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तुम्हें याद हो कि न याद हो : भारत में कभी समलैंगिकता जुर्म थी!

तुम्हें याद हो कि न याद हो

थे तुमसे आगे मचलते दरया
थी तुमसे पहले इक अंधी वादी
साथ चलती थी इक हरारत
गले लगाए बदन जलाए
जलन ज़ीस्त में उठी थी ऐसी
कि सुलगी चौखट, जले थे आँगन
ख़ाक-ए-लज़्ज़त-ए-ग़ुनाह की रौ में
ज़िन्दगी से भरे थे आँगन
हवा में सरगोशियाँ ग़ज़ब थीं
कमाँ पे शामें थीं, शोख़ शब् थी
जुनूँ की शबनम में भीगे भीगे
थे कितनी दफ़हा साथ जागे.

तुम्हें याद हो कि न याद हो

तभी किसी रोज़ तुमने
तड़प के जज़्बात के आईने में
आलम ए बरहमी की हद तक
तरन्नुमों सी मसर्रतों का
मौसम-ए-वहशतकशी का
तिलस्म गोया सजा दिया था
तुम्हीं तो थीं जो बरस गयीं थीं
मैं ही तो थी जो निखर गयी थी
तुम्हारे हाथों का जादू बिखरा
मेरी हक़ीक़त सँवर गई थी.

सन्दली चितवनों के साये
तेरे साये मिरे साये
चाँद तक थे घूम आए
लुत्फ़-ए-विसाल-ए-यार की ख़ुश्बू
के मरमरी फ़साने बाँध लाए
गेसू में रातें सितारे हुईं
आँखों के दुपट्टे लहराए
सन्दली चितवन के साये

तुम्हें याद हो कि न याद हो
मुझे होंठ-दर-होंठ याद हैं

लेखक –  मनीष गुप्ता

हिंदी कविता (Hindi Studio) और उर्दू स्टूडियो, आज की पूरी पीढ़ी की साहित्यिक चेतना झकझोरने वाले अब तक के सबसे महत्वपूर्ण साहित्यिक/सांस्कृतिक प्रोजेक्ट के संस्थापक फ़िल्म निर्माता-निर्देशक मनीष गुप्ता लगभग डेढ़ दशक विदेश में रहने के बाद अब मुंबई में रहते हैं और पूर्णतया भारतीय साहित्य के प्रचार-प्रसार / और अपनी मातृभाषाओं के प्रति मोह जगाने के काम में संलग्न हैं.


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