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सफलनामा! दर्जी की बेटी ने छोड़ी बैंक की नौकरी, 20 हज़ार से भी अधिक महिलाओं को बनाया उद्यमी

story of Kanchan Parulekar

महाराष्ट्र के कोल्हापुर के एक गरीब परिवार में जन्मीं कंचन परुलेकर का बचपन काफी मुश्किलों भरा रहा। लेकिन उन्होंने कड़ी मेहनत की, पढ़ाई की और एक स्कूल में नौकरी करने लगीं। कुछ समय बाद उन्होंने स्कूल की नौकरी छोड़ दी और बैंक में जॉब करने लगीं, लेकिन जब उन्हें प्रमोशन मिला, तब उसी समय उन्हें जॉब छोड़नी पड़ी और आज वह स्वयंसिद्ध संस्था चला रही हैं।

दरअसल, कंचन बचपन से ही समाज के लिए कुछ करना चाहती थीं। उनके पिता 1950 और 60 के दशक के दौरान सामाज सुधारक के तौर पर काम करते थे। पिता को समाज के लिए काम करते देख उनके मन में भी यह ख्वाब बचपन से घर कर गया था।

उनकी माँ एक दर्जी थीं और पिता एक सामाजिक कार्यकर्ता, जिन्होंने पूरे महाराष्ट्र में शिक्षा, पानी और स्वास्थ्य जैसी बुनियादी सुविधाओं के लिए लड़ाई लड़ी। परिवार के किसी भी सदस्य के पास कोई डिग्री नहीं थी, लेकिन उनकी सोच अपने समय से बहुत आगे थी।

उनके विचारों का ही असर था कि बचपन से ही कंचन का भी दुनिया को देखने का नज़रिया बाकि बच्चों से अलग रहा। खुद एक छोटी सी चॉल में रहते हुए भी उनकी आँखों में हमेशा दूसरों के लिए कुछ बड़ा करने का सपना पलता था और उनका यह सपना पूरा हुआ स्वयंसिद्ध संस्था के ज़रिए।

एक भाषण ने बदल दी कंचन की तकदीर

Kanchan Perulekar

जब कंचन सिर्फ 11 साल की थीं, तब उन्होंने पहली बार एक भाषण दिया, जिसका टॉपिक था ‘महिलाओं की स्वास्थ्य समस्याएं’। उस वक़्त श्रोताओं में स्वयंसिद्ध संस्था के संस्थापक डॉ. वी. टी. पाटिल भी मौजूद थे। उस छोटी-सी बच्ची की इतनी बड़ी सोच को देखकर वह दंग रह गए। डॉ. पाटिल की संस्था महिलाओं के उत्थान के लिए काम करती थी और एक स्कूल भी चलाती थी। अब डॉ. पाटिल ने कंचन की शिक्षा की भी ज़िम्मेदारी उठा ली और उसे स्कूल में भर्ती कर दिया।

कंचन ने भी बहुत मेहनत से अपनी पढ़ाई पूरी की और उसी स्कूल में पढ़ाने लगीं। साथ में वह डॉ. पाटिल की संस्था में पूरा पूरा सहयोग भी देती थीं। कुछ समय बाद उन्हें एक अच्छे बैंक में नौकरी मिल गई, लेकिन उन्होंने समाज सेवा कभी नहीं छोड़ी।

14 सालों तक बैंक में नौकरी करने के बाद, उन्हें मैनेजर के पद पर प्रमोट किया गया। लेकिन उसी समय डॉ. पाटिल का देहांत हो गया। जिस शख्स ने पिता बनकर कंचन को संभाला, पढ़ाया-लिखाया और काबिल बनाया था, उस पिता के सपने, उनकी संस्था को वह बिखरने नहीं देना चाहती थीं। इसलिए उन्होंने नौकरी छोड़ दी और स्वयंसिद्ध संस्था की कमान अपने हाथों में ले ली।

आसान नहीं था स्वयंसिद्ध से महिलाओं को जोड़ना

अब कंचन का एक ही मकसद था, भारत की हर एक महिला को सक्षम बनाना। पर यह बात 1990 के दशक की है और उस समय महिलाओं को आत्मनिर्भर बनाना आसान काम नहीं था, लेकिन कंचन ने हार नहीं मानी। उन्होंने शहर की महिलाओं को सिलाई, कढ़ाई, हस्तकला, केटरिंग, सूखा नाश्ता बनाने, जैसे स्किल्स सिखाना शुरू किया।

वहीं, गांव की महिलओं को वह मुर्गी पालन, मधुमक्खी पालन, जैविक खेती जैसी चीज़ें सिखाने लगीं। एक दूसरे को देखकर, एक दूसरे के उदाहरण से सीखते हुए हर जगह से महिलाएं स्वयंसिद्ध संस्था से जुड़ने लगीं और आज कंचन की बदौलत शहर की कई महिलाएं अपना काम शुरू कर 2 लाख रुपए प्रति महीना तक कमा रही हैं।

वहीं, गांवों में भी कई महिलाएं अलग-अलग तरह के काम शुरू कर 10 से 70 हज़ार रुपये तक कमा रही हैं। 42 साल की उम्र में शुरू हुआ कंचन परुलेकर का सफर आज 70 की उम्र के पड़ाव पर पहुंच चुका है और अब सिर्फ कंचन का ही नहीं, बल्कि हज़ारों महिलाओं का भी सफलनामा बन चुका है।

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