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आर्थिक मदद नहीं, स्वावलंबी बनाकर मेरी फीस का किया था इंतजाम; आज भी ऋणी हूँ आपका सर!

shivnath jha patna

शिवनाथ झा।

ब भी स्वाधीनता दिवस या गणतन्त्र दिवस आता है, मुझे अपना स्कूल याद आ जाता है। जब भी बसंत पचंमी आती है, अपना स्कूल याद आ जाता है। जब भी स्कूलों में शैक्षणिक शुल्क जमा करने की तारीख आती है, मुझे अपना स्कूल याद आ जाता है और याद आ जाते हैं वे सभी शिक्षकगण, प्रधानाचार्य जिन्हें मुझ पर अटूट विश्वास था, जो सिर्फ मुझे ही नहीं, हमारे परिवार, माता-पिता, भाई-बहन के जीवन-संरक्षण के लिए हमेशा चिन्तित रहते थे। वे हमेशा यह प्रयास करते थे कि हम सब के चेहरों पर मुस्कान रहे। हमारी आर्थिक दरिद्रता इतनी अधिक थी कि वे सभी चाहते थे कि माध्यमिक परीक्षा के बाद मुझे स्कूल में भी कोई नौकरी दे दें ताकि भरण-पोषण होता रहे।

स्कूल था पटना के अशोक राजपथ पर स्थित 1869 में स्थापित ‘टी के घोष अकादमी’, जहाँ भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद, संविधान सभा के सदस्य डॉ. सच्चिदानंद सिन्हा, पश्चिम बंगाल के प्रथम मुख्यमंत्री डॉ. बिधानचन्द्र रॉय जैसे लोग पढ़ चुके थे। यह विद्यालय और यहाँ के तत्कालीन शिक्षकगण न जाने कितने विद्यार्थियों को बालक से महान व्यक्तित्व बना चुके हैं, वे सभी मेरे लिए पूजनीय हैं।

बात साठ के दशक के पूर्वार्द्ध की है जब मैं अपने मामा के घर (गढ़बनैली, पूर्णिया) से पाटलिपुत्र आया था। कहते हैं माता-पिता कितने भी अर्थ से कमजोर हो, अपने संतानों को अपने से अलग नहीं रखना चाहते, परन्तु समय क्या चाहता है, उन्हें भी नहीं पता।

मैं कोई 6 साल का था जब पटना आया था, साल था 1964 और मेरे पिताजी पटना के ही एक प्रकाशक और पुस्तक विक्रेता ‘नोवेल्टी एंड कंपनी’ में छोटे मुलाज़िम के रूप में कार्य करते थे। यह दुकान दो मंजिला थी और इसी की सीढ़ी के एक ओट में पिताजी अपना आशियाना बनाए हुए थे। मैं पिताजी के साथ ही रहता था।

दुकान पर रहते-रहते किताबों की सुगंध धीरे-धीरे नाक के सहारे मेरे मस्तिष्क में जाने लगी। मेरे अंदर पढ़ने की इच्छा जागृत होने लगी। सुबह-सवेरे जब बच्चों को पढ़ने जाते देखता, मन में स्कूल और पढ़ने के प्रति लालसा बढ़ने लगी थी। मैंने अपने पिता से अपनी यह इच्छा व्यक्त की, जब वे दुकान बंद कर देर रात अपने आशियाना में आए।

पिताजी मेरी बात बहुत ही ध्यान से सुन रहे थे। मेरी पढ़ने की बात सुनकर उनकी आँखों से आंसू बह रहे थे। उन दिनों पिता की मासिक तनख्वाह 40 रुपये थी। मेरी बात सुनने के बाद पिताजी बहुत ही भावुक स्वर में बोले, “तुम्हे पढ़ने की इच्छा है तो फिर तुम्हे इस ब्रह्माण्ड में कोई नहीं रोक सकता।”

दूसरे दिन हम पिता-पुत्र अशोक राजपथ स्थित राजा राममोहन रॉय स्कूल गए। इस विद्यालय में अमीर लोगों के बच्चे पढ़ते थे। वैसे तो इस विद्यालय के प्रत्येक सदस्य पिताजी को जानते थे, परन्तु मन में एक भय पिताजी के कपाल पर साफ़ दिखाई दे रहा था। वे अर्थ से दीन थे और यहां पढ़ने वाले विद्यार्थियों के माता-पिता संपन्न थे। कहते हैं लड़ाई अंतिम सांस तक लड़नी चाहिए, पिताजी ने मेरा हाथ पकड़ा और विद्यालय गेट में प्रवेश किया। मेरा नामांकन इस विद्यालय में हो गया।

तीन महीने बाद फीस नहीं देने के कारण मेरा नाम विद्यालय से हटा दिया गया। उस ज़माने में प्राथमिक कक्षाओं के लिए इस विद्यालय में जो प्रधानाचार्या हुआ करती थीं, उन्होंने भृकुटि को तानते मुझे हिदायत दी, अगर पिता की शुल्क जमा करने की क्षमता नहीं है तो मछुआटोली स्थित नगर निगम के विद्यालय में प्रवेश दिलाने बोलो।”

कुछ दिन उदासी में बचपन बीता। इधर, दुकान  में सभी मुझे ढूंढते थे क्योंकि मैं बहुत छोटा था और दुकान में चाय, पान, पानी, कागज़, रस्सी, चाकू लाने-ले जाने के लिए टेनिया की कमी हो रही थी। सभी मुझसे काम कराते थे और दो पैसे, तीन पैसे, पांच पैसे-दस पैसे दे दिया करते थे।

पढ़ने की भूख, पेट की भूख से अधिक प्रबल हो रही थी। एक दिन सुबह के कोई तीन बज रहे होंगे। पिताजी सोए थे, मैं उनके बक्से से पांच रुपए निकालकर दबे पाँव निकल पड़ा, गंतव्य था पटना के गाँधी मैदान स्थित बस अड्डा।

बस अड्डा पहुंचकर अपनी जेब से पिता के बक्से से चोरी किये पांच रुपए निकाले, फिर अपनी दूसरी जेब से कुछ पैसों के सिक्के निकाले, अब मेरे पास कुल 5 रुपए 40 पैसे थे।

बस अड्डे पर पटना से प्रकाशित समाचार पत्र ‘सुबह-सवेरे’ आया करता था। मैंने सब पैसों से अख़बार खरीदे और बेचने लगा। उन दिनों अखबार का मूल्य पांच पैसे से बारह पैसे तक था। ऐसे-ऐसे करके अख़बार बेचकर मैंने कुल 9 रुपए 60 पैसे इकट्ठे किये यानी 4 रुपए 20 पैसे का मुझे फायदा हुआ।

वापस दुकान आया तो पिताजी से आँखें नहीं मिला पा रहा था इसलिए मैं इधर-उधर हो रहा था। रात में पिताजी ने बुलाया और पूछा, इसमें से पांच रुपए निकाले हो? मैंने “नहीं” कह दिया। फिर क्या था, पिताजी ने मुझे बहुत पीटा।

दूसरे दिन भी दिन-भर पिताजी से बात नहीं हुई। न उन्होंने खाना खाया और न ही मैंने। उन्होंने रात में मुझसे पूछा, क्या किया पैसों का? इसे गाँव (माँ को) मनीऑर्डर करना था, पैसे नहीं भेजेंगे तो वह क्या खाएगी?

“मैं फफककर रो दिया और पिताजी के हाथ में कुल 9 रुपए 60 पैसे रख कर पूरी बात बताई और यह भी बताया कि “मैं पढ़ना चाहता हूँ।” मेरी बात सुनते ही पिताजी भी रो पड़े। उन्होंने मुझसे पाँच रुपए वापस नहीं लिए और सर पर हाथ रखते हुए बोले, चलो खाना खाते हैं।”

अगले सप्ताह मैंने 1968 में पटना के टी के घोष अकादमी विद्यालय के छठे वर्ग में प्रवेश लिया। मैं इस विद्यालय की मिट्टी से परिचित था। शिक्षकों को भी चेहरे से जानता था क्योंकि शाम में कभी-कभार यहाँ खेलने आता था।

विद्यालय में मेरे प्रवेश के साथ ही जैसे शिक्षकगण इस बात का फैसला कर चुके थे कि वे मुझे अधिकाधिक कार्य सिखाएंगे और इसी विद्यालय में माध्यमिक परीक्षा के बाद मुझे नौकरी भी देंगे ताकि परिवार का भरण-पोषण हो सके।

छठे वर्ग से ही प्रत्येक माह की 15 और 30 तारीख को छात्रों का शुल्क-जमा करने का कार्य, बच्चों के विद्यालय नहीं आने पर लगने वाला दंड-शुल्क (दो नया पैसा) इकट्ठा करना इत्यादि कार्य मैं करने लगा। जैसे-जैसे वर्ग बढ़ने लगा वैसे-वैसे अन्य कार्यों का भार, जैसे पुस्तकालय की देख-रेख, किसी भी कार्यक्रम में शिक्षक के साथ लेखा-जोखा करना, सरस्वती पूजा में भण्डार की जबाबदेही भी मेरे हिस्से थे।

उस ज़माने में पटना विश्वविद्यालय के सैकड़ों विद्यार्थी जो छात्रावास में रहते थे, मेरे ग्राहक थे। प्रिंसिपल से लेकर प्रोफेसर तक मुझसे अखबार लेते थे। कभी किसी ने पैसे देने में भी किच-किच नहीं की। अलबत्ता, सबने कुल राशि से पचास पैसे, एक-दो रुपए अधिक ही दिए ताकि किताब, कॉपी, कलम, पेन्सिल खरीदने के लिए मेरी पढ़ाई में कभी कोई कमी नहीं रहे।

आज भी जब मैं अपने समय के एकमात्र जीवित शिक्षक राम नरेश झा से बात करता हूँ तो वे कहते हैं, “शिवनाथ, हमें आप पर गर्व है” और मैं जबाब में कहता हूँ, “…और मुझे आपकी शिक्षा पर सर।”

 

लेखक – शिवनाथ झा 

शिवनाथ झा।

 

 

 

 

 

 

संपादन – भगवती लाल तेली 


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