उससे कई बरसों बाद मिलना हुआ.
चूँकि ये भी पुरानी बात है इसलिए ठीक से याद नहीं कि सच में मिला था या दिमाग़ी हरारत से पैदा हुआ कोई विभ्रम था. ग़ौर करने पर लगा कि नहीं उससे मिलना तो नहीं हुआ अलबत्ता उसका ख़त ज़रूर आया था, जिसमें महज़ एक पंक्ति लिखी थी, “तुम्हें नहलाना चाहती हूँ”.
मैं उस ख़त को लेकर मुंडेर पर जा कर बैठ गया सुबह की चाय के साथ. वो बरसात का मौसम था. मुझे कहीं जाना नहीं था तो मैं बैठा ही रहा. बरसात बीती तो शिशिर आया. फिर शरद, बसंत, हेमंत, ग्रीष्म और फिर से वर्षा. फिर एक दिन मेरा मन भी हुआ कि उसे ख़त लिखा जाए. “गाना गाने का मन है -“, मैंने लिखा, “कोई जगह मिलेगी ख़ाली?”
फिर कोई जवाब नहीं आया.
अगले बसंत के आसपास कुछ गाने आए. वे जर्जर थे. चल भी नहीं सकते थे ठीक से. मैंने उन्हें दूध-बिस्किट दिए तो वे खिल गए और उड़ गए.
दोपहर लम्बी थी, ऊपर धूप से डर कर मैं वक़्त काटने के लिए खिड़की पर जा कर बैठ गया. कई बरस बीते – एक उपन्यास आया. यह उपन्यास ज़्यादा मोटा नहीं था. मोटे उपन्यास हालाँकि मेरे साथी रहे थे और पतले पसंद नहीं पर ये अच्छा था. मन लगा उसमें. वैसे ही जैसे बच्चों के खेल में लगता है.
फिर मैं – खेल का मैदान,
खिड़की,
गानों की हड्डियाँ..
सब कुछ छोड़ कर चला गया.
ख़त की जगह
मैं ही चला गया
लेखक – मनीष गुप्ता
हिंदी कविता (Hindi Studio) और उर्दू स्टूडियो, आज की पूरी पीढ़ी की साहित्यिक चेतना झकझोरने वाले अब तक के सबसे महत्वपूर्ण साहित्यिक/सांस्कृतिक प्रोजेक्ट के संस्थापक फ़िल्म निर्माता-निर्देशक मनीष गुप्ता लगभग डेढ़ दशक विदेश में रहने के बाद अब मुंबई में रहते हैं और पूर्णतया भारतीय साहित्य के प्रचार-प्रसार / और अपनी मातृभाषाओं के प्रति मोह जगाने के काम में संलग्न हैं.