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फिर छिड़ी रात बात फूलों की….

“आप कल राजकुमारी इंदिरादेवी धनराजगीर से मिल रहे हैं!”

“ये कौन हैं? अगर सचमुच की राजकुमारी हों तो कोई बात बने”

“ये राजकुमारी ही हैं, मिल कर आपका दिल ख़ुश हो जाएगा”
सलीम भाई के चेहरे पर बड़ी आसानी से मुस्कान आती है. सलीम फ़ाज़िल साहब हैदराबाद में पत्रकार हैं, एक दो दिन पहले ही मिले हैं.
“एयरपोर्ट से होटल तक साथ चलता हूँ, आपसे लम्बी बात करनी है.”

“लम्बी बात के लिए शाम को न मिलें?”

“भाईसाहब, एयरपोर्ट से आपका होटल 55 किलोमीटर दूर है, पहुँचने में ही शाम हो जायेगी”  

पचपन किलोमीटर? मेरा मुँह खुला का खुला रह गया. इतना बड़ा है हैदराबाद?  

तो जनाब ऐसे सलीम साहब से पहली मुलाक़ात हुई थी कार में. हिन्दी कविता और उर्दू स्टूडियो के लिए इंटरव्यू लेना चाहते थे लेकिन अच्छा हुआ कि बातचीत किसी और दिशा में गयी.

“आप हैदराबाद से क्या चाहते हैं?”, उन्होंने पूछा.

बड़ा मुश्किल प्रश्न था. क्या चाह सकते हैं आप किसी शहर से? क्या जवाब दूँ..

हिन्दी कविता प्रोजेक्ट के लिए कुछ वीडियोज़ शूट करने हैं, क्या ऐसा कहूँ? लेकिन असल में हिन्दी कविता प्रोजेक्ट है क्या? कोई फ़ॉर्मेट तो है नहीं.. साहित्य भी है इसमें, संस्कृति भी है, इतिहास भी, दर्शन भी कविता कभी प्रमुख है, कभी कविता के बहाने इधर उधर की बातें हैं. फिर कवि में दिलचस्पी जागे ऐसा भी प्रयास है और पढ़ने वाला भी लोगों को नज़र आये उसकी शख्सियत दिखे.. ये सब कुछ हो, कुछ भी नहीं हो.. क्या जवाब दूँ इन्हें?

तब तक उन्होंने सवाल फिर से दाग दिया, “क्या चाहते हैं हमारे शहर से?”

फिर मैंने जवाब दे ही दिया. जब तक होटल नहीं आया कुछ न कुछ बोलता ही रहा.

बताया कि हिन्दी कविता प्रोजेक्ट तो मैं नहीं जानता हूँ.. जैसे जैसे आगे बढ़ रहा है, जैसे जैसे दर्शकों के लिए इसकी तहें खुल रही हैं, वैसे ही मेरे लिए भी यह यात्रा है अगले मोड़ के आगे क्या है यह तो आने वाला मोड़ ही बताएगा.

ये कोई नयी बात नहीं थी.. कितने ही लेखकों ने पहले यह बात कही है. आख़िरी बार मैंने हारुकी मुराकामी के शब्दों में सुना था कि मुझे नहीं मालूम कि मेरा उपन्यास कहाँ जाएगा।

कमोबेश दो साल लगते हैं एक उपन्यास लिखने में. यह एक यात्रा है, मैं तो बोर हो जाऊँगा अगर मुझे मालूम हो कि कहाँ जाना है, और रास्ता क्या है? उन्होंने कहा था कि जैसे पाठकों के लिए पढ़ते पढ़ते सफ़ा दर सफ़ा कहानी खुलती जाती है ठीक वैसा ही मेरे साथ भी होता है. और यही मुझे हिन्दी-कविता (और उर्दू-स्टूडियो) प्रोजेक्ट के साथ लगता है. शहर दर शहर भटकता हूँ.. हर तरह के हर विधा के कलाकारों से, साहित्यकारों से, पत्रकारों, साधुओं, फ़कीरों, मलंगों, बच्चों, बूढ़ों से मिलता हूँ.. कभी कुछ निकलता है कभी सिर्फ़ मज़ा आता है वीडियो नहीं बन पाता है. अस्ल बात पूछें तो जहाँ भी मज़ेदार बात हो, अच्छा खाना हो, अच्छा पीना हो, अच्छा देखना सुनना हो, हँसी-मज़ाक हो, कुछ सीखने मिले चला जाता हूँ वीडियो बना तो उसे बोनस समझ लेते हैं. “तो सरकार आप ही कहें कि आप के शहर से क्या चाहा जाए?”

“समझ गया”, सलीम भाई ने अपनी अब तक चिर परिचित लगने लगी मुस्कान के साथ कहा और वो टैक्सी से उतर गए.

बाद में एक के बाद एक इंसानी ख़ज़ाने जुटाने शुरू कर दिए. कितने ही विलक्षण लोग मिले और अब मिलने की बारी थी धनराजगीर पैलेस जिसे ज्ञानबाग़ पैलेस भी कहते हैं में रहनेवाली इंदिरा देवी जी से.

चूँकि नामपल्ली हैदराबाद में स्थित यह महल रिहायशी है यहाँ आम पर्यटक का प्रवेश संभव नहीं है, यह बात बाद में हम पर खुली जब यहीं रहने वाली नेहा जो हमारे क्रू में थी ने अपनी सबसे अच्छी साड़ी पहनी और गजरा भी लगाया था. अब क्रू के सदस्य तो स्नीकर्स और रफ़टफ़ कपड़े ही पहनते हैं, हम उस पर रास्ते में तो हँसते रहे लेकिन जब राजकुमारी इंदिरादेवी जी के सामने पहुँचे तो नेहा के चहचहाने की बारी थी और हमारे इधर-उधर बगले झाँकने की.
राजसी रौब बेआवाज़ काम करता रहा हालाँकि इंदिरादेवी जी हद से ज़्यादा सौम्यता और ख़ुलूस से बात करती हैं.
From left to right – Manish Gupta, Neha and Indira Devi Dhanrajgir.
अपने कपड़ों की शर्म कम हुई तो उनकी सुन्दरता के तिलिस्म में फ़ँस गए. इतनी सुन्दर ख़ातून इतने प्यार से बिना किसी बड़े-छोटे का लिहाज़ किये हमसे मुख़ातिब तो थीं. नामचीन फ़िल्मी सितारों, लेखकों, शास्त्रीय, लोक गायकों, टीवी की हर तरह की शख़्सियतों से मिल रहे हों या किसी छात्र से हम लोग सबसे लगभग एक ही तरह की सहजता से मिलते हैं लेकिन इनकी शख़्सियत अज़ीम है और इनके सानिध्य में यह अहसास बना रहता है.

इंसान बड़े और छोटे होते हैं. कभी संतों के पास, कभी मंजे हुए हुनरमंदों के साथ, किसी बालक के साथ, साहित्य और संस्कृति के स्तम्भों, कुछ पत्रकारों, सम्पादकों के साथ, समाज-सेवकों अथवा राजनीतिज्ञों, डॉक्टरों के साथ आपको-हमें सभी को कभी-कभी यह अनुभूति होती है कि कितना बड़ा है यह इंसान.. इसका धन या ख़्याति से कोई लेना देना नहीं है. हीरा हर मौसम हर जगह अपनी चमक बरक़रार रखता है ऐसा ही इंदिरादेवी जी से मिल कर लगा. बहरहाल, बहुत सारे क़िस्से निकले उस दिन और एक पुराना रहस्य भी खुला जिसे इस वीडियो में आपके साथ साझा किया गया है.

बात यूँ थी कि हमें ‘रात भर आपकी याद आती रही’, ‘इक चमेली के मंडुए तले’, ‘फिर छिड़ी रात बात फूलों की’.. जैसे अमर गीत देने वाले शायर मख़दूम मोहियुद्दीन की कब्र पर कोई लाल गुलाब रोज़ चढ़ा जाता था. यह बात देखते देखते हैदराबाद शहर में और हिंदुस्तानी पाकिस्तानी अदबी दुनिया में फैल गयी थी. शक और शुबहा तो चाहे जो भी रहे हों, यह राज़ आज खुलने वाला है इस वीडियो में:)

अब इसे मख़दूम की चाहत में देखें या राजकुमारी इंदिरादेवी जी से मिलने के लिए या फिर उस राज़ के लिए.. आपको सादगी का भी और शहंशाही का भी और एक मज़ेदार ग़ज़ल सुनने का भी लुत्फ़ आएगा।


लेखक –  मनीष गुप्ता

फिल्म निर्माता निर्देशक मनीष गुप्ता कई साल विदेश में रहने के बाद भारत केवल हिंदी साहित्य का प्रचार प्रसार करने हेतु लौट आये! आप ने अपने यूट्यूब चैनल ‘हिंदी कविता’ के ज़रिये हिंदी साहित्य को एक नयी पहचान प्रदान की हैं!


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