कॉलेज के दिनों की कच्ची सी उमर बड़ी तेज़ी से पकना चाहती है. सब कुछ जल्दी से सीख लेने की भूख में रोज़ जीवन के नए नए आयाम खुलते जाते हैं, ख़ासतौर पर उन लोगों के लिए जो घर और घरवालों की सुरक्षा के छाते से दूर हॉस्टल में रहे हैं उनको ज़्यादा अवसर मिलता है चाहे अनचाहे बहुत कुछ सीखने का और पहले के सीखे हुए को छोड़ने का.
हमारे हॉस्टल की रातें बहुत छोटी होती थीं. विशेषतः हमारे जैसे लोगों के लिए जिनकी बक-बक-बक कभी ख़त्म ही नहीं होती थी. जिन्हें दुनिया के सारे सवाल पूछने होते थे और सारे जवाबों पर बहस करनी होती थी. जिस कमरे में घुसो एक नया संसार इंतज़ार कर रहा होता था. कहीं शिडनी शेल्डन और सुरेंद्र मोहन पाठक का तुलनात्मक अध्ययन हो रहा होता था कहीं विवेकानंद और कृष्णमूर्ति के अध्यात्म पर शास्त्रार्थ. किसी कमरे में छिप कर आधी रात की चाय बन रही होती थी और डाकुओं की ईमानदारी से सभी में बिस्कुट बाँटे जा रहे होते थे और किशोर कुमार और मोहम्मद रफ़ी में कौन बेहतर है को लेकर लड़ाई छिड़ जाना आम बात थी. तो कहीं चरस और शराब के रासायनिक गुणों और उसके सामाजिक प्रभावों पर निबंध लिखे जा रहे होते. फिर प्राध्यापकों की हँसी उड़ाना और लड़कियों की बातें – क्या लड़कियाँ भी हमारी तरह गर्ल्स हॉस्टल में ऐसा ही कुछ कर रही होंगी जैसी बातें तो रोज़ का चक्कर था.
लेकिन सबसे मज़ेदार और रोमांचकारी होता था भूतों की, आत्माओं की, जिन्नात की, हॉंटेड घरों की, अजीब से डरावने अनुभवों की, नीचे दरवाज़ा बंद करने जाते हुए किसी के पीछे लगने की, दादी के गाँव के बरगद के पेड़ की, पुनर्जन्म की, किसी इंसान के एक साथ कई जगह दिखाई देने जैसी घटनाओं की अंतहीन कहानियाँ होती थीं. प्लेन चिट लड़कियों के हॉस्टल से निकल कर लड़कों के हॉस्टल का चस्का बन जाता था. फिर आगे चल कर कॉन्शसनैस / सब और अनकॉन्शसनैस की ब्रम्हाण्ड की, हर तरह की कांस्पिरेसी थ्योरीज़ की, अनहोनियों की बातें..
“भूत होता है या नहीं?”
“भगवान होता है या नहीं?”
ये बहुत क़ीमती विषय होते थे उन दिनों जिन पर चौबीसों घंटे बहसें छिड़ी रहती थीं. कई लोग बड़ी आसानी से कह जाते कि सब मन का वहम, मनघडंत बातें हैं. भूत-वूत नहीं होता है. “किसी ने ख़ुद देखा हो तो बताए, इधर-उधर की सुनी हुई नहीं चलेगी”. यहाँ सब चुप हो जाते थे क्योंकि भूत को तो अधिकतर लोगों ने दूसरों के क़िस्से में ही सुना था. भले ही बचपन से डरते आये हों लेकिन स्वयं जो भी अनुभव किया था उस पर ख़ुद को शक़ ही रहता है.
“तो ठीक है भाई, भूत किसी ने नहीं देखा तो क़िस्सा यहीं ख़त्म करते हैं भूत नहीं होता”
“वैसे तो भगवान भी किसी ने नहीं देखा”
“अमाँ अब अहमकों जैसी बातें मत करो”, कई लोग चिढ़ भी जाते थे. अल्लाह, भगवान्, गॉड को नहीं मानने वाले भी यह कहते सुने जाते कि ‘एक ताकत ज़रूर है जिससे यह कायनात चल रही है’.
फिर बात आती धर्म की. उसके साथ साथ बहसें छिड़तीं आध्यात्म, धर्म और ईश्वर के सम्बन्ध की. यह भी कहा सुना जाता कि ईश्वर की परिकल्पना धर्म के ज़रिये आम आदमी को दबा कर रखने के लिए बनाई गयी है ताकि ज़ाती, पारिवारिक और सामाजिक तौर पर अराजकता न फैल जाए. कई लोगों की आस्थाएँ बदलती रहती हैं. कभी ईश्वर को किसी स्वरुप में मान लेते हैं कभी नहीं मानते. बहुत से लोग किसी मुसीबत में पड़ने पर भगवान को मानने लग जाते हैं. कुछ अपनी सोच को एक धर्म के खूँटे से आज़ाद मानते हैं और ‘सारे इंसान एक हैं, सारे भगवान एक हैं’ में भरोसा रखते हैं. और कई धर्म के पिंजरे में तमतमाते हुए बाहर वालों को पत्थर मारते हैं. कुछ को धर्म मुक्त कर देता है, कुछ को बाँध देता है.
“लेकिन अगर प्रश्न करने वाले, ईश्वर को नकारने वाले ज्ञानमार्गी सही हैं तो कर्ममार्गी भी और ईश्वर से प्रेम करने वाले भक्तिमार्गी भी!”
“क्यों नहीं सब सही हैं ईश्वर से प्रेम करने वाले भी.. लेकिन ईश्वर से ‘डरने’ वाले कहाँ रखे जाएँ?”
एक उदाहरण देता हूँ – हमारे हॉस्टल के दिनों वाले भारत में शनि का काम किसी की कुण्डली में साढ़ेसाती बनाने से ज़्यादा कुछ नहीं था. फिर सीरियल-फिल्मों-अखबारों में साढ़े साती का ऐसा ख़ौफ़ पनपा कि गुरु, मंगल, शुक्र, बुध यहाँ तक कि सूरज चाँद भी पीछे छूट गए और जगह जगह शनि के मंदिर बन गए. बाक़ी गृह अपना वर्चस्व नहीं बना पाए जितना शनि के डर ने बना दिया.. पिछले बीस-तीस सालों में शनि के मंदिर जिस तादाद में बढे हैं उतने किसी भी और भगवान् के नहीं. लोग शनि के साथ भगवान् लगाने लगे हैं गुरु-शुक्र बेचारे उतना नहीं पनप पाए. भिखारियों को भी चौराहों पर शनि के नाम का काला तिल और तेल डलवाना आ गया गुरु के नाम का पीला टीका लगाने पर कौन बेवक़ूफ़ पैसे देता??
इस लेख का मकसद यह स्थापित करना कतई नहीं है कि भगवान होते हैं या नहीं होते. महज़ यह सवाल खड़े करना है कि लोग अपने विवेक और बुद्धि से अपने तौर-तरीक़ों, अपनी आस्थाओं पर एक नयी नज़र डालें. ऊपर से सुन्दरचंद ठाकुर की इस कविता ने एक अवसर दे दिया जिसमें वे कहते हैं:
“ईश्वर डर में बैठा बैठा रहता है
– भूत की तरह
भूत नहीं है
मैंने नहीं देखा उसे आज तक
इसलिए ईश्वर भी नहीं है..”
इस कविता को पूरी यहाँ सुनें:
लेखक – मनीष गुप्ता
हिंदी कविता (Hindi Studio) और उर्दू स्टूडियो, आज की पूरी पीढ़ी की साहित्यिक चेतना झकझोरने वाले अब तक के सबसे महत्वपूर्ण साहित्यिक/सांस्कृतिक प्रोजेक्ट के संस्थापक फ़िल्म निर्माता-निर्देशक मनीष गुप्ता लगभग डेढ़ दशक विदेश में रहने के बाद अब मुंबई में रहते हैं और पूर्णतया भारतीय साहित्य के प्रचार-प्रसार / और अपनी मातृभाषाओं के प्रति मोह जगाने के काम में संलग्न हैं.