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कौवा है, घड़ा है, कंकड़ है, पानी है 

कौवा है, घड़ा है, कंकड़ है, पानी है
बुझती दोपहर, वही बोरिंग कहानी है
दिग्भ्रमित, पाँच साल खटते गुज़ारे
कौवे ने अब प्यासे मरने की ठानी है

 

शाइरों, मुसव्विरों, बुतगरों, तहज़ीब-तराशों
के हाथों शाइस्तगी की लज़्ज़त बिकानी है
सड़कों से संसद तक
गुबार भरे गुम्बदों से
रैलियों के हुजूम तक
अख़बारी सुर्खियों को
बस ढोलक बजानी है.
उधर स्मार्ट फ़ोन के कब्ज़े
उबलती नौजवानी है
विज्ञान पर धार्मिक निगरानी है
किसानों की क़ीमत पर
मस्त राजधानी है
कौवे ने अब प्यासे मरने की ठानी है

 

और केदारसिंह के वो तीनों
धूप में बैठ कर
घोड़े पर बहस कर रहे थे*
घोड़ा बहुत ठोस था..
और हमारी कोयल पनियल
फिर भी चोंच बीच उसके मीठी ख़ूबानी है
सबके सरों पर सावधान बेईमानी
हैरानी को हैरानी
शैतानी को हैरानी
कार्यकर्ताओं से भरी चूहेदानी है

 

अभिमानी राजे ने फिर
तंदूर लगाया है
देस-बिदेस के सधे हुए
चिन्तामणियों को बुलाया है
भाँडों ने शाम की महफ़िल सजाई है
कविता से निकल कर
घोड़ा भी आया है
होठों पर उसके पानी की कहानी है
पानी जो कंकड़ था
कंकड़ जो घड़ा था
घड़ा जो कौए के जन्म से पहले
से ही वहाँ पड़ा था
उसके बाप ने भी
पानी के लिए कंकड़ डाले थे
परदादे ने भी
आज का कौवा भी मूर्ख अज्ञानी है
तब ज्ञान की पुतली
तलवार वाली रानी थी
आज के उस्ताद
नमक बाँटते हैं
घूम-घूम पिछड़ों को और बाँटते हैं
उनके अंदाज़ में ग़ज़ब की बे-धयानी है
ये जो उड़ते हुए बाल देखते हैं
बहकी सी जम्हूरियत की चाल देखते हैं
दुहरी हुई पीठ, पिचके गाल देखते हैं
उनका बड़प्पन, उन्हीं की मेज़बानी है
सूरत पे छाई रूहानी नादानी है
क्यों बेवकूफ़ कौवे ने मरने की ठानी है

 

हटो भी, क्या बात लिए बैठे हो बीच राह
ये लो कंकड़, लो घड़ा
देखो कितने पास पानी है
तुम थक गए हो
हम दुःखहर्ता हैं
हमें किसी भी क़ीमत पर
तुम्हारी प्यास बुझानी है
आओ, चले आओ!
भाई कौन सी परेशानी है?
आओ, आगे देखना शाम-ए-तमन्ना सुहानी है
प्यास-व्यास व्यर्थ का फ़ितूर है
बेमानी है
कौवों तुम्हारा गीत है काँव-काँव
सरे-दोपहर क्यों ये बोरिंग कहानी है-
इतनी फ़ुरसत है कि तुमने मरने की ठानी है?

 

* ‘धूप में घोड़े पर बहस’ यह केदारनाथ सिंह की एक प्रसिद्ध कविता है. आज शनिवार की चाय में यह कविता आपके लिए प्रस्तुत कर रहे हैं राष्ट्रीय पुरुस्कार विजेता फिल्मकार / अभिनेता रजत कपूर :

लेखक –  मनीष गुप्ता

हिंदी कविता (Hindi Studio) और उर्दू स्टूडियो, आज की पूरी पीढ़ी की साहित्यिक चेतना झकझोरने वाले अब तक के सबसे महत्वपूर्ण साहित्यिक/सांस्कृतिक प्रोजेक्ट के संस्थापक फ़िल्म निर्माता-निर्देशक मनीष गुप्ता लगभग डेढ़ दशक विदेश में रहने के बाद अब मुंबई में रहते हैं और पूर्णतया भारतीय साहित्य के प्रचार-प्रसार / और अपनी मातृभाषाओं के प्रति मोह जगाने के काम में संलग्न हैं.


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