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युद्ध की विभीषिका : : कला के फूल 

लावा-ग्रसित
उजाड़, बंजर भूमि
में अपनी जगह बनाता है
नव-कोंपल
हरित.
इस लघु,
लघुतम क्रिया से
हज़ारों मील फैला
तप्त अभिमान
सिहरता है
आश्वस्त होती प्रकृति
मुस्कुराती है

कला सृजन है. युद्ध संहार. उन्माद कला में भी जानलेवा होता है. और युद्ध में तो ख़ैर.. एक युद्ध आपको सालों पीछे ढकेल देता है. कोई देशप्रेमी अपने देश को पीछे नहीं ढकेलना चाहेगा. चाणक्य-दृष्टि भी युद्ध को आख़िरी कूटनीतिक और राजनैतिक रास्ता मानती है.

 

सभ्यता और जंगलीपन में यही अंतर है कि दो इंसान अपने विवाद को बात करके, बहस करके सुलझाते हैं और बन्दर हाथ-पाँव तुड़वा कर, नोच-खसोट करके. पाकिस्तानी वहशीपने को दुनिया ख़ूब जानती रही है – राजनैतिक गुरुओं का कहना रहा है कि ग़रीब, पिछड़ा हुआ देश है; नंगा तो ख़ुदा से भी पंगा ले लेता है, तो इसे थोड़ा सभ्य होने दें और आर्थिक, राजनीतिक प्रतिबंधों की तलवार इसके सर लटका दें, तो अपने आप ही संभाल कर कदम रखेगा. वर्तमान में पाकिस्तान का व्यवहार इसी मत की पुष्टि करता है.

 

सर्वविदित है कि आमतौर पर ग़रीब तबका और बेरोज़गार छात्र ही सामाजिक, धार्मिक मुद्दों पर सड़क पर लड़ाई करने निकलता है. मिडिल क्लास वक़्त पर घर आना चाहती है. अपने बच्चों को आइसक्रीम खिलाने ले जाना चाहती है. उसे अपनी किश्तों की चिंता है, अपनी माँ के घुटने का ऑपरेशन करवाने की चिंता है. पाकिस्तान की आर्थिक स्थिति अब चीन-ओ-अरब के निवेश से बेहतरी की ओर अग्रसर है. अब वो शायद इतिहास में पहली बार बैठ कर बात करने की सूरत ढूँढ रहा है.

युद्ध ग़लत नहीं है. लेकिन वह पहला हथियार न हो. दुश्मन को आप कई तरह से धूल चटा सकते हैं. क्योंकि सीधी लड़ाई से हमारा भी नुकसान है. वैश्विक दृष्टि से जब पश्चिम, यूरोप, रशिया और चाइना तरक़्क़ी करें और हम बेरोज़गारी, ग़रीबी और युद्ध से जूझें यह उचित नहीं है. हम विश्व के सबसे शक्तिशाली देशों में से एक हैं, कोई रास्ता निकालें ताकि अपना नुकसान किये बिना आतंकवाद का हल निकले. और नहीं, हम उन्हें पूरी तरह नहीं मिटा सकते. ऐसा तब ही हो सकता है जब परमाणु हथियार चलें और उस सूरत में वे ही नहीं, हम ही नहीं, सम्पूर्ण मानवता नष्ट हो जायेगी.

 

 

आप कलाकार हैं तो कला के फूल खिलाएँ. हवा को साँस लेने लायक बनाएँ. यही स्वयं का, समाज का, देश का और विश्व का निर्माण होगा. सच्चे देशप्रेमी विकास और शान्ति चाहते हैं. बसंत के रंग चाहते हैं. देश में सुख चाहते हैं. आज शनिवार की चाय के साथ एक छोटा सा फूल आपकी नज़र. संस्कृत की महान रचना ‘गीतगोविन्दम’ का एक अंश प्रस्तुत कर रही हैं BHU से नृत्य विभाग की छात्राएँ. अब इतनी सुन्दर सजी धजी लड़कियाँ मैंने एक साथ पहले कभी नहीं देखीं 🙂

 

इनसे मिलना कैसे हुआ, वो एक और निहायत दिलचस्प कहानी है. वो कहानी फिर और कभी. अभी इसका आनंद उठायें :

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लेखक –  मनीष गुप्ता

हिंदी कविता (Hindi Studio) और उर्दू स्टूडियो, आज की पूरी पीढ़ी की साहित्यिक चेतना झकझोरने वाले अब तक के सबसे महत्वपूर्ण साहित्यिक/सांस्कृतिक प्रोजेक्ट के संस्थापक फ़िल्म निर्माता-निर्देशक मनीष गुप्ता लगभग डेढ़ दशक विदेश में रहने के बाद अब मुंबई में रहते हैं और पूर्णतया भारतीय साहित्य के प्रचार-प्रसार / और अपनी मातृभाषाओं के प्रति मोह जगाने के काम में संलग्न हैं.


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