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ये बच्चा अल्ला का है!

क बच्चा अल्ला का है
एक शालीग्राम का
एक तुलसी से है निकला
एक तालिबान का

और हद देखिये कि विज्ञान सिखाता है कि बच्चा नर और मादा मिल कर पैदा करते हैं. बेवक़ूफ़ हैं ये सारे शिक्षक और वैज्ञानिक, अहमकों को इतना भी नहीं मालूम कि उनके यहाँ के बच्चे अल्ला देता है और हमारे यहाँ भगवान्. कई जगह ईसा को काम सौंपा है बच्चे भेजने का तो कहीं वाहे गुरु की मेहर है.

‘और चम्पू ये ही बता कि ये भगवान् को इतने ही प्यारे होते तो क्या शूद्र पैदा होते?
अरे भाई पढ़े-लिखे हैं, तुम्हारी साइंस भी पढ़ी है लेकिन जानते हो पुनर्जन्म के बारे में? साइंस को कितना पता है? ठीक है चाँद पर पहुँच गए पर क्या इससे आगे जा पाए? चलो मंगल तक पहुँच गए तो कौन सा तीर मार लिया, क्या मिल गया वहाँ? कंकड़-पत्थर ही हासिल हुए न? बड़े आये साइंस की दुहाई देते हो? टूथपेस्ट बना लिया तो बड़ी बात हो गयी? क्या कहा कंप्यूटर, फ़ोन? अब सुनो यार तुमसे बहस कौन करे सबको पता है कि क्या असलियत है इन चीज़ों की, इनसे बड़े बड़े आविष्कार करके छोड़ दिए हैं. तुम साले पढ़े लिखे लोग सोचते हो कि राइट ब्रदर्स ने हवाई जहाज बनाया है न? रामायण, महाभारत उठा कर देख लो क्या-क्या नहीं कर चुके थे हम जब इन्हें चड्डी पहननी भी नहीं आती थी.’

‘कितने अंधविश्वासी हैं ये हिन्दू. नमाज़ तो इसलिए पढ़ते हैं कि साइंटिफ़िक होता है.. चलो छोड़ो अपने को क्या लेना, अपन किसी धर्म के ख़िलाफ़ क्यों बात करें, क्यों हो? हम तो भैया दरगाह शरीफ़ पर चादर चढ़ा के आये थे तब ये साहबज़ादी दुनिया में आयीं हैं.’

ये बातें अकबर के राज में भी थीं.
ये बातें आज भी हैं.. कोई सत्य होगा बात में, भगवान की भगवानी में, अल्ला की अल्लाई में तभी तो ये बातें आज भी हो रही हैं.. इसके ख़िलाफ़ बात करने वाले नरक में जाएंगे नास्तिक / साले काफ़िर हैं..

अगर किसी को कोई शुबहा हो तो इस बात को अभी दूध का दूध पानी का पानी किये देते हैं आज के वीडियो में.
विष्णु खरे, हमारे वरिष्ठ कवि हैं, उनकी रचना ‘गूंगमहल’ प्रस्तुत कर रहे हैं अविनाश दास – वही, जिन्होनें स्वरा भास्कर के साथ ‘अनारकली ऑफ़ आरा’ फ़िल्म निर्देशित की थी. तो लीजिये पेश है:

लेखक –  मनीष गुप्ता

हिंदी कविता (Hindi Studio) और उर्दू स्टूडियो, आज की पूरी पीढ़ी की साहित्यिक चेतना झकझोरने वाले अब तक के सबसे महत्वपूर्ण साहित्यिक/सांस्कृतिक प्रोजेक्ट के संस्थापक फ़िल्म निर्माता-निर्देशक मनीष गुप्ता लगभग डेढ़ दशक विदेश में रहने के बाद अब मुंबई में रहते हैं और पूर्णतया भारतीय साहित्य के प्रचार-प्रसार / और अपनी मातृभाषाओं के प्रति मोह जगाने के काम में संलग्न हैं.


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