लाइब्रेरी:
रूबी और ओम प्रकाश को अब जगह-जगह जैविक खेती पर ट्रेनिंग कराने और अपनी सफलता की कहानी बताने के लिए बुलाया जाता है। यह दंपति अलग-अलग जगह यात्रा कर जैविक खेती के ज्ञान का प्रकाश बढ़ाने के साथ-साथ देसी बीजों को सहेजने का काम भी कर रहा है।
वे बताते हैं कि उन्होंने अपने गाँव में ही एक देसी बीज लाइब्रेरी का सेट-अप किया है। इस लाइब्रेरी का सिद्धांत बहुत स्पष्ट है। सबसे पहले तो यहां पर देश के अलग-अलग कोने से इकट्ठा किये हुए और कुछ उनके खुद के बनाये हुए बीज भी उन्होंने हैं।
“कोई भी किसान इस लाइब्रेरी से मुफ्त में बीज ले जा सकता है। पर शर्त यह है कि अगर वह 10 बीज भी किसी फसल के ले जा रहा है और उसे अच्छी उपज मिली है तो वह 10 के बदले 100 बीज लाइब्रेरी के लिए दे। इससे हम अपनी धरोहर को सहेज पाएंगे। हमें बहुत ख़ुशी होती है जब बाहर के राज्यों से भी किसान हमारे यहां से बीज ले जाते हैं और फिर एक-दो साल बाद वापस हमें देने आते हैं,” उन्होंने आगे बताया।
इस तरह से यह दंपति एक स्वस्थ समाज और देश के निर्माण के लिए प्रयासरत है। उनकी बस यही ख्वाहिश है कि देश में सभी किसान रसायनों से होने वाले नुकसान को समझे और जैविक खेती की तरफ कदम बढ़ाएं।
यदि आपको इस कहानी से प्रेरणा मिली है तो आप ओम प्रकाश पारीक को 9672454444 पर सम्पर्क कर सकते हैं!
संपादन – मानबी कटोच
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