त्रिभुलोचन राम नौटियाल और उनकी पत्नी, वंदना नौटियाल लगभग 3 साल पहले दिल्ली छोड़कर उत्तराखंड में पौड़ी गढ़वाल के ल्वाली गाँव में बस गए। यहाँ पर किराए के छोटे से घर में रहते हुए वह प्राकृतिक खेती कर रहे हैं। उन्होंने ढाई एकड़ ज़मीन लीज पर लेकर खेती शुरू की और इस फार्म को नाम दिया- काश्वी एग्रो।
यह दंपति अपनी फसलों की प्रोसेसिंग और पैकेजिंग भी खुद ही करता है और ग्राहकों तक पहुंचाता है। उनका कहना है कि अभी उनकी खेती और उत्पादन बहुत बड़े स्तर पर नहीं है लेकिन धीरे-धीरे उनकी कोशिश है कि वे उत्तराखंड से पलायन कर रहे लोगों के लिए एक सफल मॉडल पेश करें।
गाँव में सादगी से आत्म-निर्भरता की ज़िंदगी गुजार रहे इस दंपति की जड़ें फैशन इंडस्ट्री से जुड़ी हुई हैं। दिल्ली में पली बढ़ीं वंदना कभी फैशन डिज़ाइनर हुआ करती थी तो वहीं मुंबई में जन्में और पले-बढ़े त्रिभुलोचन भी इसी इंडस्ट्री में अच्छे पद पर थे। लगभग 15 सालों तक इन्होंने फैशन इंडस्ट्री में काम किया। लेकिन उनके जीवन में घटी एक घटना ने ज़िंदगी के प्रति उनके नज़रिए को बिल्कुल ही बदल दिया।
वंदना ने द बेटर इंडिया को बताया, “मुझे खेती-किसानी के बारे में ज्यादा नहीं पता था और न ही कभी मेरा इस तरफ कोई झुकाव था। लेकिन मेरे पति का संबंध उत्तराखंड से है। उनकी ख्वाहिश गांव में कुछ करने की थी। हालांकि ऐसा कब करेंगे, इस पर उन्होंने कभी कोई खास विचार नहीं किया। लेकिन साल 2014 ने हमारी ज़िंदगी के रुख को बिल्कुल ही बदल दिया।”
साल 2009 में उनकी शादी हुई थी और 2011 में उनकी पहली बेटी, काश्वी का जन्म हुआ। काश्वी मात्र 3 साल की थी जब उन्हें पता चला कि उनकी बेटी को दिल की एक दुर्लभ बीमारी है। ज़्यादातर डॉक्टरों ने जवाब दे दिया था। फिर भी वंदना और त्रिभुलोचन दिन-रात इसी कोशिश में लगे रहे कि वे अपनी बेटी को बचा पाएं। दिल्ली के एम्स से लेकर केरल के अस्पतालों तक- हर जगह इलाज के लिए गए। वह आगे बताती हैं कि उनमें से किसी एक को हमेशा ही अपनी बेटी के साथ रहना पड़ता था, इसलिए उनके पति ने नौकरी छोड़ दी।
“मैंने अपनी नौकरी जारी रखी ताकि हम उसकी बीमारी और बाकी खर्च चला सकें। उसके इलाज के दौरान हम बहुत से लोगों से मिले जिन्होंने हमें ज़िंदगी का एक नया पहलु दिखाया। इससे पहले हमने कभी नहीं सोचा कि शहरों की भाग-दौड़ से परे भी एक शांति और सुकून भरा जीवन हो सकता है। हम क्या ब्रांड पहन रहे हैं उससे ज्यादा ज़रूरी इस बात पर ध्यान देना है कि हम क्या खा रहे हैं? किस तरह के वातावरण में रह रहे हैं और क्या हम वाकई खुश हैं,” उन्होंने आगे बताया।
वंदना और त्रिभुलोचन की लाख कोशिशों के वाबजूद काश्वी को नहीं बचाया जा सका और 2016 में वह उन्हें छोड़कर चली गई। उस ढाई साल के संघर्ष ने वंदना और उनके पति को पूरी तरह से बदल दिया। अब उन्हें पैसे की पीछे नहीं भागना था बल्कि उन्हें अपनी ज़िंदगी को अर्थपूर्ण बनाना था। वंदना बताती हैं कि अपनी बेटी की मृत्यु के समय वह बिल्कुल टूट गईं थीं लेकिन उन हालातों में भी उन्होंने अपनी बेटी के नेत्रदान किए। क्योंकि वह चाहती थी कि उनकी बेटी जाते-जाते किसी के काम आए।
उत्तराखंड में गांवों के लिए कुछ करने की जो ख्वाहिश त्रिभुलोचन के मन में कहीं दब गई थी, वह फिर से उभरी। उन्होंने धीरे-धीरे यहाँ पर अपने गाँव आना-जाना शुरू किया। वंदना ने कुछ वक़्त के लिए जॉब जारी रखी क्योंकि उन्हें उस सदमे से बाहर निकलने का वही एक रास्ता दिख रहा था। काश्वी के जाने के छह महीने बाद, वंदना गर्भवती हुईं। उस समय इस दंपति ने ठान लिया कि वे अपने दूसरे बच्चे को एक स्वस्थ और भरपूर ज़िंदगी देंगे। त्रिभुलोचन ने लावली गाँव में ज़मीन लीज पर लेकर खेती करना शुरू किया।
त्रिभुलोचन ने बताया, “मैंने सुभाष पालेकर जी की किताब और वीडियो आदि देखकर प्राकृतिक खेती के गुर सीखे। हर दिन कुछ न कुछ नया सीखता और प्रैक्टिस करता। ऐसा करते-करते मैंने सब्जियां लगाने से शुरूआत की और अब हम अनाज और दालें भी उगा रहे हैं। आज भी मैं सीख ही रहा हूँ।”
अपनी दूसरी बेटी के जन्म के बाद, वंदना भी अपने पति के साथ गाँव में ही रहने लगी। गाँव में उनकी ज़िंदगी आसान नहीं है। उन्हें अपना हर काम खुद करना पड़ता है लेकिन यहाँ की शांति उन्हें बहुत सुकून देती है। वह कहती हैं कि भले ही यहां बहुत ज़्यादा सुविधाएँ नहीं हैं लेकिन जो भी है सब शुद्ध है। वे ताजी-शुद्ध हवा में सांस ले रहे हैं और जो भी खाते हैं, वह सब उनके अपने खेतों में उग रहा है। इसके साथ, उनका उद्देश्य गांवों से हो रहे पलायन को रोकना है। वे गांव के युवाओं को समझाना चाहते हैं कि जिस अच्छी ज़िन्दगी की तलाश में वे शहर जाना चाहते हैं। उस अच्छी ज़िन्दगी को वे गांव में रहकर भी जी सकते हैं। बस ज़रूरत है तो सही दिशा में काम करने की।
त्रिभुलोचन अपने ढाई एकड़ में अलग-अलग तरह की फसलें उगा रहे हैं। उन्होंने प्राकृतिक ढंग से अपने फार्म को विकसित किया है। वहां के मौसम के हिसाब से वह फसलें लगाते हैं और उनकी कोशिश रहती है कि स्थानीय किस्में ही उगाएं। वैसे पहाड़ों में खेती करना बिल्कुल भी आसान नहीं है क्योंकि यहाँ सीढ़ीनुमा खेत होते हैं। यहां की मिटटी पथरीली होती है और खेतों की चौड़ाई ज़्यादा नहीं होती तो ट्रेक्टर और अन्य कृषि मशीनें वे इस्तेमाल नहीं कर सकते। जो काम करना होता है, वह सब हाथों से होता है।
फिर एक खेत, दूसरे खेत से काफी ऊंचाई पर होता है। ऐसे में, सिंचाई के लिए पानी की पाइपलाइन डालना भी किसी चुनौती से कम नहीं है। लेकिन इन सभी मुश्किलों को पार कर, यह दंपति अपने खेतों में अच्छी से अच्छी फसल लेने की जुगत में लगा है। शुरू में उन्होंने सिर्फ सब्ज़ियां उगाईं लेकिन अब वे अन्य फसलें भी ले रहे हैं। वे शिमला मिर्च, हरी मिर्च, बैंगन, भिन्डी, मटर, पालक, मूली, मेथी, हरी सब्ज़ियाँ, प्याज, मसूर, धनिया, अदरक, राई-सरसों, लहसुन, और पुदीना उगा रहे हैं। वे गाय के गोबर से खाद बनाते हैं और यदि कभी ज़रूरत पड़े तो गौमूत्र से कीट-प्रतिरोधक दवा बनाते हैं।
“वैसे तो हम ज़्यादातर अपनी फसल के प्रकृति पर ही निर्भर करते हैं। जैसे कि अगर कभी हमारी फसल पर तितलियों ने अंडे दिए हैं तो उनके कीड़ों को हटाने के लिए हम तुरंत कोई स्प्रे नहीं कर देते हैं। बल्कि हम थोड़ा इंतज़ार करते हैं कि चिड़िया हमारी फसलों में आकर इन कीड़ों को खा लें। इस सब में हमारी फसल का थोड़ा नुकसान भी होता है लेकिन अपनी फसल में जहर भरने से बेहतर है कि हम कम उत्पादन ले लें। हमारा यह भी मानना है कि प्रकृति पर इन जीवों का भी हक है और इसलिए इन्हें भी इनका हिस्सा मिलना चाहिए,” उन्होंने बताया।
साग-सब्ज़ियों के अलावा, उन्होंने चना, धान, तिल, समा के चावल, उड़द, मक्का, कुलथी दाल, रागी (मंडवा), और सोयाबीन की खेती भी शुरू की है। साथ में, वह मल्टी-क्रॉपिंग भी ट्राई कर रहे हैं जैसे मंडवे के साथ दाल लगाना और समा के चावल के साथ तिल की खेती। वह आगे कहते हैं कि प्राकृतिक खेती में बहुत-सी फसलें आपको प्रकृति भी देती है। जैसे उन्होंने अपने खेतों में कद्दू नहीं बोये थे लेकिन फिर भी उनकी एक फसल में लगभग 25 कद्दू की बेल लग गईं। कद्दू के कुछ बीज शायद गाय के गोबर में आ गए थे या फिर किसी पक्षी के ज़रिये। लेकिन इन बेलों से उन्हें अच्छा उत्पादन मिला।
अपने खेतों की सब्ज़ियों को वे स्थानीय मार्किट में बेचते हैं। बाकी अनाज और दालों को खुद प्रोसेस और पैक करके दिल्ली पहुंचाते हैं। उन्होंने कुछ समय पहले मसूर की दाल की कटाई की। जिसे सबसे पहले सुखाया गया और फिर इसे डंडे से कूटा गया। कूटने से दाल फलियों से अलग हो गई। अब इस दाल को अच्छे से साफ करने के लिए पहले सूप या फिर छलनी से छाना गया। फिर इसे अच्छे से धूप में सुखाया गया। इसके बाद, इसकी पैकेजिंग हुई। इस पूरी प्रक्रिया में इस दम्पति को लगभग एक महीने का समय लगा।
बेशक, यह दम्पति बहुत मेहनत कर रहा है लेकिन फिर भी इनकी सभी उपज बाज़ार तक नहीं पहुँच पाती। जिसकी सबसे बड़ी वजह है ट्रांसपोर्टेशन। पहाड़ों की सबसे बड़ी समस्या यही है। फिर भी वे कोशिश करते हैं कि पहाड़ घूमने आए लोगों में उन्हें अपने ग्राहक मिल जाएं। फिलहाल, उनका फोकस अपने ग्राहक ढूंढने पर है क्योंकि तब ही वे पहाड़ों में सफल प्राकृतिक खेती का मॉडल बना पाएंगे। वह कहते हैं कि उनके दिमाग में लाभ की बात दूर-दूर तक नहीं है क्योंकि अभी सवाल उनके सस्टेन करने का है।
आने वाले समय में उनकी योजना पशुपालन, फूलों की खेती, मधुमक्खी-पालन और इको-टूरिज्म शुरू करने की भी है। इको-टूरिज्म से स्थानीय रोज़गार बढ़ेगा क्योंकि उनके स्टे-होम में लोगों को काम मिलेगा, टूरिस्ट के आने से बाज़ारों की बिक्री बढ़ेगी और गाइड्स को भी ज्यादा मौके मिलेंगे। बाकी, वे सोशल मीडिया के सहारे सीधा अपने ग्राहकों से जुड़ने की कोशिश में हैं।
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