ताला, जालरा, करतला, करताल या गिन्नी, झांझ या मंजीरा (Manjira)… इसके नाम भले ही अलग हों, लेकिन इस प्राचीन वाद्य यंत्र का उपयोग देश के हर एक भाग के संगीत प्रेमी बड़े प्रेम से करते हैं। छोटे-बड़े आकार में आने वाले मंजीरे को अक्सर मंदिरों में भजन या लोक संगीत कार्यक्रम में इस्तेमाल किया जाता है। मंजीरे की ताल के बिना शायद ही कोई भजन पूरा होता हो।
‘ताल’ शब्द, संस्कृत शब्द ‘ताली’ से आया है और इसीलिए इसे बजाने का तरीका भी एक ताली के सामान ही होता। इसे पीतल, कांसे, तांबे या जस्ते के मिश्रण से दो चक्राकार चपटे टुकड़ों में बनाया जाता है, जिसके बीच में छेद होता है। मध्य भाग के गड्ढे के छेद में डोरी लगी रहती है। डोरी में लगे कपड़ों के गुटकों को हाथ में पकड़कर इसे बजाया जाता है।
ऐसा माना जाता है कि जब तबला वादक अपनी ताल भूल जाते हैं, तब मंजीरा (Manjira) कलाकार उन्हें वापस राह दिखाने में मदद करते हैं। वहीं, राजस्थान में तो सिर्फ मंजीरे की ताल पर ही पूरा का पूरा नृत्य प्रस्तुत कर दिया जाता है।
भारतीय क्लासिक नृत्य, जैसे- भरतनाट्यम, कुचिपुड़ी, मणिपुरी आदि में भी पैरों की ताल को मंजीरे की ताल से मिलाकर नृत्य किया जाता है। इसके अलावा, कोर्णाक के प्रसिद्ध मंदिर में भी मंजीरा बजाती कलाकृतियां देखने को मिलती हैं, जो इस बात को साबित करती है कि मंजीरा (Manjira) भारत के इतिहास से भी जुड़ा हुआ है।
हालांकि, आजकल कई जगहों पर इन पुराने वाद्य यंत्रों की जगह, की-पैड, ऑक्टोपैड और सिंथेसाइजर जैसे आधुनिक उपकरणों ने ले ली है, लेकिन मंजीरे ने अपनी चमक आज भी नहीं खोई।
अंजार (गुजरात) में कच्छ का मशहूर मंजीरा बनानेवाले जगदीश कंसारा कहते हैं कि चाइनीज़ इलेक्ट्रॉनिक यंत्र भी मंजीरे की आवाज़ और इसकी कृत्रिम ताल नहीं बना पाए हैं।
100 सालों से कच्छ का यह परिवार बना रहा मंजीरा
जगदीश भाई का परिवार पिछले 100 सालों से इस काम से जुड़ा हुआ है। अब तो परिवार की पांचवी पीढ़ी भी मंजीरा बनाने का काम कर रही है।
उनके अनुसार कच्छ में उनके परिवार ने ही मंजीरा बनाने का काम शुरू किया था।
इसके पीछे भी एक रोचक कहानी है। जगदीश भाई कहते हैं, “अंजार की जैसल-तोरल की समाधी में 100 सालों से भजन संध्या का कार्यक्रम किया जाता है। ऐसे में मेरे परिवार ने भजन के लिए मंजीरा बनाने का काम शुरू किया। उस समय हमारे पूर्वजों के बनाए मंजीरे देशभर में कच्छी मंजीरे के नाम से मशहूर हो गए और आज तक यह हमारा पारिवारिक बिज़नेस बना हुआ है।”
हालांकि, पहले उनके दादा-परदादा मात्र मजदूरी का काम करते थे। बड़े व्यापारी उन्हें ऑर्डर देते थे और कंसारा परिवार मंजीरे बनाकर देता था, लेकिन सालों बाद उन्होंने इसे खुद के ब्रांड नाम के साथ पारवारिक बिज़नेस बनाया। फिलहाल यह कच्छ का इकलौता परिवार है, जो मंजीरा (Manjira) बनाने का काम कर रहा है।
विदेश तक जाते हैं कच्छी मंजीरे
आज भी जगदीश भाई के कारखाने में इसे हाथ से मोल्ड करके तैयार किया जाता है। फिर इसके साउंड की ट्यूनिंग की जाती है। उनके यहां बनाए गए मंजीरे BMK पहचान के साथ बाजार में आते हैं। जगदीश भाई कहते हैं, “गुजरात के हर एक कलाकार के साथ, कई हिंदी, गुजराती और मराठी फिल्मों में भी हमारे ही मंजीरे इस्तेमाल किए जाते हैं। वहीं, पिछले 15 सालों से हम अमेरिका और लंदन जैसे देशों के मंदिरों में भी अपने प्रोडक्ट बेच रहे हैं।”
क्योंकि इस छोटे से वाद्य यंत्र की अब तक कोई कृतिम आवाज़ नहीं बनाई गई है, इसलिए आज भी इसकी मांग विदेशों तक बनी हुई है। जगदीश भाई ने बताया कि यूं तो वह मंदिरों के लिए घंटियां और दूसरा सामान भी बनाते हैं, लेकिन सबसे ज्यादा मांग मंजीरों की ही है।
कच्छ के अलावा, भारत में उत्तर प्रदेश के मुरादाबाद में भी मंजीरे बनाने का काम किया जाता है। नेपाल और तिब्बत इलाके में बड़े झांझ इस्तेमाल किए जाते हैं, जो दिखने में मंजीरे जैसे ही होते हैं, लेकिन इसकी आवाज़ में ज्यादा बेस साउंड रहता है। वहीं, छोटी साइज के मंजीरों की आवाज़ ज्यादा मधुर होती है।
इसे बजाना भी आसान है, लेकिन इसे किसी धुन के साथ ताल में बजाने का काम कोई मंजीरा कलाकार (Manjira Artist) ही कर सकता है। हमारे देश में हर एक भजन मंडली के साथ एक मंजीरा कलाकार होता ही है।
तो अगली बार जब आप किसी भजन संध्या या मंदिर में जाएं, तो मंजीरे की आवाज़ को जरा ध्यान से जरूर सुनें।
आप जगदीश कंसारा के मशहूर कच्छी मंजीरे खरीदने के लिए उन्हें 9825461920 पर सम्पर्क कर सकते हैं।
संपादनः अर्चना दुबे
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