“इतवार कब फिसल गया?
पता ही नहीं चला
थक कर लौटती हो तुम
टूट कर गिरा रहता हूँ मैं”
तुम्हारा 26वाँ जन्मदिन था, मैंने छुट्टी ली थी. सुबह से शाम तक का वक़्त सिर्फ़ तैयार होने में खर्च किया था. और शाम को बाहर जाते समय आख़िरी मिनट में फिर से ड्रेस बदल ली थी. उस रात रेस्टॉरेंट के बाहर सड़क पर ही तुमने जो किस किया था.. उफ़्फ़! मेरा शरीर किस कदर थरथराया था देर तक. और मैं पानी बन कर बह गयी थी. उसके तीन महीने बाद ही तो अपनी शादी हो गयी थी.. लगता है जैसे कल की ही बात है.
आज तुम्हारा 29वाँ जन्मदिन है, सुबह से ऑफ़िस में भागादौड़ी, तनाव है. कल रात सब देर तक काम कर रहे थे. मेरा सर ज़ोर से फट रहा है. ऊपर से चिन्ता है कि तुम्हारे लिए तोहफ़ा लेना है. अपराधबोध भी है थोड़ा कि.. निःश्वास….
* * *
“माँ आ रही है, डॉक्टर को दिखाना है, हफ़्ते भर रहेंगी”
“अरे वाह! हफ़्ते भर अच्छा खाना बनेगा”
“डॉक्टर को दिखाने आ रही हैं.. तुम्हारी चाकरी के लिए नहीं”
“अच्छा अच्छा. मैं दो दिन छुट्टी ले सकता हूँ, बताना जैसे भी हो, बाय!”
“बाय, लव यू”
[कविता ज़ारी]
“किसी दिन जब हम ऑफ़िस जाने की जल्दी में थे
खिड़की से गौरैया ने खटखटा कर दी थी आवाज़
हड़बड़ी में हम छोड़ आए चलता पंखा
शाम उसके पंख बिखरे मिले घर में खून से लथपथ
अब हमारी खिड़की बंद रहती है”
जीवन जीने का एक तरीक़ा यह भी है कि छोटे-मोटे हादसों में कोई गौरैया जैसा सपना दम तोड़ता रहता है और हम घबरा कर खिड़की बंद कर देते हैं. कई बार तो हमें पता ही नहीं चलता कि कौन सी खिड़की बंद कर दी गयी है. खिड़कियाँ बंद करते हुए हम आगे बढ़ जाते हैं जीवन की शाहराहों पर. बेख़बर, कि क्यों चल रहे हैं. आख़िर कहाँ जाना है?
हम चल रहे हैं क्योंकि वे सब चल रहे हैं
वे चल रहे हैं क्योंकि हम सब चल रहे हैं
पढ़े-लिखे हैं, इसीलिए भेड़ कहाना पसंद नहीं करते.
नहीं चलें तो?
अब इतने बड़े प्रश्न से जूझने का समय नहीं है हमारे पास.
[‘पाश’ की एक कविता का अंश]
“घर से निकलना काम पर
और काम से लौटकर घर आना
सबसे ख़तरनाक होता है
हमारे सपनों का मर जाना
सबसे ख़तरनाक वो घड़ी होती है
आपकी कलाई पर चलती हुई भी जो
आपकी नज़र में रुकी होती है
सबसे ख़तरनाक वो आँख होती है
जिसकी नज़र दुनिया को मोहब्बत से चूमना भूल जाती है
और जो एक घटिया दोहराव के क्रम में खो जाती है”
कल इतवार है.. इसे फिर से फिसलने देंगे?
अगला हफ़्ता? वो तो दोहराव के क्रम में ही डूबेगा न?
जीना तो सिर्फ़ इतवार के इतवार होता है न?
आपकी ज़िन्दगी है.. इसे बेख़याली में फिसलने दें. जाग गए तो दिक्कत है.
और इस वीडियो को तो न ही देखें, कहीं आपका आईना न निकले :
लेखक – मनीष गुप्ता
फिल्म निर्माता निर्देशक मनीष गुप्ता कई साल विदेश में रहने के बाद भारत केवल हिंदी साहित्य का प्रचार प्रसार करने हेतु लौट आये! आप ने अपने यूट्यूब चैनल ‘हिंदी कविता’ के ज़रिये हिंदी साहित्य को एक नयी पहचान प्रदान की हैं!