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पुरानी गली में एक शाम : इब्ने इंशा

 स ग़ज़ल को मन में नहीं ज़ोर से पढ़ें:

जोग बिजोग की बातें झूठी सब जी का बहलाना हो
फिर भी हम से जाते जाते एक ग़ज़ल सुन जाना हो

(सच में, ज़ोर से पढ़ें मन में नहीं)
सारी दुनिया अक्ल की बैरी कौन यहाँ पर सयाना हो,
नाहक़ नाम धरें सब हम को दीवाना दीवाना हो

तुम ने तो इक रीत बना ली सुन लेना शर्माना हो,
सब का एक न एक ठिकाना अपना कौन ठिकाना हो

नगरी नगरी लाखों द्वारे हर द्वारे पर लाख सुखी,
लेकिन जब हम भूल चुके हैं दामन का फैलाना हो

तेरे ये क्या जी में आई खींच लिये शर्मा कर होंठ,
हम को ज़हर पिलाने वाली अमृत भी पिलवाना हो

हम भी झूठे तुम भी झूठे एक इसी का सच्चा नाम,
जिस से दीपक जलना सीखा परवाना मर जाना हो

सीधे मन को आन दबोचे मीठी बातें, सुन्दर लोग,
‘मीर’, ‘नज़ीर’, ‘कबीर’, और ‘इन्शा’ सब का एक घराना हो

वैसे आप आसानी से बात मानने वाले नहीं लगते, लेकिन अगर आज अच्छा बच्चा बन कर ज़ोर से पढ़ ली है, तो आप इब्ने इंशा जी की हिन्दी ग़ज़ल की लज़्ज़त में सरोबार हो गए होंगे. पाकिस्तानी अवाम इसे ही उर्दू कहती है. हिन्दी और उर्दू में अंतर करना हमारी पुरानी पीढ़ियों का अभिशाप है, जिसे आज तक हम लोग भुगत रहे हैं.

बहरहाल, आज की शनिवार की चाय का मकसद आपके साथ इब्ने इंशा के लिए उमड़े प्यार को साझा करना है. ‘मीठी बातें – सुन्दर लोगों’ में अपने आपको गिन लेने वाले इंशा जी को पढ़ना-सुनना आपके मन में सुनहला, सुगन्धित, नशीला धुआँ भर देता है. आपकी आँखें शुगर-रश से भारी हो जाती हैं. एक तो बेहद शीरीं ज़ुबान तिस पर चुटीली भी और उन्हीं के शब्दों में ‘सीधे मन को आन दबोचें’ ऐसी बातें भी. पिछले कुछ दिनों से इब्ने-इंशा के वीडियो बनाने की कवायद चल रही है और शायरों-कवियों की भीड़ में उनका नाम आसमान में बड़े बड़े हर्फों में लिखा दिख पड़ता है. क्योंकि बात महज़ बात कहने की नहीं होती, भाषा शिल्प की भी होती है.. आसानी से कठिन बातें कह जाने की भी होती है.

उदाहरण के तौर पर एक छोटी सी नज़्म पेश करता हूँ उनकी. इसे भी ज़ोर से पढ़ें ताकि महसूस कर सकें कि कितना आसान है इसे पढ़ना, कितनी रूमानियत है शब्दों में, किस सरलता से आपको आपके बचपन में ले जाया जाता है और जीवन का सारा निचोड़ झलक जाता है नज़्म के ख़त्म होते होते. आप इसे पढ़ें फिर बताएँ कि क्या यह आपकी-मेरी, सबकी कहानी नहीं है?

एक छोटा-सा लड़का था मैं जिन दिनों
एक मेले में पहुँचा हुमकता हुआ
जी मचलता था एक-एक शै पर मगर
जेब खाली थी कुछ मोल ले न सका
लौट आया लिए हसरतें सैकड़ों
एक छोटा-सा लड़का था मै जिन दिनों

खै़र महरूमियों के वो दिन तो गए
आज मेला लगा है इसी शान से
आज चाहूँ तो इक-इक दुकाँ मोल लूँ
आज चाहूँ तो सारा जहाँ मोल लूँ
नारसाई का है जी में धड़का कहाँ?
पर वो छोटा-सा अल्हड़-सा लड़का कहाँ?

कई बार कहता हूँ कि हिंदी कविता – उर्दू स्टूडियो प्रोजेक्ट फूलों का धंधा है. इतने ख़ूबसूरत लोगों से मिलना होता है, उनके साथ काम करना होता है. ये लोग जो शायर हैं, ये लोग जो प्रस्तुतीकरण करते हैं, ये लोग अपने भीतर के लावण्य से हमारे जीवन में नमक घोल देते हैं. इसी तरह इंशा जी से मिलना एक पुरानी गली में गुज़री एक रूमानी शाम के मानिंद है. जो इनके काम से परिचित नहीं, उन्हें बता दूँ कि ‘कल चौदहवीं की रात थी, शब् भर रहा चर्चा तेरा’ इन्हीं की क़लम से है जिसे ग़ुलाम अली ने गा कर अमर कर दिया. जगजीत सिंह ने भी गाया है इन्हें, ख़ासतौर पर ‘हुज़ूर आपका भी एहतराम करता चलूँ / इधर से गुज़रा था सोचा सलाम करता चलूँ’ मेरी प्लेलिस्ट में हमेशा रहता है.

आज आपके लिए इनकी एक रचना पेश है जो हमारे सबसे शरारती वीडियोज़ में से एक है:)

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लेखक –  मनीष गुप्ता

हिंदी कविता (Hindi Studio) और उर्दू स्टूडियो, आज की पूरी पीढ़ी की साहित्यिक चेतना झकझोरने वाले अब तक के सबसे महत्वपूर्ण साहित्यिक/सांस्कृतिक प्रोजेक्ट के संस्थापक फ़िल्म निर्माता-निर्देशक मनीष गुप्ता लगभग डेढ़ दशक विदेश में रहने के बाद अब मुंबई में रहते हैं और पूर्णतया भारतीय साहित्य के प्रचार-प्रसार / और अपनी मातृभाषाओं के प्रति मोह जगाने के काम में संलग्न हैं.


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