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वो दिन क्या हुए?

ठीक दस बजे मेरी साइकिल चीकू के घर के सामने रुकी. अभी तक की पंद्रह साला ज़िन्दगी में यह शायद बहाद्दुरी का सबसे बड़ा कारनामा था. दिल एक पानी से निकली बड़ी मछली की तरह छटपटा कर मानों शरीर से बाहर निकल जाना चाहता था. लेकिन मैंने किसी तरह उसे दबोच रखा था.

साइकिल को स्टैंड पर लगाना चाहा तो कम्बख़्त ठीक से खड़ी न हो. ज़मीन उबड़-खाबड़ थी या स्टैंड ख़राब था या मेरी अस्थिर मनःस्थिति अब वो तो याद नहीं लेकिन एक आवाज़ याद है जो ज़ोर ज़ोर से अंदर से आ रही थी कि क्या कर रहा है बे, वापस चला जा. जैसे तैसे साइकिल को हाथ में ही पकड़ कर घंटी बजायी. ऐसा लगा कि अंदर कोई हरकत हुई. पता नहीं कौन दरवाज़ा खोलने आएगा. पता नहीं मेरे गले से आवाज़ निकलेगी या नहीं. थूक गटक कर गले तो तैयार रखा कि जब बोलने की नौबत आये तो शब्द कहीं अटक ही न जाएँ. कोई तीस सेकन्ड्स हो गए घण्टी बजाये लेकिन अभी तक तो कोई नहीं आया. अब तक यह विश्वास हो चला था कि आज कुछ गड़बड़ होने ही वाली है. मछली की तरह फड़फड़ाता दिल अब था ही नहीं, वहाँ कोई ख़ाली गड्ढा था – एक गहरा कुँआ जिसकी तलहटी में एक बाइक स्टार्ट नहीं हो रही थी और कोई वहशियों की तरह किक पर किक मारे जा रहा था.

एक तो दरवाज़ा खुलने में इतनी देर हो रही थी, दूसरे इस फ़ितरती दिमाग़ की उड़ानें देखो.. कुँआ, मछली, स्टार्ट नहीं हो रही बाइक.. मुझे शक़ हुआ कि कोई अंदर से बाहर झाँक के देख रहा है और मेरी मनःस्थिति के मज़े ले रहा है. फिर लगा कि पूरा परिवार अंदर एक साथ है और सब गुस्से से मुझे अंदर से देख रहे हैं. हे भगवान कहाँ फँस गया आज.  अरे भाई कोई बाहर आ कर डाँट ही दे.. मैं चला जाऊँ यहाँ से झंझट तो ख़त्म हो.

सुबह सुबह क्रिकेट खेलते वक़्त सब दोस्तों ने गन्दी गन्दी गालियाँ दी थीं (उन दिनों हम गालियाँ देना सीख रहे थे और हमारी रचनाधर्मिता का बड़ा हिस्सा नयी नयी गालियाँ ईजाद करने में जाता था) कि ‘#@$%’ इतरा मत. मैं क्यों नहीं इतराता चीकू के घर जो जाना था.  चीकू, हम सबके जीवन का अभिन्न अंग थी. स्वप्न सुंदरी थी. उसके एक इशारे पर हम क्या नहीं कर गुज़रते. हम सब उसे लगभग दो सालों से जानते थे. छिंदवाड़ा में एक सबसे बड़ी ख़ासियत यह थी कि लड़कों और लड़कियों का स्कूल आमने-सामने है. लड़कियाँ लाल कुर्ती और सफ़ेद सलवार में होती थीं और हमें ख़ाकी पैन्ट्स और सफ़ेद शर्ट पहननी होती थी. एक जैसे कपड़ों की भीड़ में भी चीकू अलग ही नज़र आती थी. अपनी साइकिल से जब स्कूल जा रही होती तो हम सब ‘ताड़’ लेते थे उसे. फिर ठण्डी आहें भर कर अपनी कक्षाओं में चले जाते. मुझे नहीं लगता कि किसी ने कभी बात भी की थी उससे. लेकिन उसे हम सब जानते थे. उसके बारे में बातें किया करते थे.

अब तक तो मैं यह पूरी तरह मान चुका था कि अंदर पूरा परिवार इकठ्ठा है और यह विमर्श कर रहा है कि इस लड़के के साथ क्या किया जाय. अभी भी मौक़ा था मैं निकल सकता था. फिर मुझे हमारे चहेते सुरेंद्र मोहन पाठक का हरदिलअज़ीज़ नायक सुनील चक्रवर्ती याद आया. वो क्या करता अगर वो मेरी जगह होता? टॉम सायर क्या करता? मैं हक़ फ़िन हूँ या टॉम सायर? इनके अलावा और भी लोग याद आये उन्होंने थोड़ी ताकत दी, मैंने गहरी साँस ली और दूसरी बार घण्टी बजा दी. लापरवाह दिखने की कोशिश तो पहले से ही ज़ारी थी. सत्रह बार सोच समझकर सबसे अच्छे कपड़े पहन के आया था लेकिन सब गड़बड़झाला हो ही गया था.. फिर दिखा कि शर्ट के बटन भी ऊपर नीचे लगे हैं.. हे भग- इसके पहले कि शर्ट का कुछ करता दरवाज़ा खुला और चीकू बाहर आयी.

खून सूख गया, तोते उड़ गए (वो ज़रूर मेरी बटन देख कर हँस रही थी) मैंने ऑर्गेनिक केमिस्ट्री की किताब उसे पकड़ाई. उसने किताब ले ली पता नहीं क्या चल रहा था उसके दिमाग़ में क्यों उसे हँसी आ रही थी. मुझे पता नहीं चल रहा था लेकिन कुछ तो मैं अजीब सा कर ही रहा होऊँगा तभी तो वो हँसी रोक रही थी. मैं वहाँ से ग़ायब हो जाना चाहता था.

“प्रिज़्म..”, एक बेकार, वाहियात सी आवाज़ मेरे गले से निकली. कहाँ तो हम अमिताभ बच्चन की आवाज़ में बोलने का शिद्दत से रियाज़ किया करते थे कहाँ जब वक़्त आया तो मिमियाना सा निकला. ‘शाबास, बहुत ख़ूब मनीष कुमार, तुम हो ही निरे बेवक़ूफ़’. मैं भी उसकी तरह इंसानियत से मुस्कुरा सकता था लेकिन चेहरा एक चट्टान की तरह खिंचा हुआ था. भावशून्य.

“ओह..:, उसने अपनी जेब से प्रिज़्म निकाला और मुझे दिया. और तब वो अनहोनी हुई.. उसकी ऊँगली ने मेरी ऊँगली को छुआ.. मेरी रग रग में रागिनियाँ बजीं. एक सनसनाहट पूरे शरीर में दौड़ी. मैंने उसकी तरफ़ देखा, वो हँसी दबा कर मेरी तरफ़ देख रही थी. पता नहीं क्या कह रही थी.. मेरे मज़े ही ले रही होगी. मैंने नज़रें चुरा लीं – कहा “अच्छा” और जैसे कोई बकरा कसाई की पकड़ से भाग निकले वैसे ही ताबड़तोड़ पैडल मारता हुआ निकल गया. मुझे पता था कि वो पीछे खड़े हो कर मेरी ओर देख रही होगी, अब शायद खुल के हँस रही होगी। जैसे तैसे आख़िरकार उसकी गली का मोड़ मुड़ा और मैंने चैन की साँस ली. लेकिन सब गुड़गोबर हो चुका था. बात करने का ऐसा मौक़ा, इम्प्रैशन जमाने का अवसर खो चुका था. जिसको शर्ट के बटन बंद करने भी नहीं आते उसका यही हश्र होना था. और इससे घटिया और कौन सी बात होती कि टॉम सायर, सुनील चक्रवर्ती, अमिताभ बच्चन का मुरीद का इस बात पर ख़ुश था कि उँगलियाँ छू गयीं.. उसको पता भी नहीं चला होगा कि ऐसा कुछ हुआ भी है. बाक़ी बचे हुए दिन में न तो किसी दोस्त से मिलने का मन हुआ, न पिक्चर जाने का न ही कोई किताब पढ़ने का.

रात भी धीमे धीमे गुज़री.

दूसरे दिन स्कूल में मोटे ने ढूँढ निकाला मुझे, क्लास में था, कोई ज़्यादा बात नहीं होती थी उससे. कहने लगा: “तू अपने आपको बड़ी तोप तो नहीं समझ रहा है न. उसकी उँगली छू कर आया है तो कोई बड़ी बात नहीं हो गयी.”

हैं? इसे कैसे पता? ये वहीं कहीं रहता था शायद चीकू का कज़िन था दूर का. इसे किसने बताया.. ओह ओह बता तो सिर्फ़ चीकू ही सकती थी. मतलब उसे भी पता चला छुअन का.. उसे पता तो था कि मैं भी उसे देखने वालों में था.

इसके आगे की कहानी कुछ नहीं है. वो पंद्रह साल की उम्र थी आज से कोई चौंतीस साल पहले की बात है, वो ज़माना कुछ और था. एक बार एक भरपूर नज़र से कोई देख लेती थी तो फिर बंदा सालों उसके ही ख़्वाब सजा कर रखता था. हर मोहल्ले में यह सिलसिला चलता था – छज्जे से ताकना, देखना-वेखना, कभी कभार भीड़ में कुछ कह गुज़रना और उसकी हँसी छूट जाना. कभी कभार ख़त लिखने का भी सिलसिला बन जाता था और दोनों मिल कर मर जाने की बात करते थे. भागने की नहीं बात मर जाने की होती थी. अंदर से दोनों को ही मालूम होता था कि शादी होने की कोई गुंजाइश ही नहीं है. आगे चल कर अधितकर लड़कियों की शादी माँ-बाप की मर्ज़ी से हो जाती थी. लड़के अपने दोस्तों के साथ ग़म मनाते, लड़कियाँ अपने ससुराल की होने की कोशिश करतीं. वहीं की हो कर रह जातीं. मायके हर साल लौटतीं और कभी उससे मिलतीं तो भी बिना हसरत, बिना ग्लानि के. फिर दो तीन साल में मजनूँ मियाँ के घर भी एक अदद बीवी आ जाती. तमाम उम्र भर दोनों के दिलों में क्या गुज़रती वो उनके दिल में ही रहती.

क्या लिखना शुरू किया था, यहाँ कैसे पहुँचा अब ठीक से तो पता नहीं पर आजकल किशोरों के इश्क़ और ब्रेकअप का खेल देख कर लगता है कि उनसे कहा जाए कि आप लोग इतने मज़े नहीं ले पा रहे हो. यहाँ फ़ास्ट फ़ूड जैसी नेकनीयती है. दिखने का, स्वाद का मामला है.. लेकिन आपको एक सम्बन्ध कितना पोषक कर सकता है वह गायब है. मैं यह नहीं कहूँगा कि आज इसके साथ कल उसके साथ में कोई ग़लती है लेकिन ये आपकी जड़ें विकसित होने की भी उम्र है.. और व्यक्तित्व की जड़ें ठीक से उन्नत नहीं हुईं तो ख़ामियाज़ा जीवन भर भुगतना पड़ सकता है. ग़ौर से देखें पिछले 2-3 सालों के बनते बिगड़ते संबंधों में कितना वक़्त और ध्यान आपके सम्बन्ध खा गए और क्या हासिल हुआ? एक तलाश ही न? तलाश भी अगले इंसान की.. अपने आप की नहीं. बात यह नहीं है कि विर्जिनिटी (कौमार्य) किस उम्र में गँवाया बात यह है कि धीरे धीरे एक नज़र का, एक छोटी सी छुअन का, एक पत्र के इन्तिज़ार का लुत्फ़ जाता रहा.

जो समझदार हैं वो आज भी श्रृंगार रस के मज़े ले लेते हैं. जो जल्दी में हैं उनकी बैचेनी में ही कटेगी.
इस बात के साथ पेश है एक श्रृंगार रस का वीडियो जिसे US में फ़िल्माया गया था. राधारमण कीर्तने जी फ़्लोरिडा में पंडित जसराज के स्कूल का काम सँभालते हैं और सारा फ़ीस्ट वहीं की अभिनेत्री हैं:

लेखक –  मनीष गुप्ता

हिंदी कविता (Hindi Studio) और उर्दू स्टूडियो, आज की पूरी पीढ़ी की साहित्यिक चेतना झकझोरने वाले अब तक के सबसे महत्वपूर्ण साहित्यिक/सांस्कृतिक प्रोजेक्ट के संस्थापक फ़िल्म निर्माता-निर्देशक मनीष गुप्ता लगभग डेढ़ दशक विदेश में रहने के बाद अब मुंबई में रहते हैं और पूर्णतया भारतीय साहित्य के प्रचार-प्रसार / और अपनी मातृभाषाओं के प्रति मोह जगाने के काम में संलग्न हैं.


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