समाज में माहवारी को लेकर हमेशा ही एक दकियानूसी सोच रही है, लेकिन आज हम आपको उत्तर प्रदेश के एक ऐसे शख्स से मिलाने जा रहे हैं, जिसने न केवल गरीब महिलाओं के लिए सस्ते सेनिटरी नैपकिन बनाए हैं, बल्कि अपने अभिनव प्रयासों के जरिए देश के कई हजारों महिलाओं को रोजगार भी प्रदान कर रहे हैं।
मिलिए, उत्तर प्रदेश के वृंदावन के रहने वाले वैज्ञानिक और उद्यमी महेश खंडेलवाल से, जिन्होंने बेहद सस्ते सेनिटरी नैपकिन बनाकर न सिर्फ कमजोर तबके के महिलाओं को माहवारी के मुश्किल दिनों में स्वच्छता संबंधी चिंताओं का ध्यान रखने के लिए प्रेरित किया, बल्कि उन्हें आर्थिक रूप से सबल भी बनाया।
दरअसल, यह बात साल 2014 की है, जब उनकी मुलाकात मथुरा के तत्कालीन जिलाधिकारी बी. चंद्रकला से हुई। इस दौरान डीएम बी. चंद्रकला ने उन्हें ग्रामीण तबके के महिलाओं को माहवारी के दौरान होने वाली पीड़ा के बारे में बताया। उनकी इस बात का महेश खंडेलवाल पर काफी गहरा असर हुआ।
इसके बाद, लोगों द्वारा मजाक बनाए जाने के बाद भी उन्होंने न सिर्फ बाजार में उपलब्ध सेनिटरी नैपकिन के मुकाबले बेहद सस्ता और पर्यावरण के अनुकूल पैड बनाने की जिम्मेदारी उठायी, बल्कि अपने नए-नए तकनीकी प्रयोगों से जमीनी स्तर पर एक बड़े बदलाव की मुहिम छेड़ दी।
इसके बारे में महेश ने द बेटर इंडिया को बताया, “आज देश की करोड़ों महिलाओं को सेनिटरी नैपकिन की जरूरत पड़ती है, लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी सेनिटरी नैपकिन को व्यवहार में नहीं लाया जाता है, जिससे कई स्वास्थ्य संबंधी चिंताएं उभर रही हैं। मेरा उद्देश्य एक ऐसे उत्पाद को विकसित करने का था, जिसे स्थानीय महिलाओं द्वारा निर्मित किया जा सके।”
एक पुरुष होने के नाते, उन्हें माहवारी के बारे में अधिक जानकारी नहीं थी। इसलिए उन्होंने काफी गहन अध्ययन और महिलाओं के बातचीत कर, जानकारियाँ इकट्ठी की और अंततः एक ऐसे डिजाइन को लाया, जिससे कई समस्याएं सुलझ सकती थीं।
महेश आगे बताते हैं, “आज देश में हर दिन लगभग 34 करोड़ सेनिटरी नैपकिन की जरूरत पड़ती है और इसके बाजार पर बहुराष्ट्रीय कंपनियों का कब्जा है। ये पैड काफी महंगे होते हैं, जिसकी वजह से हर कोई इसे नहीं खरीद सकता है। इसके साथ ही, बायोडिग्रेडेबल नहीं होने की वजह से सॉलिड वेस्ट मैनेजमेंट में भी काफी चुनौती का सामना करना पड़ रहा है।”
इन्हीं समस्याओं को देखते हुए, उन्होंने रिवर्स इंजीनयरिंग तकनीक के जरिए “वी” सेनेटरी नैपकिन को विकसित किया है, जो इस्तेमाल में लाए जाने के बाद, जैविक खाद के रूप में बदल जाती है। उनकी योजना इसे जल्द ही “रेड रोज” के नाम से बाजार में लाने की है।
महेश बताते हैं, “शुरूआत में छह पैड वाले पैक की कीमत 10 रुपए थी, जबकि आज इसकी कीमत 15 रुपए है। पहले यह चौकोर पल्प जैसा होता था, लेकिन पिछले 3 साल से हम अल्ट्रा थीन नैपकिन बना रहे हैं।”
वह बताते हैं, “हमारे नैपकिन पर्यावरण के अनुकूल हैं और इसमें मौजूद सूक्ष्म पोषक तत्वों की वजह से खेतों की उर्वरा शक्ति भी बढ़ती है। इसमें पल्प की जगह ऑब्जर्वेंट इस्तेमाल किया गया है, जिससे जेल मिट्टी में त्वरित रूप से मिलकर मिट्टी के पानी शोषण क्षमता को 30 प्रतिशत तक बढ़ाती है। वहीं, बाहरी हिस्से को मिट्टी में मिलने में 2-3 महीने लगते हैं। इस तरह, यह सेनेटरी नेपकिन कम नैचुरल सॉइल कंडीसनर का काम करती है।”
एक और खास बात यह है कि यह सेनेटरी नैपकिन 12 घंटे से लेकर 24 घंटे तक चलते हैं, क्योंकि इसमें बैक्टिरिया होता ही नहीं है। आमतौर पर, एक मासिक धर्म चक्र में महिलाओं को 15-20 सेनेटरी नैपकिन की जरूरत पड़ती है। इस तरह, महिलाओं को खर्च कम आता है।
बदला व्यवहार
शुरूआती दिनों में महेश, सेनेटरी नैपकिन मैनुअल तरीके से बनाते थे, लेकिन आज वह इसे सेमी-ऑटोमेटिक मशीनों के जरिए बनाते हैं। देश के ग्रामीण क्षेत्रों में बिजली की समस्या को देखते हुए, उन्होंने इस मशीन को इस तरह से डिज़ाइन किया है कि इसे सिर्फ 2 घंटे बिजली की जरूरत होती है, बाकी काम मैन्युअली किया जा सकता है।
वह बताते हैं, “इस मशीन की कीमत 5 लाख रुपए है और इसे चलाने में 15 महिलाओं की जरूरत होती है। इससे एक महीने में 50 हजार नैपकिन बनाए जा सकते हैं, जिससे 7.5 लाख तक कमाई होती है। आज यूपी, गुजरात समेत देश के कई हिस्से में 80 मशीनें लगी हुई हैं।”
महेश का इरादा देश के हर जिला में ऐसी 8-10 मशीनों को स्थापित करने का है। इसके लिए वह आशा कार्यकर्ताओं और नेहरू युवा केन्द्र के महिलाओं सदस्यों के साथ मिलकर काम कर रहे हैं, ताकि उनका उत्पाद घर-घर तक पहुँचे।
रेड क्रॉस सोसायटी के साथ कर रहे काम
महेश, फिलहाल रेड क्रॉस कुटीर उद्योग के साथ मिलकर काम कर रहे हैं, इसके तहत वह महिलाओं को कुटीर उद्योग लगाने, तकनीकों के बारे में प्रशिक्षित करने में मदद करते हैं। साथ ही, महिलाओं को नेशनल रूरल लाइवलीहुड मिशन, मुद्रा योजना, प्रधानमंत्री रोजगार योजना, जैसी कई योजनाओं का लाभ उठाने के बारे में भी जानकारी देते हैं।
कोरोना काल में बनाए 8 लाख से अधिक मास्क
महेश बताते हैं, “कोरोना महामारी के शुरूआती दिनों में देश में मास्क की भारी किल्लत थी। इसी को देखते हुए, सरकार ने हमसे मास्क बनाने की अपील की। इस दौरान हमने लगभग 8-10 लाख मास्क बनाए, जिसकी कीमत महज 50 पैसे थी। इस दौरान हमने चीन से डाइरोलर मँगा कर अपने मशीनों को N-95 मास्क बनाने की मशीन के रूप में परिवर्तित कर दिया।”
द बेटर इंडिया बेहद सस्ता और पर्यावरण के अनुकूल पैड बनाने की जिम्मेदारी उठाने वाले महेश खंडेलवाल के जज्बे को सलाम करता है।
यह भी पढ़ें – भारतीय रेलवे: सौर ऊर्जा से बदल रहे हैं तस्वीर, 960 स्टेशन पर लगे सोलर पैनल
यदि आपको इस कहानी से प्रेरणा मिली है, या आप अपने किसी अनुभव को हमारे साथ साझा करना चाहते हो, तो हमें hindi@thebetterindia.com पर लिखें, या Facebook और Twitter पर संपर्क करें। आप हमें किसी भी प्रेरणात्मक ख़बर का वीडियो 7337854222 पर व्हाट्सएप कर सकते हैं।
We at The Better India want to showcase everything that is working in this country. By using the power of constructive journalism, we want to change India – one story at a time. If you read us, like us and want this positive movement to grow, then do consider supporting us via the following buttons: