सामाजिक कुव्यवस्था, निजी अनुभव, व्यक्तिगत बंधन तथा आत्मीय रिश्ते – ऐसी कई चीज़े है जो महिला लेखको को बाकी सब से अनूठा बनाती है। भारतीय लेखिकाओं के विषय मे यह बात विशेष तौर पर कही जा सकती है क्यूंकी यहाँ एक महिला कई तरह के सामाजिक एवं निजी भूमिकायें निभाती है। आइए देखे कि इन लेखिकाओं की लेखनी मे ऐसा क्या है जो इन्हे भीड़ से अलग करती है।
भारत मे इस वक़्त कई लेखिकायें है जो चाहती है कि उनके लेखन को स्त्री पुरुष के लिंग मतभेदो से परे होकर देखा जाए। परंतु इसका अर्थ ये नही है कि उन्हे स्त्रियों द्वारा लिखे स्त्रियों पर आधारित अपनी कृतीयो पर गर्व नही है।
जानी मानी बांग्ला लेखिका श्रीमती नबनिता देब सेन, जो ‘शोई‘ नामक बंगाल की महिला लेखक समिति की अध्यक्षा है, कहती है,
“हम इसे ऐसे कह सकते है कि लेखन के इस क्षेत्र मे हम महिला लेखिकाओं का अपनी कहानी दर्शाने का एक अपना अलग अंदाज़ है। मुझे लगता है इसके लिए हमे एक अलग और समर्पित मंच की ज़रूरत थी इसी कारणवश बंगाल मे कुछ समरुचिकार लेखिकाओं ने मिलके सन 2000 मे शोई की शुरूवात की। कई महान लेखिकाएं जैसे कि सूचित्रा भट्टाचार्य, मैगसेसे पुरस्कार विजेता- महाश्वेता देवी, प्रख्यात नृत्यांगना- अमला शंकर इस मंच के साथ शुरू से जुड़ी रही।”

संयोगवश, शोई जो एक बांग्ला शब्द है और जिसके तीन मायने होते है – हस्ताक्षर, सखी और सहन करना – ने पिछले साल अपने 13 साल पूरे किए है। शोई का एक संस्करण, ‘शोई शाबूत’ शायद हमेशा स्मरणीय रहेगा जिसमे कलात्मक तथा बुद्धिजीवी महिलाओ के उस आंतरिक चाह के बारे मे लिखा गया है जिसमे वे अपनी कला को पेश करने का एक मंच चाहती है, एक ऐसा मंच जहाँ उनकी कला को सराहा जाए, जहाँ वे दूसरो के जीवन के हार जीत से कुछ सीखे, जहाँ उन्हे अच्छे बुरे की पहचान हो और जहाँ उनकी कड़ी से कड़ी आलोचना हो पर वे इन आलोचनाओ के बीच भी सुरक्षित महसूस करे।
फिर ऐसा क्या है जो उपेक्षित होने के बावजूद, ये महिलाए लिखती है और बिना किसी अपेक्षा के लिखती है? ऐसी कौनसी विचारधाराएँ है, ऐसी कौनसी शक्ति है जो इन्हे लिखते रहने की प्रेरणा देती है? दलित परिवार से आयी मराठी की प्रख्यात लेखिका उर्मिला पवार अपने अनुभव बाँटते हुए कहती है,
“मैं इस दुनिया मे अपनी जाती, प्रजाति और स्त्रीत्व का अभिशाप लेकर जन्मी थी। एक स्त्री होने का दर्द, विशेषतः एक दलित स्त्री होने की पीड़ा तथा सामाजिक भेदभाव को उजागर करने की मेरी इच्छा ने ही मुझे लेखक बना दिया।“

उर्मिला की आत्मकथा ‘आयदान ‘, उनके और उनसे जुड़ी कई स्त्रियो के जीवन की कहानियो का संग्रह है।
शोई सम्मान 2013 से सम्मानित दो महिलाओ मे से एक, उर्मिला कहती है,
“मुझे गर्व है इस बात पे कि मैं स्त्रियो को अपनी कहानी बताने तथा लिखने को प्रोत्साहित करती हूँ और ऐसा करने की शक्ति मुझे मेरे लेखन से ही मिलती है।”
पद्मश्री पुरस्कृत लेखिका शशि देशपांडे भारतीयो के लिए अँग्रेज़ी मे लिखती है परंतु पाश्चात्य से बिल्कुल प्रभावित हुए बगैर।
उनसे जब हमने पूछा कि वे हमेशा महिलाओ के पहलू को ही क्यूँ पेश करती है तो उन्होंने कहा,
“मैं महिलाओ के विषय मे और उनके नज़रिए से क्यूँ न लिखूँ? इस तरह लिखने के लिए हमे हमेशा से छोटा महसूस कराया गया, हमारी आलोचना की गयी पर अब नही!!”

भारतीय ज्ञानपीठ विजेता उड़िया लेखिका, प्रतिभा राय जो सामाजिक कुव्यवस्था के विरुद्ध लिखती रही है, मानती है कि,
“पुरुष और महिला लेखको मे कोई अंतर नही है। लेखन जैसी उत्कृष्ट कला किसी भी लिंग मतभेद के परे है।”
हालाँकि वे ये भी मानती है कि कई बार एक महिला होने के नाते महिलाओ के दृष्टिकोण से लिखना स्वाभाविक हो जाता है।
वैसे तो प्रतिभा पहले से ही एक प्रतिष्ठित कवियत्रि थी परंतु माँ बनने के बाद उन्होने कुछ वक़्त के लिए लिखना छोड़ दिया। उनका मानना था कि अब उन्हे अपनी सारी उर्जा अपने तीनो बच्चो की परवरिश मे लगानी चाहिए। पर जीवन के इस अध्याय के बाद जब उन्होने फी एक बार कलम उठायी तो वह केवल महिला पात्रो को शांति दूत के तौर पर दर्शाने के लिए।
“स्त्रियो को दिए गये यथास्थिति तथा समाज द्वारा पीड़ित लोगो के खिलाफ लड़ने का एक माध्यम है नारीवादी लेखन। मेरी ‘द्रौपदी’ (राय की एक जानी मानी रचना), एक ऐसी महिला की कहानी है जो आधुनिक होने के साथ साथ लड़ाई के भी खिलाफ है और शांति की समर्थक है,” – प्रतिभा राय

इस सन्दर्भ मे कई अनुसंधानकर्ता तथा लेखको ने यही लिखा है कि महाभारत का युद्ध तभी पूर्व निर्धारित हो गया था जब कौरवो ने भरी सभा मे द्रौपदी का चीर हरण किया था। और ये द्रौपदी के ही प्रतिशोध की अग्नि थी जिसने कुरुक्षेत्र के युद्ध को जन्म दिया।
“मेरी लेखनी प्रकृति की सुंदरता तथा कुनिति ग्रस्त समाज का मिश्रण है,” ऐसा प्रतिभा जी का कहना है।
वे अपने सशक्त तथा विद्रोही लेखनी का श्रेय अपने परिवार की धार्मिक मान्यताओ को देती है। प्रतिभा वैष्णव धर्म को मानती है जिसमे जाती तथा प्रजातियो के भेद को नही माना जाता। वैष्नवीयो के अनुसार सब समान है। इसके अलावा उनपर अपने पिता का भी बहुत प्रभाव है जो गाँधीजी के परिचारक है। ‘पूरी’ से होते हुए भी उन्होने आज तक वहाँ के प्रसिद्ध ‘जग्गानाथ पूरी’ मंदिर के दर्शन नही किए। इसका कारण वे वहाँ हो रहे धर्म के व्यावसायीकरण को बताती है। पुजारियो द्वारा आम जनता को ठगा जाना और जाती के आधार पर भेदभाव करना उन्हे एक भयावय दृश्य लगता है।
“ये वहाँ हो रहे भ्रष्टाचार के खिलाफ मेरे विरोध का एक तरीका है“, प्रतिभा जी ने दृढ़ता से कहा।
हमारे समाज मे ऐसी कई महिलाए है जो अपनी किसी ग़लती की वजह से नही बल्कि समाज मे हो रहे उथल पुथल के कारण कई ज़ुल्मो की शिकार हुई है। ऐसी ही पीड़ित महिलायें आपको सदा असामी लेखिका अरूपा पतंगिया कलीता द्वारा लिखित कहानियो की प्रवक्ता के रूप मे मिलेंगी।
1980 तथा 1990 के दशक मे असम मे अलग राज्य के लिए हो रहे आंदोलन मे कई घर टूटे. बदले की भावना से कई लोगो ने बेहिसाब कत्ल किए। ऐसे मे कई परिवारो को मजबूरन अपना घर छोड़ना पड़ा तथा मानसिक एवं आर्थिक परेशानियो से भी जूझना पड़ा।
अरूपा जी का उपंन्यास, ‘फेलानी’ तथा अन्य लघु कथाएं इसी पृष्टभूमि पर लिखी गयी है, जहाँ इस विषय को बेहद संवेदनशील रूप मे दर्शाया गया है।
वे कहती है, “मैने इस वेदना को बहुत करीब से देखा है। मैने अपने प्रति हो रहे बहिष्कार को भी सहा है क्यूँकि मैने इस विचारहीन हिंसा के खिलाफ आवाज़ उठाई -विशेषकर देशभक्ति के नाम पर हो रहे अपहरण तथा लूट के खिलाफ। पर मैने इन कुप्रथाओ के खिलाफ लिखना नही छोड़ा।“

photo source- Goodreads
‘वैदेही ‘के उपनाम से लिखने वाली कन्नडा लेखिका भी खिलाफत की भाषा ही लिखती है पर उनका मानना है कि उनकी लेखनी मे एक शीतलता ज़रूर है।
वैदही ज़ोर देते हुए कहती है, ” मैं ‘समानता’ शब्द का उपयोग बेहद सावधानी से करती हूँ। मूलतः हम पुरषो से अलग है। हमारी भावनाए, हमारी संवेदनाए भी उनसे कई मामलो मे अलग है। “

वैदेही अपनी कहानियां आधुनिक तरीके से लिखती ज़रूर है पर उनमे आपको कई लोक कथाओ तथा वैदेही के बचपन से जुड़े कई रस्मो का उल्लेख मिलेगा।
इन लेखीकाओ के अभिव्यक्ति का तरीका तथा उनके प्रेरणास्रोत भले ही अलग अलग हो, पर ये सभी जानी मानी लेखिकाएं एक बात पर सम्मत होंगी।
इन सबकी ओर से बोलते हुए प्रसिद्ध हिन्दी लेखिका मृदुला गर्ग कहती है,
“मैं लिखती हूँ क्यूंकी मैं कुछ और करने का सोच ही नही सकती। लिखना मेरे लिए साँस लेने जैसा है।“

यह लेख मूलतः विमन’स फीचर सर्विस के लिए रंजीता बिसवास द्वारा लिखा गया तथा व.एफ.एस की सहायता से ही यहा पुनः प्रकाशित किया गया है.
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