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बेस्ट ऑफ़ 2019: इस साल ‘नारीशक्ति’ का प्रतीक रहीं महिलाओं की कहानियां!

“आधी आबादी,” यह संबोधन हमारे देश में महिलाओं के लिए इस्तेमाल होता है। वैसे अगर जनसंख्या के हिसाब से देखें तो कहीं से भी महिलाओं का हिस्सा आधी आबादी से कम है। और फिर महिलाओं को मिलने वाले अधिकार, और मौके भी बराबर नहीं हैं। लेकिन फिर भी इस देश की महिलाएं ‘आधी आबादी’ हैं, क्योंकि इतिहास गवाह है कि चाहे बात प्रतिनिधित्व की हो या फिर देश निर्माण में योगदान की, वे कहीं भी किसी से भी पीछे नहीं रहती हैं।

महिलाओं के साथ होने वाले अपराध दिन-प्रतिदिन बढ़ रहे हैं लेकिन फिर भी वो पूरी हिम्मत और जज़्बे से आगे बढ़कर इनका प्रतिकार कर रही हैं। सही ही कहते हैं कि अगर एक औरत का हैसला और हिम्मत जांचनी हो तो उसे विपरीत परिस्थितियों में आजमाओं।

साल 2019 अपने अंतिम पड़ाव पर है तो आज द बेटर इंडिया, एक बार फिर आपके सामने उन कहानियों को रख रहा है जब इस देश की महिलाओं ने हर हद से आगे बढ़कर अपनी ताकत का परिचय दिया। जब वे न सिर्फ अन्य महिलाओं के लिए बल्कि हर किसी के लिए ‘नारीशक्ति’ का प्रतीक बनीं।

इस साल लिखी गयीं ‘आधी आबादी’ की इन कहानियों को हमारे पाठकों द्वारा सबसे ज्यादा पढ़ा और सराहा गया है। उम्मीद है कि आने वाले साल में भी हम इन नायिकाओं को याद रखेंगे और इनसे प्रेरित होते रहेंगे!

1. डॉ. हरशिंदर कौर

Dr. Harshinder Kaur

डॉ. हरशिंदर कौर बाल रोग विशेषज्ञ हैं और अब से लगभग 24 साल पहले, अपने पति, डॉ. गुरपाल सिंह के साथ हरियाणा की सीमा पर बसे एक गाँव में आयोजित मेडिकल कैंप में हिस्सा लेने जा रही थीं। उस गाँव से यह दंपत्ति कुछ ही समय की दूरी पर था, जब उन्होंने कुछ आवाज़ें आती हुई सुनी और वह भी ऐसी जगह से, जो जानवरों के शवों के लिए आरक्षित थी।

उत्सुकतावश, वे दोनों अपना रास्ता बदल कर इस आवाज़ की ओर जाने लगे और वहां पहुँच कर उन्होंने जो देखा, वह दिल दहला देने वाला था। डॉ. कौर ने द बेटर इंडिया को बताया, “हमने देखा कि कुछ आवारा कुत्ते किसी ‘जीवित’ चीज़ पर टूटे हुए हैं और ये आवाज़ें यहीं से आ रही थीं। हमने थोड़ा गौर से देखा तो हम चौंक गये। वहां, हड्डियों के ढेर पर, एक नवजात बच्ची थी, जो मृत पड़ी थी। और उन कुत्तों ने उसे नोच दिया था।”

इस दृश्य को देखकर डॉ. कौर और उनके पति विचलित हो गये और इस घटना की खोजबीन के लिए उन्होंने गाँव वालों से संपर्क किया। उन्होंने उनसे पूछ कि ऐसा कैसे हो सकता है? सबसे ज़्यादा चौंकाने वाला उनके लिए गाँववालों का उदासीन रवैया था। एक ग्रामीण व्यक्ति ने उन्हें बिना किसी पछतावे के बताया कि यह बच्ची किसी गरीब परिवार की होगी, जिन्हें बेटी नहीं चाहिए।

इस एक घटना ने डॉ. कौर की ज़िन्दगी का जैसे रुख ही बदल दिया। उनका ध्यान चिकित्सा सेवा से हटा कर कन्या भ्रूण हत्या के खिलाफ़ और लड़कियों के अधिकारों की रक्षा के लिए लड़ने में लगा दिया। डॉ. कौर ने तय किया कि कन्या भ्रूण हत्या की समस्या का समाधान करने के लिए वे इसकी जड़ तक जायेंगी और गाँव के लोगों को प्रजनन(बच्चे पैदा करने में) में X और Y क्रोमोजोम की भूमिका के बारे में जानकारी देंगी। इसकी शुरुआत विभिन्न सामाजिक आयोजनों, गाँव की सभाओं, धार्मिक सभाओं, और शादी के समारोह के दौरान लोगों के बीच चर्चा करने से हुई।

आज यह उनके प्रयासों का ही परिणाम है कि हरियाणा और पंजाब जैसे राज्यों में लिंगानुपात का स्तर काफी सुधरा है। पिछले 24 सालों से वे लगातार इस क्षेत्र में सक्रिय हैं और बिना रुके, बिना डरे काम कर रही हैं। ‘नारीशक्ति’ की परिभाषा को साकार करती डॉ. कौर की पूरी कहानी पढ़ने के लिए यहाँ पर क्लिक करें! 

2. माँ बम्लेश्वरी महिला स्वयं सहायता समूह

छत्तीसगढ़ के राजनांदगांव के ‘माँ बम्लेश्वरी महिला स्वयं सहायता समूह’ की महिलाएं मंदिर और पूजा पंडाल में चढ़ाए जा रहे फूलों का इस्तेमाल अगरबत्ती बनाने के लिए कर रही हैं और साथ ही, ये महिलाएं लाखों रुपये का व्यवसाय भी कर रही हैं।

इस पहल की शुरुआत गणेश चतुर्थी में हुई, संस्था की महिलाओं ने सोचा कि क्यों न आस्था के इन फूलों का कोई सकारात्मक उपयोग किया जाए। वैसे तो इन आस्था के फूलों को बेकार समझ कर कचरे में फेंक दिया जाता था लेकिन अब इनका उपयोग अगरबत्ती बनाकर महिलाओं को स्वरोजगार प्रदान करने के लिए किया जा रहा है।

इस मुहीम से करीब 1500 महिलाएं जुड़ी हुई हैं। इन सब ने मिलकर 100 गाँवों में रोज भ्रमण कर गणेश पंडालों और दुर्गा पंडालों से फूल एकत्रित किये और उसकी अगरबत्तियां बनायीं। इन्हीं अगरबत्तियों को आज वे बाज़ार में बेचकर अपना घर भी चला रही हैं। इतना ही नहीं समूह की महिलाएं गाँव की दूसरी महिलाओं को अगरबत्ती बनाने का प्रशिक्षण दे रही हैं ताकि वे भी स्वावलम्बी बन सके। इस मुहीम के माध्यम से अब तक 100 से ज़्यादा महिलाओं को रोजगार मिल चुका है। गणेशोत्सव के दौरान एकत्रित किए गए फूलों से जिले में अब तक 2 लाख रुपए तक की अगरबत्ती बन चुकी हैं।

विस्तार से इस पहल के बारे में जानने और समझने के लिए यहाँ पर क्लिक करें!

3. मल्लिका जगद

Mallika Jagad

26 नवंबर 2008 भारत के इतिहास में हमेशा एक काला दिन रहेगा। तीन दिनों तक मुंबई को हिला देने वाले कई आतंकवादी हमलों ने 150 से अधिक लोगों की जान ले ली थीं और हज़ारों को खतरे में डाल दिया था। ताज होटल, मुंबई की सबसे अधिक मशहूर इमारतों में से एक होने की वजह से अंतरराष्ट्रीय पर्यटकों की पसंदीदा होटल है। साथ ही इसी के चलते उग्रवादियों के निशाने पर भी रहती है।

इसी होटल में उस रात, मल्लिका जगद ने मौत को करीब से देखा था। उस समय 24 साल की मल्लिका यूनिलीवर द्वारा आयोजित एक दावत की इंचार्ज थीं। जैसे ही मल्लिका और उनकी टीम ने मेहमानों पर मंडरा रहे इस खतरे को समझा, उसी समय उन्होंने सभी दरवाजे बंद कर दिए और बैंक्वेट हॉल के आस-पास के क्षेत्र को भी बंद कर दिया।

लेकिन चाबियां बैंक्वेट इंचार्ज के कमरे में रखी हुई थीं, जोकि बैंक्वेट हॉल से काफी दूर था। ज़रा सी भी आहट आतंकवादियों को उनके ठिकाने का पता दे सकती थी। पर कमरों को लॉक करने के लिए इन चाबियों का होना बेहद ज़रूरी था। ऐसे में अपनी जान की परवाह किये बिना बैंक्वेट इंचार्ज ने मल्लिका की ओर के गलियारे में चाबियों का गुच्छा फेंका।

होटल के कर्मचारियों के साथ, मल्लिका ने दरवाजे बंद कर दिए और सारी लाइटें भी बंद कर दीं। हर एक दरवाजे और खिड़की को बंद करने के बाद, मेहमानों को फर्श पर लेट जाने और शांत रहने के लिए कहा गया।

उस रात मल्लिका के सामने न जाने कितनी चुनौतियाँ आयीं लेकिन उन्होंने एक पल के लिए भी खुद को विचलित नहीं होने दिया। न तो उन्होंने खुद कोई गलती की और न ही परेशान हो रहे अन्य लोगों को करने दी। यह उनकी ही सूझ-बुझ थी कि उस रात 60 लोगों की जान बच गयी।

यहाँ पर पढ़िये उस रात की कहानी जब पूरा देश डर के साये में था और एक बेटी लोगों को बचाने के लिए जद्दोज़हद कर  रही थी!

4. मीना पाटनकर

मीना पाटनकर एक उदाहरण हैं कि महिलाएं कैसे अपने हाथ के हुनर को अपनी पहचान बना सकती हैं। क्योंकि मीना की बनाई गुड़िया और अन्य क्राफ्ट की चीज़ों को आप जब देखेंगे तो एक नज़र में पहचान ही नहीं पाएंगे कि इन्हें अख़बारों से बनाया गया है।

अख़बार को इस तरह इस्तेमाल करने की प्रेरणा उन्हें एक फेसबूक पोस्ट से मिली। किसी ने सिर्फ़ अख़बार का प्रयोग कर के एक फूलों का गुलदस्ता बनाया था और उसे फेसबुक पर पोस्ट किया। मीना याद करती हैं, “मैंने इंटरनेट पर तलाशना शुरू किया और मुझे ऐसे कई विडियो मिले जहां लोगों ने अख़बार से बहुत सुंदर चीज़ें बनाई थीं। कुछ लोग बहुत अच्छे से इन्हें बनाने का तरीका बताते थे और कुछ लोग नहीं बताते, फिर मैंने खुद अलग-अलग तकनीक ट्राई करना शुरू किया।”

हालांकि, यह सब पाँच साल पुरानी बातें हैं। आज तो मीना की बनाई हुई अख़बार की गुड़ियाँ शहर में काफ़ी प्रसिद्ध हैं और लोग अक्सर उनके पास ऑर्डर देने आते हैं। पेपर क्राफ्ट के साथ-साथ गोंड और वारली कला में भी माहिर मीना पाटनकर की कहानी पढ़ने के लिए यहाँ पर क्लिक करें! 

5. एससीपीओ अपर्णा लवकुमार

एक महिला की खूबसूरती को उसके बाहरी सौन्दर्य से जोड़ा जाता है। गोरा रंग, लम्बे-काले घने बाल, तीखे नैन-नक्श… और भी न जाने क्या-क्या। और ऐसे में एक औरत अपने लम्बे घने बाल कटवा कर गंजी हो जाये तो?

अपर्णा लवकुमार के चेहरे पर एक प्यारी सी मुस्कान आ गयी जब हमने उनसे पूछा कि अपने लंबे घने बालों को कटवाने के बाद उन्हें कैसा महसूस हुआ।

“मुझे खुशी हुई,” कैंसर पीड़ितों के लिए अपने बालों को दान करने वाली अपर्णा ने जवाब दिया।

केरल के इरिनजालकुडा, त्रिशूर में एक सीनियर सिविल पुलिस ऑफिसर (एससीपीओ) के तौर पर तैनात, अपर्णा स्कूली छात्रों के बीच नियमित रूप से जागरूकता अभियान चलाती हैं। ऐसे ही एक अभियान के दौरान उनकी मुलाक़ात पांचवी कक्षा के एक ऐसे बच्चे से हुई, जो कैंसर से जूझ रहा था।

पहले तो इस बच्चे के सर पर बाल न होना अपर्णा को स्वाभाविक लगा, लेकिन फिर वह इस बात को भांप गयीं कि बाल न होने की वजह से वह बच्चा अपने आप को अलग सा महसूस कर रहा था।

बच्चे की टीचर से पूछने पर अपर्णा को पता चला कि दरअसल इस बच्चे को कैंसर था और कीमोथेरेपी में बाल चले जाने की वजह से अक्सर बाकी बच्चे उसे चिढ़ाते थे। इस एक बात ने अपर्णा को भीतर तक हिला दिया। इस घटना के बारे में भावुक होते हुए वह बताती हैं, “इन बच्चों के लिए यह बहुत मुश्किल वक़्त होता है। बाल न होने की वजह से उन्हें स्कूल में बाकी बच्चे चिढ़ाते हैं, जिससे उनका मनोबल और टूट जाता है।”

इस बच्चे से इस भावुक मुलाक़ात के कुछ ही दिन बाद अपर्णा सीधे एक सैलून में गयीं और उन्होंने अपने बाल कटवा दिए। इन बालों को उन्होंने एक स्वयंसेवी संस्थान को दान कर दिया, जो विग बनाकर कैंसर पेशंट्स को देते हैं।

अपर्णा का मकसद केवल कैंसर पेशंट्स को अपने बाल दान करना ही नहीं था, बल्कि वह तो समाज की उस सोच को भी बदलना चाहती थीं कि बालों का न होना कुरूपता का प्रतीक है। अक्सर ऐसे लोगों का मज़ाक उड़ाया जाता है या उन्हें कम खूबसूरत होने का ताना दिया जाता है। अपर्णा इस नज़रिए को पूरी तरह बदलना चाहती थीं।

एक ज़िम्मेदार पुलिसकर्मी और दो बच्चों की ममतामयी माँ होने के नाते, अपर्णा चाहती हैं कि समाज में पुलिस को डर का नहीं बल्कि दया और सद्भावना का प्रतीक माना जाये। अपने इन छोटे-छोटे क़दमों से वह रोते हुए चेहरों पर मुस्कान लाना चाहती हैं। उनके बारे में अधिक पढ़ने के लिए यहाँ पर क्लिक करें! 

बेशक, ये महिलाएं प्रतीक हैं हमारे देश में महिला सशक्तिकरण का। इसलिए हमारी हमेशा यही कोशिश रहती है कि हम साहस और हौसले का परिचय देती ऐसी महिलाओं की कहानियां लगातार आप तक पहुंचाते रहें। हमें उम्मीद है कि आने वाले साल में भी आप इसी तरह हमसे जुड़े रहेंगे और अन्य लोगों को भी जोड़ेंगे।

विवरण – निशा डागर 

संपादन – मानबी कटोच 


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