जानिए कौन थीं देश की पहली महिला जासूस, नीरा आर्य

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उत्तर प्रदेश के बागपत जिले के खेकड़ा में 5 मार्च, 1902 को जन्मीं नीरा आर्य जब मात्र आठ साल की थीं, तब महामारी के चलते उनकी माता लक्ष्मी देवी और पिता महावीर का देहांत हो गया था। छोटे भाई बसंत की ज़िम्मेदारी भी उन्हीं पर आ गई।

उन दिनों खेकड़ा में आर्य समाज के एक सम्मेलन में भाग लेने कलकत्ता से आए जाने-माने व्यापारी सेठ छच्जूमल ने नीरा व उनके भाई को गोद लिया और उनकी शिक्षा-दीक्षा कलकत्ता में ही हुई।

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25 दिसंबर, 1928 को नीरा का विवाह कलकत्ता में ही श्रीकांत जयरंजन से हुआ, जो अंग्रेज सरकार के गुप्तचर विभाग में अफ़सर थे। नीरा को पता चला कि उनके पति कई स्वतंत्रता सेनानियों को पकड़वा चुके थे।

इस पर भड़कीं नीरा ने पति से दो टूक कह दिया कि सरकारी नौकरी और मुझमें से किसी एक को चुन लो। पति ने जब सरकारी नौकरी को चुना, तो उसी क्षण नीरा आर्य ने ससुराल को छोड़ दिया।

इसके बाद नीरा कलकत्ता से दिल्ली के शाहदरा में अपने धर्मपिता आचार्य चतुरसेन के पास आ गईं। यहाँ वह बच्चों को संस्कृत व अंग्रेजी का ट्यूशन पढ़ाने लगीं।

उनके एक परिचित राम सिंह, आज़ाद हिन्द फ़ौज में शामिल थे, नीरा भी उनके ज़रिए आजाद हिंद फौज की रानी झांसी रेजीमेंट में भर्ती हो गईं।

नीरा आर्य की काबिलियत को देखते हुए उन्हें गुप्तचर विभाग में अंग्रेजों की जासूसी करने की ज़िम्मेदारी दी गई। इसी कारण उन्हें देश की पहली महिला जासूस भी कहा जाता है।

उनकी बहादुरी और निडरता को देखते हुए नीरा आर्य को कैप्टन बनाया गया; साथ ही सुभाष चंद्र बोस की सुरक्षा की ज़िम्मेदारी भी उन्हें ही सौंपी गई।

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उधर, उनके पति श्रीकांत जयरंजन दास को नेताजी की जासूसी करने और उन्हें मौत के घाट उतारने का काम सौंपा गया था। मौक़ा पाकर जयरंजन दास ने नेताजी को मारने के लिए गोलियां दागीं, तो वे गोलियां नेताजी के ड्राइवर को जा लगीं,

लेकिन इस दौरान नीरा आर्य ने अपने पति के पेट में संगीन घोंपकर मौत के घाट उतार दिया।

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आज़ाद हिंद फ़ौज के समर्पण के बाद, जब दिल्ली के लाल किले में मुकदमा चला, तो उन्हें पति की हत्या के आरोप में काले पानी की सज़ा हुई थी, जहां नीरा को घोर यातनाएं दी गईं।

उन्हें 'नीरा नागिनी' के नाम से भी जाना गया।

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साहित्यकार तेजपाल आर्य की किताब में मिले वृतांत के अनुसार, नीरा आर्या ने अपने जीवन के अंतिम दिनों में सड़क किनारे फूल बेचकर गुज़ारा किया और हैदराबाद में एक झोंपड़ी में रहीं।

26 जुलाई, 1998 को नीरा आर्य ने बीमारी के चलते एक अस्पताल में अंतिम सांस ली। आज उनके नाम पर केरल में एक सड़क है और  राष्ट्रीय स्तर का 'नीरा आर्य पुरस्कार' भी प्रदान किया जाता है।

देश की इस वीरांगना को हमारा शत् शत् नमन!