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कैंसर से मरते एक बच्चे को देख इस डेंटिस्ट ने शुरू की जंग, 30, 000+ तंबाकू एडिक्ट्स को सुधारा!

अगस्त 2014 में डॉ. कुशवाहा ने एटीटीएसी की स्थापना की और यह सुनिश्चित किया कि वे अधिक से अधिक रोगियों से मिल कर उनके साथ समय बिता पाएं।

गराज (बदला हुआ नाम) उस समय केवल 6 साल का ही था, जब गाँव के कुछ लड़कों ने उसे पहली बार गुटखा खिलाया था और जब तक वह 13 साल का हुआ, उसे इसकी आदत पड़ चुकी थी।
शुरुआत में बस मौज-मजे के लिए लड़कों ने उसे गुटखा खिलाया, पर जल्द ही उसे गुटखा खाने की आदत हो गई। अब गुटखा खाए बिना उसे चैन नहीं पड़ता था। घर के लोग उसे गुटखा खाने से मना करते, लेकिन वह गुटखे के बिना रह नहीं पाता था। उसके दांत कत्थई रंग के हो गए थे और मसूड़े खराब, लेकिन उसे इसकी कोई परवाह नहीं थी। एक दिन उसके गाँव में लगे एक हेल्थ कैंप लगा। वहाँ हुई जाँच में उसे मुंह का कैंसर होने की बात सामने आई।

यह भले ही जगराज की कहानी हो लेकिन उसके जैसे कई लड़के हैं जो इस परिस्थिति से गुज़र रहे हैं।

डॉ. सुमेधा कुशवाहा जो पेशे से एक दंत चिकित्सक हैं, नशे की लत में पड़े लोगों के लिए काम कर रही हैं और उन्हें इससे छुटकारा दिलाने में मदद कर रही हैं। इसके साथ ही वे नशे के दुष्प्रभाव से लोगों को अवगत करा कर उन्हें जागरूक भी कर रही हैं। डॉ. सुमेधा

द बेटर इंडिया को दिए गए साक्षात्कार मे डॉ. सुमेधा कुशवाहा बताती हैं कि किस प्रकार एम टू टरमिनेट टोबैको एंड कैंसर (Aim To Terminate Tobacco and Cancer) नामक इनकी संस्था का जन्म हुआ और किस प्रकार ये नशे से छुटकारा दिलाने में लोगों की मदद करती है। इसके साथ ही ये धूम्रपान की लत छोड़ने के आसान तरीके भी बताती हैं।

डॉ. कुशवाहा की पृष्ठभूमि

डॉ. कुशवाहा ने डेंटल कॉलेज में दाखिला लिया और 2007 में दिल्ली के आईटी एस डेंटल कॉलेज के पब्लिक हेल्थ डेंटिस्ट्री से बीडीएस और एमडीएस की डिग्री ली।

उन दिनों को याद करते हुए डॉ. कुशवाहा बताती हैं, “ओपीडी में पूर्व कैंसर रोगियों की जो संख्या मैंने देखी, वो दिल को झकझोरने वाली थी।

कैंप के दौरान

हम जो भी सीख रहे थे, उसका पूरा ज़ोर कैंसर पर था। अधिकतर मामलों में हमने पाया कि कैंसर का कारण तंबाकू का सेवन था।

यहीं से नशे के आदी हो चुके लोगों के लिए कुछ करने का विचार इनके मन में आया।

ये बताती हैं, “वैसे तो तंबाकू के दुष्परिणामों के बारे में लोगों को बताने के लिए कई तरह के जागरूकता कार्यक्रम हैं, पर इस नशे के आदी व्यक्ति को इससे निकालने का कोई साधन नहीं है। मैं इसी के लिए कुछ करना चाहती थी।

वह रोगी जिससे मिल कर इसकी शुरुआत हुई

उन्होंने बताया, “मैं एक कैंप में थी जहां 13 साल के एक बच्चे से मिली। उसे मुंह का कैंसर था। वह अपना मुंह खोल तक नहीं पा रहा था। उसे इतने दर्द में देख कर मैं भीतर से बहुत परेशान हो गई।

 

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यह देख कर मैं और भी निराश हो गई कि ये बच्चे इस बात से बिल्कुल अनजान थे कि किस तरह गुटखा खाना इस खतरनाक बीमारी का कारण बन सकता है।

डॉ. कुशवाहा कहती हैं, “मैं इस अज्ञानता से लड़ना चाहती थी। नौजवानों को इस तरह अपनी ज़िंदगी बर्बाद करता हुआ देखना ही वह सबसे बड़ी वजह थी कि मैंने एक सलाहकार बनने का निर्णय लिया।

नशा मुक्ति के लिए परामर्श सेवा

एक बदलाव लाने की ललक से डॉ. कुशवाहा ने ट्रेनिंग के लिए एक प्रतिष्ठित हॉस्पिटल में काम करना शुरू किया।

वे कहती हैं, “हर सेशन के जो पैसे लिए जा रहे थे, वो बहुत ज्यादा थे, जबकि अधिकतर मरीज गरीब घरों के थे और वे इतनी मोटी रकम नहीं चुका सकते थे।

तंबाकू को ‘ना’ कहे

उनकी पहली ट्रेनिंग सलाहकार के रूप में नहीं हुई थी। डॉ. कुशवाहा बताती हैं कि इसकी ट्रेनिंग उन्हें उस अस्पताल से मिली, जहां वे काम कर रही थीं। इन्होंने कई स्वयंसेवी संगठनों के साथ काम करना जारी रखा जो मुंह के स्वास्थ्य, कैंसर की शुरुआती पहचान और इस क्षेत्र में जागरूकता के लिए काम कर रहे थे।

वे बताती हैं, “कई बार काफी समय और अपनी पूरी शक्ति लगाने के बावजूद भी मरीज अपने पुराने रास्ते पर चल पड़ते थे और इससे पूरी प्रक्रिया कुछ कदम पीछे खिसक जाती थी। लेकिन यह निराशा इस काम के साथ आती ही है और समय के साथ हम इसे झेलना सीख लेते हैं।

छोटी शुरुआत

कॉलेज के पाठ्यक्रम के अंतर्गत गाँव में लगने वाले मेडिकल कैंप में बिताए अपने समय को याद करते हुए ये बताती हैं, “कुछ गाँव इस कार्यक्रम के अंतर्गत आते थे और कुछ नहीं, तो मैं और मेरे दोस्तों ने वैसे गांवों मे जाना शुरू किया जो इस कार्यक्रम के अंतर्गत नहीं आते थे। हम (मेरे कुछ सहपाठी और उस समय के मेरे साथी जो आज मेरे पति हैं) ज़रूरत की सारी चीजों को इकट्ठा कर, एक गाँव से दूसरे गाँव कैंप लगाने जाते थे। मैंने लोगों से बातें करने का और तंबाकू खाने से होने वाली परेशानियों के बारे में उन्हें जागरूक करने का काम अपने ज़िम्मे लिया था, जबकि बाकी साथी लोगों की शारीरिक जांच किया करते थे।

 

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डॉ. कुशवाहा का मकसद साफ था – जितनी जल्दी हम रोग का पता लगा पाएंगे, उतना आसान उसका इलाज करना होगा।

एटीटीएसी की स्थापना

अगस्त 2014 में डॉ. कुशवाहा ने एटीटीएसी की स्थापना की और यह सुनिश्चित किया कि वे अधिक से अधिक रोगियों से मिल कर उनके साथ समय बिता पाएं।

यह पूछे जान पर कि उन्होंने एक संस्था को शुरू करने का निर्णय क्यों लिया, वे बताती हैं, “जितनी भी संस्थाओं के साथ मैंने काम किया है, मैंने वहाँ समय की कमी को महसूस किया। रोगियों के साथ हमेशा हड़बड़ी में बात की जाती थी। हमने तय किया कि हम यह स्थिति बदलेंगे।

 

वे आगे बताती हैं, “कई बार भारी संख्या में रोगियों के आने के कारण हर एक को देने के लिए हमारे पास कुछ ही मिनट बचते थे।

लोगों को साफ़-सफाई का महत्व समझाते हुए

एटीटीएसी को चलाने के लिए पैसे कहाँ से आते हैं, इस विषय में पूछे जाने पर वे बताती हैं, “हमारी अधिकतर राशि युवराज सिंह फाउंडेशन (यूवीकेन फ़ाउंडेशन) की ओर से आती है, जिससे मैं जुड़ी हुई हूँ। इसके अलावा, हमारे पास एक फुल टाइम कर्मचारी है और बाकी सब जिसमें मैं भी शामिल हूँ, पार्ट टाइम यह काम कर रहे हैं।

वे बताती हैं, “एटीटीएसी विभिन्न कॉरपोरेट में सलाहकार के रूप में काम करता है। इसके लिए प्रति सेशन 5000 से 10000 तक की राशि ली जाती है। ये जो पैसे हमें मिलते हैं, वह इस काम में शामिल स्वास्थ्य कर्मचारियों में बाँट दिए जाते हैं।

वे बताती हैं, “हमने अब तक 30,000 लोगों को लाभ पहुँचाया है। चाहे वह परामर्श सेवा द्वारा हो, या जागरूकता कार्यक्रम द्वारा या हमारे द्वारा लगाए गए विभिन्न कैंपों से। अभी हम टियर 1 शहरों में मौजूद हैं और हमारी इच्छा टियर 2 व टियर 3 शहरों में पहुँचने की है।

एटीटीएसी के पाँच लक्ष्य :

  1. जागरूकता फैलाना

अधिक से अधिक लोगों को मादक पदार्थो के दुष्परिणामों के प्रति जागरूक करने का प्रयास करना।

  1. सशक्तिकरण

लोगों को मादक द्रव्यों का सेवन करने से रोकने के प्रति सशक्त बनाना। यह कार्य हर किसी के लिए किया जाता है, चाहे वो किसी भी सामाजिक तबके से ताल्लुक रखते हों।

  1. सावधानी

धूम्रपान करने वालों को उस नुकसान के बारे में बताना, जो वे अपने निकटतम परिवारजनों को पहुंचा रहे हैं।

 

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  1. रणनीति बनाना और सहायता प्रदान करना

लोगों को शिक्षित करने के अलावा ये लोगों को नशे की आदत छोड़ने में सहयोग देते हैं और साथ में इस बात का भी ख्याल रखते हैं कि यह आदत छूट रही है या नहीं।

  1. इलाज के बाद की ज़िम्मेदारी

एक बार आदत छूटने के बाद वह दोबारा न आए, इसके लिए ये इलाज के बाद भी  रोगियों का रिकॉर्ड रख इसकी ज़िम्मेदारी उठाते हैं। सलाह और सहायता देते रहना, समझाना और इलाज के बाद भी टेलीफ़ोन, एसएमएस, ई-मेल करना इसमें शामिल है।  

 

घर से की गई शुरुआत

डॉ. कुशवाहा की कोशिश थी कि वो कोई ऐसा काम करें, जिसका प्रभाव घर पर भी दिखे और निजी रूप से वे खुद भी उसका पालन करें।

“मेरे पति डॉ. ड़्गांबा एक चेन स्मोकर थे और एक दिन में 30 सिगरेट तक पी जाते थे। मैंने देखा है कि यह आदत छोड़ने की पूरी प्रक्रिया कितनी मुश्किल है।

डॉ. न्गंबा

वह कहती हैं, “जो लोग धूम्रपान करते हैं, वे खुद बनाई मुसीबत से तो गुजरते ही हैं, पर उनके आसपास के लोग भी वैसी ही परिस्थिति में रहने को मजबूर हो जाते हैं। इस बात का ख्याल रखा जाना चाहिए। एक समय होता है, जब एक डॉक्टर होने के नाते हम मरीज़ों से धूम्रपान बंद करने और तंबाकू नहीं चबाने के लिए विनती करते हैं, पर उनके कान पर जूं तक नहीं रेंगती, पर जब उनके मुंह में घाव हो जाते हैं या कैंसर पाया जाता है, तब स्थिति पलट जाती है और ये हमारे पास विनती करने, रोने और मदद मांगने आते हैं।

 

धूम्रपान के आदी रह चुके इंसान द्वारा धूम्रपान छोड़ने के लिए कुछ सुझाव

डॉ. ङ्गांबा कुछ ऐसे तरीके बताते हैं, जो इनके लिए कारगार सिद्ध हुए, जब वह धूम्रपान छोड़ने की कोशिश कर रहे थे।

  1. शुरुआती 10 दिन अत्यंत कठिन होते हैं और यही वह समय है जब सिगरेट पीने की इच्छा अपने चरम पर होती है। खुद को किसी काम में व्यस्त रखने का तरीका निकालिए, ताकि आपका ध्यान धूम्रपान की ओर नहीं जाए।
  2. अपने परिवार के निकटतम सदस्यों और दोस्तों का सहयोग ज़रूरी है। ये कहते हैं, “ऐसा समय आता है जब आप सिर्फ सिगरेट पीना चाहते हैं और ऐसे समय में परिवार का साथ होना बहुत लाभकारी होता है।”
  3. आप हर समय अपने मिजाज में बदलाव महसूस करेंगे तो इसके लिए तैयार रहें। अंततः ये दिमाग का खेल है और आपको यह सुनिश्चित करना है कि आप खुद के नियंत्रण में हैं।
  4. अगर आप किसी संस्था में काम करते हैं या किसी विद्यालय के प्रशासक हैं और टीम एटीटीएसी को मादक द्रव्यों का सेवन करने या प्रारम्भिक स्तर पर कैंसर की पहचान जैसे विषयों पर बात करने के लिए आमंत्रित करना चाहते हैं तो आप इस वेबसाइट द्वारा इन तक पहुँच सकते हैं।

मूल लेख: विद्या राजा

संपादन: मनोज झा 


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