रोज़मर्रा की वीणा का वीतराग*
अल सुबह घुस आया है खिड़की से,
वही पुरानी बासी आवाज़ें
सुतलीबम का
चोंचभर धागा लिए
फुदकती गौरैया
मुंडेरों पर गिरे तेल के घेरों में
मिट्टी के दिए
शराब की खाली बोतलें
ताश के पत्ते
इक्के और सत्ते
बारूद से जली ऊँगली
बीवी का कमरदर्द
ज़र्द आँगन,
सर्द गुझिया – जो पड़ोसी ने भिजवाई थी.
अबके उसके घर
अहमदाबाद से चहकती भतीजी आई थी.
वो भी कल रात चली गयी
दीवाली भी.
रंगोली झाड़ू के इंतज़ार में है
मुझे चाय अच्छी नहीं लग रही
और लो,
सिगरेट का डब्बा भी खाली है
टीवी पर बत्तीसी निकाले
सियासती मवाली है
गनीमत है कि ठण्ड बढ़ी है
रज़ाई खींच कर दुबका ही रहूँ
बाई शायद नहीं आने वाली
घर में घोर संकट है
पटक-पटक के बर्तन घिसने की आवाज़ें
रेडियो पर बिना बात हँस रहे आर जे
‘भाई-बहन ऑफ़ द इयर’
की सेल्फ़ी लेने वाले दोनों के बीच
कुत्ते-बिल्लियों की लड़ाई
उधर माली खीसें निपोरता इनाम लेने आया है
रोज़मर्रा की वीणा की टेर से
अंदर-बाहर घबराया है
चलो चील के दो-चार बच्चे पालता हूँ
टूटा-फूटा नरक ही सही
थोड़ा बुहार के डेरा डालता हूँ
भुगतना तो है – मृत्युलोक वैसे भी पराया है
आज फिर से साबित हो गया –
कुछ नहीं धरा इस जीवन में
सब थोथी माया है..
इस कविता में हास्य है शायद, या सच्चाई है, मुझे नहीं पता.
जीवन के सवाल पर हूबनाथ की एक छोटी सी कविता राजेंद्र गुप्ता जी से सुन लें –
*वीतराग = राग मतलब लगाव, विराग उसका उल्टा यानि किसी चीज़ से मोहभंग, वीतराग होता है एक सम्यक/ तटस्थ दृष्टि से देखना।
लेखक – मनीष गुप्ता
हिंदी कविता (Hindi Studio) और उर्दू स्टूडियो, आज की पूरी पीढ़ी की साहित्यिक चेतना झकझोरने वाले अब तक के सबसे महत्वपूर्ण साहित्यिक/सांस्कृतिक प्रोजेक्ट के संस्थापक फ़िल्म निर्माता-निर्देशक मनीष गुप्ता लगभग डेढ़ दशक विदेश में रहने के बाद अब मुंबई में रहते हैं और पूर्णतया भारतीय साहित्य के प्रचार-प्रसार / और अपनी मातृभाषाओं के प्रति मोह जगाने के काम में संलग्न हैं.