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मेरी बेटी होती तो उसका नाम लाल टमाटर रखता!

मेरी बेटी होती तो उसका नाम ‘माहोपारा’ रखता
उसका नाम ‘मधुमालती’ रखता
नहीं ‘सुबह’ ठीक रहता
या फिर ‘कचरा’? कि कोई न देखे

हॉस्टल के ज़माने से पक्का था कि चार बेटियाँ गोद लेनी हैं. एक काली, मोटे चश्मे वाली तमिल लड़की, एक आसाम से, एक पंजाबन, एक महाराष्ट्रियन. क्लास में यह भी कहते थे कि बेटा हुआ तो कहीं चौराहे पर छोड़ आयेंगे.. क्योंकि करेंगे क्या बेटे का.. ना फ़्रॉक रिबिन में सजा धजा कर कंधे पर बिठा कर उसे बाज़ार ले जा सकते हैं.. तरुणाई फूटी नहीं कि आवाज़ कर्कश हो जायेगी उसकी.. माँ भले ही उसे देख देख कर फूली न समाती रहे बाप के किस काम का.. क्लास में हम सभी देश के कोने कोने से थे.. मिडिल क्लास, पढ़े-लिखे परिवारों के बच्चे जहाँ लड़के माँ से तो खूब चिपकते-विपकते थे, बाप से दूरी बनी रहती. बाप हमें देख कर गुर्राता था, हम बाप को देख कर. एकाध साल में पचास के हो जायेंगे लेकिन आज भी खुले नहीं हैं. साथ बैठ कर शराब भी पी ली पर खुले नहीं. किसी अजनबी लड़की को ‘बोरिंग पार्टी है कहीं बाहर चलें?’ बोलने की हिम्मत हो जायेगी पर बाप पर कितना भी प्यार आये उन्हें ‘आई लव यू’ बोलने में आज भी पसीना निकल आएगा।

हाँ, मरने के बाद बोलेंगे. कबर पर. लोगों को फ़ोटो दिखा दिखा कर. किस काम के होते हैं लड़के??

ख़ैर, हॉस्टल में खायी कसम बरक़रार रही. ‘जनसँख्या इतनी है ख़ुद का बच्चा पैदा करे वो देश का दुश्मन है.. और एक ग़रीब को गोद ले ले तो एक तीर से तीन शिकार हो जायेंगे’ जैसी भावना के साथ ख़ुद का बच्चा न हो ये कसम ली थी. जो शायद बाद में बदल जाती लेकिन चार लड़कियाँ गोद लेने के ख़याल का रोमान्स अपने बच्चे से ज़्यादा शीरीं, ज़्यादा दिलचस्प रहा. हमेशा.

और गोद लेने की कोई सूरत नहीं बनी.
अब लीगली ले भी नहीं सकते, उम्र का तकाज़ा है.
तो क्या हुआ.. वैसेही किसी को, कभी भी ‘तू मेरी बेटी है’ मान कर उठा लेंगे. समाज में ऐसा नहीं होता. लेकिन सच्ची बात तो ये है कि क्या नहीं होता??
अभी नहीं तो क्या हुआ बुढ़ापे में बेटी/याँ होंगी इस बात में कोई शक़ नहीं है.

जब होगी (अगर हुई) तो उसके पति से लड़ना भी पड़ा तो उसका नाम माहोपारा रखूँगा.

जिनकी बेटियाँ हैं वो क़िस्मत वाले हैं.
जो बेटे वाले हैं उनके घर की रौनक शायद उनकी बहू बने पर आजकल ऐसी उम्मीद करना अपने बच्चों को यंत्रणा देना है.
हाँ बुढ़ापे में बीवी बड़ी मज़ेदार हो जाती है. मतलब ऐसा होना बहुत मुमकिन है कि पति-पत्नी की जुगलबंदी अच्छी हो जाए.

हमारे MCA की पूरी क्लास में बात हुई थी. 1991-92 था ज़माना बदल रहा था.
हम सब उम्मीद से भरे हुए थे.
अब 2018 है ‘बेटी बचाने’ की बात हो रही है..
ये कहाँ आ गए हैं हम?
क्या कीजियेगा इन बेटों का??

(निःश्वास) पेश है ‘हिन्दी कविता’ यूट्यूब चैनल का सबसे ‘CUTE’ वीडियो जो आपका दिन बना देगा.
इसे उन उल्लू के पट्ठों सासों-ससुरों माँओं-बापों को भी दिखाएँ जो आपका ‘बेटा’ होने का इंतज़ार कर रहे हैं..


लेखक –  मनीष गुप्ता

फिल्म निर्माता निर्देशक मनीष गुप्ता कई साल विदेश में रहने के बाद भारत केवल हिंदी साहित्य का प्रचार प्रसार करने हेतु लौट आये! आप ने अपने यूट्यूब चैनल ‘हिंदी कविता’ के ज़रिये हिंदी साहित्य को एक नयी पहचान प्रदान की हैं!


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