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‘मैती’: प्रेम को जोड़ा पर्यावरण से, 6000 से अधिक गाँवों में हर शादी पर अब लगते हैं पौधे!

66 साल की उम्र और पाँच लाख पौधे। उत्तराखंड के ग्वालदम में 1995 में पहला पौधा रोपे जाने के बाद से आज 24वें साल तक बंजर धरती को हरा भरा करने की जद्दोजहद और जज्बा। यह परिचय कल्याण सिंह रावत का है, जिन्हें ‘मैती आंदोलन’ के प्रणेता के रूप में हर कोई जानता है और जिन्हें उत्तराखंड में कम से कम किसी परिचय की जरूरत कतई नहीं है। मैती आंदोलन की मशाल आज देश के 18 राज्यों के 6000 से अधिक गांवों को रौशन कर रही है। इन राज्यों में  राजस्थान, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, पंजाब, जम्मू-कश्मीर और केरल शामिल हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी उनकी सराहना कर चुके हैं। इंटरनेशनल इन्वायरनमेंट समिट में नितिन गडकरी सम्मानित कर चुके हैं। बेस्ट इकोलाजिस्ट समेत कई पुरस्कार उन्हें हासिल हुए हैं। यहां तक कि कनाडा के पूर्व विदेश मंत्री फ्लोरा डोनाल्ड ने भी इस आंदोलन की सराहना की है और यूए, यूएस, यूके कनाडा, नेपाल, इंडोनेशिया में भी इसकी शुरुआत की गई है। मैती के रूप में पौधे रोपे जाने और उन्हें संरक्षित करने के इस आइडिया को अब हिमाचल प्रदेश सरकार ने भी अडाप्ट कर लिया है।

भावनात्मक लगाव पैदा कर पौधे बचाने को आया मैती का विचार

कल्याण सिंह रावत

15 अक्तूबर, 1953 में उत्तराखंड के चमोली जिले के नौटी गाँव से दो किलोमीटर दूरी पर बैनोली गाँव में जन्मे कल्याण सिंह रावत ने इसी गाँव से आठवीं की परीक्षा उत्तीर्ण की। इसके बाद वह अपने पिता, जोकि वन विभाग में कार्यरत थे, के पास पौड़ी आ गए। 1970 में उन्होंने गोपेश्वर डिग्री कालेज से वनस्पति विज्ञान में एमएससी किया और उसके बाद बीएड की डिग्री हासिल की। इसके बाद पौड़ी गढ़वाल जिले में शिक्षक के रूप में काम करने लगे।

जीव, वनस्पति विज्ञान के अध्यापक रहे कल्याण सिंह रावत ने मैती की नींव कैसे डाली। इसके पीछे की कहानी दिलचस्प है। बकौल रावत उनके पिता और दादा वन विभाग में रहे। उनका खुद का बचपन जंगलों में बीता। जब वह गोपेश्वर पढ़ने के लिए गए तो जंगल को बचाने के लिए चले चिपको आंदोलन से जुड़ गए। उसमें उन्होंने सक्रिय भूमिका अदा की। इसमें कार्यकर्ता पेड़ों को कटने से बचाने के लिए उससे चिपक जाते थे। इसी वजह से उसे चिपको आंदोलन का नाम दिया गया। कल्याण सिंह रावत के मुताबिक इस बीच हिमालय घूमने के दौरान उन्होंने पाया कि वन विभाग वाले पौधे तो रोपते
थे, लेकिन एक ही जगह पर पाँच-पाँच बार पौधे लगाए जा रहे हैं लेकिन वह पनप नहीं रहे। सूख रहे हैं। ऐसा बगैर देखभाल के हो रहा था। ऐसे में लगा कि अगर इंसान का पौधों से भावनात्मक लगाव हो जाए तो पौधे को बचाने के लिए वह खुद प्रयास करेगा। उसे तार बाड़ की भी जरूरत नहीं पड़ेगी। लगाव होगा तो वह पौधों को कम से कम
सूखने तो नहीं ही देगा। खुद उसकी सुरक्षा करेगा। इसी ख्याल के साथ मैती का विचार मन में आया।

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दूल्हा-दुल्हन रोपते हैं पौधा, जो बन जाता है दुल्हन का मैती, बंध जाता है बंधन


पौधों की सुरक्षा के लिए उससे लगाव पैदा करने का जो विचार कल्याण सिंह रावत के मन में आया था, वह मैत से जुड़ा था। यह एक लोक शब्द है। मैत का अर्थ होता है मायका और मैती का अर्थ होता है मायके वाले। इसके तहत शादी के वक्त दूल्हा दुल्हन मंत्रोच्चार के बीच एक पौधा लगाते हैं। दुल्हन इस पौधे को अपना मैती यानी परिवार का सदस्य बना लेती हैं और देखभाल का जिम्मा परिवार व गाँव की महिलाओं को सौंपती है। इस तरह पौधे से परिजनों का
भावनात्मक संबंध जुड़ता है और पौधों की देखभाल परिवार के सदस्य की तरह की जाती है। इस तरह जहां पहले रोपे गए पौधे देखभाल के अभाव में कुछ ही महीनों में सूख जाते थे, वहीं मैती के जरिये उनका संरक्षण संभव हुआ और आज कई छोटे बडे मैती वन सिर ऊंचा किए खड़े हैं।

यहां यह भी बताना मौजूं है कि पौधों की देखभाल के लिए परिवार की महिलाएं उस पैसे का प्रयोग करती हैं, जो उन्हें शादी ब्याह के वक्त दूल्हों, बारातियों से मिलते हैं। गाँवों में मैती समूह बने हैं। दूल्हा समूह अध्यक्ष को पैसा देता है। इसके अलावा दुलहन जब पहली बार मायके आती है तो धारे की पूजा के लिए जाती है। ऐसे में पानी स्रोत के स्थान पर भी पौधा रोपे जाने की परंपरा शुरू की गई। अब पहाड़ पर शादी होती है तो मैती पौधा इसका हिस्सा होता है।

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महिलाओं के बगैर संभव नहीं था धरती को हरा-भरा करना


जिस तरह उत्तराखंड के अलग राज्य गठन में महिलाओं की भागीदारी सबसे अहम रही, इसी तरह पौधों को रोपकर बंजर धरती को हरा-भरा करने में भी सबसे बड़ी भूमिका कल्याण सिंह रावत के साथ यहां की मातृ शक्ति ने ही निभाई। कल्याण कहते हैं कि पहाड़ी क्षेत्रों में हमारी बहनों को घास, पानी और लकड़ी की खोज में बहुत दूर-दूर तक जाना
पड़ता है। उनके बगैर इस आंदोलन को खडा नहीं किया जा सकता था। वही इस आंदोलन का संबल बनीं। पौधा लगाने से पहले यह भी देखा जाता है कि मौसम कैसा है? इसमें कौन सा पौधा पनपेगा? कौन सा पौधा लगाया जाना चाहिए? पौधा लगाने से ही काम पूरा नहीं होता, उसका संरक्षण किया जाता है। पौधा लगाने के बाद बड़े होने तक उसकी देखभाल की जाती है।

रावत कहते हैं, “आज यह स्वत: स्फूर्त आंदोलन पर्व, त्योहार और अन्य आयोजनों तक से जुड़ गया है। मसलन वेलेंटाइन डे को ही लीजिए। इसकी हवा हिमालय तक भी पहुंची। हमने इसका विरोध नहीं किया। युवाओं से कहा कि इस अवसर पर प्रेम के साथ एक पौधा रोपें। अगले पाँच साल में यह पौधा इतना बड़ा हो जाएगा कि उसको सिर उठाकर देखने के लिए विवश होना पड़ेगा।”

हिमालय का धन मैती वन, शौर्य वन, मोहन वन


मैती आंदोलन के तहत मैती वन तो खड़े किए ही गए, पौधे रोपने वाली छटी गाँव की महिलाओं ने कारगिल की लड़ाई के बाद शहीदों की याद में बडी संख्या में पौधे रोपे और उन्हें संरक्षित किया। यह कवायद उन्होंने बीएसएफ के साथ मिलकर की। उनके रोपे पौधों ने बंजर धरती में हरियाली उगा दी। इसे शौर्य वन के नाम से जाना जाता है। वहीं दो साल पहले गढ़वाल के चितेरे चित्रकार बी मोहन नेगी का देहांत हुआ तो मैती ने उन्हें श्रद्धांजलि के रूप में स्मृति वन तैयार किया गया। उन्होंने जितने कविता, पोस्टर तैयार किए, उतने ही पौधे लगाकर बी मोहन स्मृति वन खड़ा किया गया। इसे जिला चमोली के नंदासैण में श्री नंदा देवी स्मृति वन के पास ही बनाया गया।

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आसान नहीं रहा सफर, अपनी राह चलते रहे


कल्याण सिंह बताते हैं कि यह सफर कतई आसान नहीं रहा। वह याद करते हैं जब बतौर शिक्षक उनका स्थानांतरण रवाईं क्षेत्र में हुआ, उस वक्त वहां अंधाधुंध पेड़ काटे जा रहे थे।

“लोगों ने डराया कि आप काम कैसे करेंगे? मैंने वहां से हटने से इन्कार किया। वहां पौधे रोपने की बात कोई नहीं करता था। ऐसे में राजगढ़ी के स्कूल के बच्चों की मदद लेने की सोची। यह तरकीब कामयाब रही। हमने 45 हजार पौध की एक नर्सरी तैयार की। यह उत्तराखंड विभाग की सबसे बडी नर्सरी थी। उन दिनों स्कूल में 40 गांवों के बच्चे आते थे। बच्चों के माध्यम से पौधे गांवों तक भेजे,” रावत ने बताया।

वह 1987 की बात याद करते हुए वह बताते हैं – “राजगढ़ी में वृक्षाभिषेक कराने की ठानी। उसी साल क्षेत्र में सूखा पड़ा। 30 मई को तिलाड़ी कांड के शहीदों की याद में कार्यक्रम होना था। डीएफओ ने कहा कि सूखे में पौधे रोपे कैसे जाएंगे? वह बचेंगे कैसे? इस पर हमने राजगढ़ी के प्राकृतिक स्रोतों से पानी पहुंचाने का फैसला किया। तय किया कि 40 गांवों के बच्चे 40 पौधे लगाएंगे। उन 40 ग्राम प्रधानों की मीटिंग बुलाई। उनसे डोली में पौधे रखकर लाने को कहा। उनसे यह भी कहा कि यह ग्राम वृक्ष कहलाएगा। गाँव का प्रधान पौधे लगाएगा,गाँव की बहनें कलश से पानी डालेंगी। ढोल-दमाऊ धुन पर साथ राजगढ़ी के मैदान में लोगों की भीड़ के बीच वेदमंत्रों के बीच जिस गाँव के नाम से जो गड्ढे खोदे गए थे, उनमें वह पौधे रोपे गए, जो बाद में विशाल वृक्ष बने।”

मैती ग्राम गंगा अभियान के तहत एक रूपये से बदल रहे तस्वीर


मैती आंदोलन के तहत ग्राम गंगा अभियान भी चलाया जा रहा है। इसके तहत गाँव से बाहर रह रहे प्रवासी हर रोज गाँव के नाम पर एक-एक रुपया जमा करते हैं। और फिर इस तरह जुटाई राशि को अपने गाँव की मैती ग्राम गंगा समिति को भेजते हैं। वह इससे पौधे खरीदकर उन्हें रोपवाती है और संरक्षण का जिम्मा मैती इको क्लब के बच्चे उठाते हैं। इसके लिए बच्चे को सौ रुपए की राशि माहवार दी जाती है। बच्चे बचपन से ही पौधों से प्यार करें, उनकी देखभाल करें, इसके लिए हर रविवार एक घंटे की बाल चौपाल भी लगती है।

कल्याण सिंह रावत के कदम अब भी रुके नहीं हैं। वह उत्साह के साथ बताते हैं कि मैती को हिमाचल सरकार ने भी अंगीकृत कर लिया है। वहां भी पौधे को मैती के रूप में संरक्षित किया जाएगा। वह मानते हैं कि जिस तरह दुनिया में पर्यावरण प्रदूषण बढ़ रहा है, उससे निपटने में मैती जैसे आंदोलन ही हथियार बनेंगे।

संपादन – मानबी कटोच 


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