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कभी सवा चार रूपये लेकर चंडीगढ़ आया था यह शख़्स; 38 साल से रोज़ लगाता है मुफ्त लंगर!

कहानी लंगर बाबा की, जिन्होंने लोगों को लंगर खिलाने के लिए करोड़ों की प्रोपर्टी तक बेच दी!

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कभी सवा चार रूपये लेकर चंडीगढ़ आया था यह शख़्स; 38 साल से रोज़ लगाता है मुफ्त लंगर!

ह उम्र की 84 सीढ़ियां चढ़ चुके हैं और इस समय कैंसर से जूझ रहे हैं। खुद बेशक ठीक से भोजन न कर पा रहे हो लेकिन शहर में कोई भूखा सोए, यह उन्हें मंजूर नहीं।

उनका नाम है जगदीश लाल आहूजा, लेकिन लोग प्यार से उन्हें ‘लंगर बाबा’ बुलाते हैं। आहूजा पिछले साढ़े 38 साल से गरीबों और जरूरतमंदों को मुफ्त भोजन खिला रहे हैं। अपनी इस लंगर सेवा के कारण उनकी संपत्तियां तक बिक गई, लेकिन जगदीश लाल ने लंगर सेवा नहीं छोड़ी।

आज भी अनेक तरह की बाधाओं के बावजूद, उनके इस मिशन रूपी सेवा में कोई कमी नहीं आई है।

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जगदीश आहूजा और उनकी पत्नी निर्मल पिछले 38 साल से रोज़ मुफ्त लंगर लगाते हैं

आहूजा कहते हैं, "मैं अपनी आखिरी सांस तक 'लंगर' को जारी रखूंगा। यह ऐसा काम है जो मुझे 'सुकून' देता है, इससे मेरी रूह खुश होती है और मेरे मन को शांति मिलती है। लोगों का पेट भरना मेरे भगवान की आज्ञा है और मैं य​ह काम अंतिम सांस तक करता रहूंगा।"

विभाजन के दौरान कभी खुद सोना पड़ा था भूखा

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लंगर वितरित करते जगदीश आहूजा

आहूजा आज भले ही एक सफल व्यवसायी है, लेकिन उनका यह सफर इतना आसान न था। वह 1947 में अपनी मातृभूमि पेशावर से बचपन में विस्थापित होकर पंजाब के मानसा शहर आ गए थे। उस समय उनकी उम्र करीब 12 वर्ष थी। वे बताते हैं कि इतनी कम उम्र से ही उनका जीवन संघर्ष शुरू हो गया था। उनका परिवार विस्थापन के दौरान गुजर गया था। ऐसे में जिन्दा रहने के लिए रेलवे स्टेशन पर उन्हें नमकीन दाल बेचनी पड़ी, ताकि उन पैसों से खाना खाया जा सके और गुजारा हो सके।

आहूजा अपने बचपन के दिनों को याद कर थोड़ा ठहरते हैं, एक लंबी गहरी सांस भरते हैं और कहते हैं कि वे किसी को खाली पेट नहीं देख सकते। अगर उन्हें पता लग जाए कि सामने वाला भूखा है तो उन्हें बेचैनी होने लगती है। क्योंकि उन्होंने खुद बचपन में बहुत कठिन परिस्थितियों का सामना किया है।

आहूजा कहते हैं, "मैंने बचपन भूख से लड़कर गुजारा है। वह समय मुझे आज भी डराता है।"

कुछ समय बाद वह पटियाला चले गए और गुड़ और फल बेचकर जिंदगी चलाने लगे और फिर 1950 के बाद करीब 21 साल की उम्र में आहूजा चंडीगढ़ आ गए। उस समय चंडीगढ़ को देश का पहला योजनाबद्ध शहर बनाया जा रहा था। यहां आकर उन्होंने एक फल की रेहड़ी किराए पर लेकर केले बेचना शुरू कर दिया।

उस समय को याद करते हुए वह कहते हैं, "मुझे याद है कि इस शहर में मैं खाली हाथ आया था, शायद 4 रूपये 15 पैसे थे मेरे पास। यहां आकर मुझे धीरे-धीरे पता लगा कि यहां मंडी में किसी ठेले वाले को केला पकाना नहीं आता है। पटियाला में फल बेचने के कारण मैं इस काम में माहिर हो चुका था। बस फिर मैंने काम शुरू किया और मेरी किस्मत चमक उठी और मैं अच्छे पैसे कमाने लगा।"

जब उनके हालात सुधरने लगे, तो करीब 38 साल पहले वर्ष 1981 में चंडीगढ़ और आसपास के क्षेत्रों में उन्होंने लंगर लगाना शुरू किया। आहूजा को लोगों को भोजन करवाने की प्रेरणा उनकी दादी माई गुलाबी से मिली, जो गरीब लोगों के लिए अपने शहर पेशावर (अब पाकिस्तान में) में इस तरह के लंगर लगाया करती ​थी।

पीजीआई अस्पताल के बाहर हर दिन लगाते हैं लंगर 

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पत्नी निर्मल के साथ बच्चों में टॉफ़ीयाँ बांटते जगदीश आहूजा

8 जनवरी 2001 से आहूजा पीजीआई अस्पताल चंडीगढ़ के बाहर हर दिन लंगर लगाने लग गए, जहां उत्तर भारत के दूर-दराज इलाकों से आने वाले सैकड़ों मरीज व उनके परिजन भोजन करते थे। जगदीश लाल की लंगर सेवा के चलते उन्हें भूखा नहीं सोना पड़ता था।

आहूजा लंगर सेवा में लोगों को लंगर में सात्विक भोजन के साथ हलवा और फल भी देते हैं।

इस काम में उनकी पत्नी निर्मल आहूजा उनका पूरा साथ देती है। निर्मल बच्चों में गुब्बारें, टॉफी, बिस्किट और अन्य उपहार भी बांटती हैं।

वह अपनी पत्नी निर्मल का जिक्र करते हुए कहते हैं, "पचास साल से भी ऊपर हो गए हमारे ब्याह को, निर्मल हर काम में हमेशा मेरे साथ खड़ी रही है।"

बेच दी सम्पत्तियां, नहीं लिया दान

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बच्चों को फल, चॉकलेट व गुब्बारे बांटते जगदीश लाल

आहूजा इस कार्य के लिए न किसी से दान सामग्री लेते हैं, न ही किसी से कोई आर्थिक मदद।

इसके पीछे का कारण वह बताते हैं, "वर्षों से, मैं यह सब अपने आप कर रहा हूँ। बहुत से लोगों ने मुझे पैसे और अन्य चीजों की पेशकश भी की, लेकिन मैं किसी से कुछ नहीं लेता। मैं इसे अपने संसाधनों से करना चाहता हूँ। मुझे लगता है कि भगवान ने मुझे इस काम को करने के लिए सक्षम बनाया है और इतनी हिम्मत दी है कि मैं इसे चला सकूं।”

इस सामुदायिक लंगर को चलाने के लिए आहूजा ने पिछले कुछ वर्षों में अपनी सात संपत्तियों को भी बेच दिया है। उनकी संपत्ति लगातार खाली होती जा रही है।

अपनी संपत्ति के नीलाम होने की बात पूछने पर वह बड़े गुस्से में भरकर कहते हैं, "मैं धन-दौलत की इच्छा के लिए लंगर को प्रभावित नहीं होने दूंगा। धन को साथ लेकर तो मरना नहीं है। यह सब यहीं रह जाएगा। कौन क्या साथ लेकर गया है। सिंकदर तक जैसे लोग खाली हाथ गए थे। सबकुछ लोगों का ही है और वह लोगों में बंट जाए या किसी भूखे का पेट भर दे तो इससे बेहतर क्या हो सकता है।"

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ढलने लगी उम्र, अब भी भूखे लोगों की चिंता

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जगदीश आहूजा लंगर खा रहे लोगों के बीच

आहूजा न सिर्फ लंगर खिलाते हैं बल्कि वह वृद्धाश्रम में भी अपना सहयोग देते रहे हैं। लोगों के लिए कपड़े भी दान करते हैं। लोग उन्हें "पीजीआई भंडारे वाले" और "लंगर बाबा" जैसे अनेक नामों से जानते हैं। लंगर बांटते वक्त जब भी कोई उनके पैर छूने की कोशिश करता है, वह चिढ़ जाते हैं। वह गुस्से में आकर कहते हैं, "कृपया मेरे पैर मत छुओ। मैं कोई नहीं हूँ और कुछ भी महान नहीं किया है। उस ऊपर वाले सर्वशक्तिमान से आशीर्वाद लें, उसी ने हम सबका दाना पानी लिखा है।"

आहूजा अब ढल रहे हैं, उम्र का तकाजा है या कैंसर की बीमारी का कोप या फिर दोनों ही। लेकिन अभी भी वह अपने स्वयं के स्वास्थ्य को लेकर परेशान नहीं दिखते। वह आज भी भूखे लोगों के बारे में ज्यादा चिंतित दिखाई पड़ते हैं।

संपादन - भगवती लाल तेली 


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